सोमवार, 16 मार्च 2015

सपना

बहुत हुआ सतरंगे सपने
बहुत हुआ अब तुम जाओ
व्यर्थ भ्रमों के जाल बिछाकर
और ना मुझको उलझाओ

तेरे संग बहुत खेला मैं
गाए गीत सुहाने से
नाचे नाच अनगिनत मैंने
उठे कदम दीवाने से

ललकी थी मेरी बाँह और
पुलके थे नयन नशीले तब
सतरंगी आभा से झिलमिल
तुम करीब आए थे जब

एक अंजाना संसार बसा
मधु के प्याले सा झूम गया
यात्रा-पथ मेरा निश्चित था
दोराहे पर मैं घूम गया

क्यों घूम गया तुम क्या जानो
सपने हो आखिर सत्य नहीं
अन्तर्मन अकुला जाता है
वरना यह मेरा कथ्य नहीं

आन्दोलित हो मानस से मैं
बस यही सोचता रहता हूँ
सपने तो देखे खूब मगर
क्यों इसी स्वप्न की कहता हूँ

माया ही है पर कुछ तो है
जिससे यथार्थ को भूल गया
जैसे एक बालक थाली में
चन्दा को पाकर फूल गया

इस अनुपम मृगतृष्णा में तुम
क्यों मुझ मृग को भटकाते हो
एक अंजाना संबंध लिए
क्यों द्वार मेरा खटकाते हो

बीतेगी रात्रि जैसे ही
तुम भी अलोप हो जाओगे
मदहोश होश में आ भी जा
बस यही शब्द कह पाओगे

फिर बुझी-बुझी आँखें लेकर
अचरज कर करके रोऊँगा
दुनिया में तुम्हें खोजने को
खुद भाव-भँवर में खोऊँगा

फिर भी तुम नहीं मिलोगे यह
कटु लगता है पर सत्य वचन
यूँ रात गई यूँ बात गई
क्यों भूल गया मेरा कवि मन

क्यों भूल गया मैं, मैं क्या हूँ
बालक सम और ना बहलाओ
है निकट भोर मैं भी जगलूँ
रहने दो और ना सहलाओ

क्या कहूँ और मैं तुमसे अब
कुछ पल के हो पर अपने हो
जीवन में तुम एक स्वप्न सही
लेकिन सुन्दरतम सपने हो

वो देखो सूरज उदय हुआ
जाना होगा अब तुम जाओ
बहुत हुआ सतरंगे सपने
बहुत हुआ अब तुम जा

बुधवार, 11 मार्च 2015

दाता री (की) टांग

                    चिता की धधकती आग के सामने खड़ा वो एक पल को चेतना शून्य हो गया। लपटें भड़-भड़ करके ऊपर को उठ रही थीं। लोगों की भीड़ ओने-कोने मे सरकने लगी थी। कुछ दो-दो, तीन-तीन के लघु समूहों में बंट कर धीमे स्वर में बातचीत करने लगे थे। कितना अद्भुत.......! राजा हो या रंक, अग्नि अपने धर्म का निर्वाह कर दोनों को समान रूप से जला डालती है। कुछ देर बाद वो भी चिता की आग को बिना किसी कारण ताकता हुआ एक पेड़ के नीचे जा खड़ा हुआ। श्मशान......... वैराग्य-भूमि। कुछ पल के लिए ही सही, यहाँ मनुष्य पर वैराग्य हावी होता ही है। चाहे इसे 'मसानिया बैराग' कह कर हम अगले ही पल इससे पल्ला झाड़ अपनी दुनियावी प्रेयसी की घनी ज़ुल्फों की नर्म छाँव में जिंदगी गुज़ारने की तफ़्तीश करते हुए उसे शादाब करने की जुगाड़ में क्यूँ न लग जाएँ। इस बात की तस्दीक़ महाभारत की कथा में युधिष्ठिर ने यक्ष-प्रसंग में की है। यक्ष द्वारा पूछे गए अंतिम प्रश्न, "किम आश्चर्यम?"....... अर्थात संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य कौनसा है,' के उत्तर में युधिष्ठिर ने कहा-"मनुष्य प्रतिदिन जगत में मृत्यु को घटित होते देखता है, किन्तु फिर भी स्वयं की मृत्यु की कल्पना कभी नहीं करता, यही संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है। अजीबोग़रीब मनस्थिति से गुज़र रहा था वो। कभी वैराग्य, जीवन की नश्वरता और क्षण-भंगुरता आदि जैसे भाव-गह्वरों में डूब जाता तो कभी अचानक किसी कुशल तैराक की तरह इनसे बाहर निकल दुनियादारी के किनारों को पकड़ लेता। हो सकता है यहाँ और भी कई लोग ऐसे हों जो ठीक इसी उतार-चढ़ाव से गुज़र रहे हों, या ये भी कि सभी की यही हालत हो; या फिर केवल एक वही हो जो ऐसा सोच रहा हो ........। इस बेमतलब के विचार से उसके होठों के कोनों से एक बेमतलब हँसी फूटने को ही थी कि उसने अपने आपको संभाल लिया। गौर से आसपास देख कर तसल्ली करी कि उसकी इस बेवकूफ़ी को कोई पकड़ नहीं पाया। पर एक बात तो तय थी कि वो जो चिता की अग्नि में धू-धू करके जल रहा था, उसे इस बात से कोई मतलब नहीं था। ना ही उसे मतलब था चारों ओर खड़े-बैठे-कुछ गुमसुम-कुछ बतियाते लोगों से, जो अभी कुछ देर पहले ही उसे कंधों पर लाद लाए थे यहाँ, और उसे चिता पर चढ़ा कर खुद पीछे हट चुके थे। 
                    हमारी स्मृति के एल्बम में टंगी तस्वीरें तरतीबवार नहीं होतीं, ना ही किसी क्रम में प्रकाशित होती हैं। मन का प्रौजेक्टर हमेश 'ऑटो मोड' में रहता है, जो चाहे दिखाता रहता है। उसके मानस-पटल पर भी झप्प से कई तस्वीरें उभर के ग़ायब हो जा रही थीं। ठीक वैसे ही जैसे बच्चे छुपमछुपाई खेलते हुए एक पल को प्रकट होते हैं, खिलखिलाते हुए फिर ग़ायब हो जाते हैं। चिता में जलने वाले का नाम सुमेर सिंह जी था .............ठाकुर साहब सुमेर सिंह जी। कथा की दृष्टि से या एक पल को विचार की दृष्टि से भी उन्हें सुमेर सिंह संज्ञायित नहीं किया जा सकता, ये बात वो अच्छी तरह से जानता था। उनका समूचा व्यक्तित्व एक आदरसूचक संज्ञा की मांग करता था। और वैसे भी उसे याद नहीं पड़ता कि किसी ने कभी उनका नाम भी पुकारा हो। उनके लिए एकमात्र सम्बोधन था- ठाकुर साहब। छोटे-बड़े-बच्चे-बूढ़े सब उन्हे ठाकुर साहब ही कहते थे। करीने से काढ़े हुए काले-सफ़ेद पट्टीदार बाल, झब्बूदार मूँछें जो कि कोनों से ऊपर उठ कर राजपूती दुंदुभिनाद करती सी प्रतीत होती थीं, सफ़ेद बुर्राक कुर्त्ता-पायजामा ओर उस पर काली वास्कट पहने, पैरों में चर्र-मर्र कर धरती को रौंदती राजस्थानी जूतियाँ पहने ठाकुर साहब पूरी कॉलोनी में कहीं भी नमूदार हो जाते थे। और तब एक साथ कई जोड़ी आँखें, कई सारे स्वर उनके सम्मान की जुगत में लग जाते। उस सारे सम्मान और आदर को अपना हक़ ओर देने वालों का कर्त्तव्य मान कर वो उसे पचा जाते ओर फिर अपने ठकुराई अंदाज़ में 'फाइनल वरडिक्ट' फरमा देते। 
                  एक दृश्य ............... वो देख रहा था ............. कॉलोनी में बिजली की लगातार कटौती से परेशान लोग बिजली-विभाग में शिकायत करने जा रहे हैं। इन सबके आगे चल रहे हैं ठाकुर साहब। बिजली-विभाग आ गया है। संबन्धित ए॰इन॰ सामने बैठा है। लोग रोष से भरे हुए हैं पर फिर भी शांत हैं। इसलिए नहीं कि वो डर रहे हैं बल्कि इसलिए कि ठाकुर साहब की बिना अनुमति ऐसा करना कहीं उनकी शान मे गुस्ताखी ना समझा जाए। लोग कमरे में खड़े हो गए हैं पर ठाकुर साहब जाते ही सीधे ए॰ईन॰ के ठीक सामने वाली कुर्सी पर विराजमान हुए हैं। अपने खरखराते गले से कुछ बात की है, एक-दो बार हँसे भी हैं जिससे उनकी मूँछें कुछ और ऊपर को उठ आईं, फिर हाथ मिलाया ओर चल दिए। सबने देखा ए॰ईन॰ कमरे के बाहर तक उन्हें छोडने आया। बिजली-विभाग के बाहर आते ही उन्होने फिर 'फाइनल वरडिक्ट' सुना दिया- "ट्रांसफार्मर खराब है, कल नया लग जाएगा।" और वाक़ई वैसा हुआ भी। कॉलोनी वालों के पास अंदाज़, अनुमान, टोरे-टप्पों के अलावा कोई साधन नहीं था कि वो 'क्या, क्यों, कैसे' को पकड़ पाते। कोई कहता, "ठाकुर साहब का मिलने वाला था," कोई कहता, "उनके गाँव का ही था," तो कोई दूर की कौड़ी लाता, "ठाकुर साहब ने उसे धमकी दी थी।" "जितने मुँह- उतनी  बातें" कहावत ठाकुर साहब पर खरी उतरती थी। 
                  एक और दृश्य ................ वो देख रहा था ............... कॉलोनी का कामचोर गोरखा चौकीदार। महीने में दस दिन मुश्किल से गश्त पर आना और कुछ पूछो तो, " ओ शाब उदर की गली शे शुरू किया, इदर बहुत लेट आया," जैसे कई बहाने चेप देना। सुबह का समय ........... गोरखा 'जीतू वाटर-टैंकर्स" के ड्राइवर बिहारी के पास बैठा बीड़ी फूँक रहा है। ठाकुर साहब गली के नुक्कड़ तक आए और गोरखे को हाथ से इशारा कर बुलाया। गोरखा बीड़ी फैंक कुछ दौड़ता, कुछ चलता फटाफट ठाकुर साहब की ओर लपका। इतने में ठाकुर साहब अपनी हवेली तक पहुँच चुके हैं। बरामदे में लगे मोढ़े पर अध-पसरे हुए हैं। गोरखे ने सलाम किया। ठाकुर साहब ने एकदम धीमे से पूछा, "रात को आता क्यों नहीं है गश्त पर? ...... किस बात के पैसे लेता है?" गोरखे का हर बहाना उसके हलक में ही अटका रह जाता है। "ओ शाब ...... ओ शाब ......." के आगे कुछ नहीं। "चल मुर्गा बन," कह कर ठाकुर साहब खड़े हो गए। उनकी चमकदार आँखों में एक राजशाही क्रूरता उबली ओर गोरखा अगले ही पल मुर्गा बन गया। गली में आते-जाते लोग देख रहे हैं। हँस भी रहे हैं तो मुँह इधर-उधर छुपा कर। कुछ देर बाद अपराधी को दंड मुक्त किया गया और फिर सुनाया गया 'फाइनल वरडिक्ट'- "मैं रोज़ रात को एक पत्थर गेट के पास रखूँगा, तू रात को गश्त करेगा और उस पत्थर को उठा कर बाहर वाली खिड़की के नीचे रखेगा और तीन बार लाठी बजाएगा।" और उस दिन के बाद गोरखे की गश्त नियमित हो गई। 
                  दृश्य पर दृश्य ............. बहुत सारे दृश्य ........... वो देख रहा है ............ ना जाने कितने ही 'फाइनल वरडिक्ट' सुन रहा है। इधर नीचे से ऊपर को उठती अग्नि की लपटें लकड़ियों और उन पर लेटे ठाकुर साहब के शरीर को भस्मावशेष में बदलती जा रही थी। अचानक उसने देखा कि ठाकुर साहब के शरीर से उनकी टांग का घुटने से नीचे का हिस्सा लकड़ियों से बाहर को निकल आया। ज़्यादा नहीं पर कई दाह-संस्कारों में वो सम्मिलित हो चुका था पर ऐसा तो कभी नहीं देखा। बाद में चिता सजाने के एक्सपर्ट लोगों से उसे पता चला था कि चारों ओर लकड़ी लगाने में थोड़ी भी चूक हो जाए तो ऐसी अनहोनी हो जाती है। कुछ देर भी ये टांग ऐसे बाहर को रही तो बाक़ी शरीर से इसके जुड़ाव वाले अवयव जल जाएंगे और ठाकुर साहब की ये टांग चिता से बाहर गिर जाएगी, जल नहीं पाएगी। चिता के पास ही खड़े उनके रिश्तेदारों में से एक लड़का जो शायद उनका कोई नाती-पोता होगा, देख कर एक झटके से ठाकुर साहब के बड़े बेटे के पास पहुँचा और चिता की ओर इंगित करके फुसफुसाया, 'दाता री टांग।' राजपूती परंपरा के अनुसार नाती-पोते अपने बुज़ुर्गों को दाता संबोधित करते हैं। अब तो एक अजीब सी हड़बड़ाहट मच गई। सभी रिश्तेदार एक दूसरे को बताने लगे, "अरे देखो! दाता री टांग।" घबराए लोगों को समझ में नहीं आ रहा था कि अब किया क्या जाए। अग्नि का आवेग अपने चरम पर था। पास जाने की सोचना भी असंभव था। अब तक सभी रिश्तेदारों के चेहरों पर ठाकुर साहब के चले जाने के दुख का भाव अपनी पूर्ण राजसी भंगिमा में अंकित था। अचानक घटी इस घटना ने उस राजसी भंगिमा के छद्म-आवरण को छिन्न-भिन्न कर दिया और वे ठगे हुए से कुछ ना कर पाने की स्थिति में केवल "दाता री टांग, दाता री टांग," कहते हुए एक दूसरे को दिखाने लग गए; मानो उनके इस तरह सामुहिक प्रलाप करने से ठाकुर साहब स्वयं अपनी टांग समेट कर फिर से चिता के अंदर कर लेंगे। तभी उसने देखा श्मशान में चिता जलाने में सहायता करने वाला, जो कि निस्संदेह किसी नीची जाति का डोम या चांडाल रहा होगा, बड़े ही निश्चिंत भाव से आया और एक लंबे बाँस को ठाकुर साहब की बाहर निकली हुई टांग पर रखा और अत्यंत लापरवाही से एक ज़ोर की ठोकर से उसे जलती लकड़ियों के बीच धकेल दिया। सभी रिश्तेदारों की साँस में साँस लौटी पर उसे तो जैसे काटो तो खून नहीं। इस बदज़ात की हिम्मत कैसे हुई कि ठाकुर साहब के साथ ऐसी बद्तमीजी कर जाए। ये सब इतनी जल्दी में हुआ कि एक बार को उसे लगा कि ये तो आज मरेगा, इतनी बड़ी बद्तमीजी जो कर बैठा था वो। बस हर बार की तरह वो टकटकी लगा कर देखने लगा कि अब ठाकुर साहब क्या 'फाइनल वरडिक्ट' सुनाते हैं। 
                  ................. पर आज कुछ नहीं हुआ। वो करीने से काढ़े हुए काले-सफ़ेद पट्टीदार बाल, झब्बूदार मूँछें जो कि कोनों से ऊपर उठ कर राजपूती दुंदुभिनाद करती सी प्रतीत होती थीं .......... जाने कहाँ खो गए थे! जीवन की क्षण-भंगुरता, नाशवान देह और वैराग्य भाव, सब एक फ्रेम में समेकित हो गए और वो थी- 'दाता री टांग।' रिश्तेदारों को हाथ जोड़ने की परंपरा का निर्वाह कर वो श्मशान से निकला और अपने स्कूटर की ओर बढ़ा। अब उसे अपनी दुनियावी प्रेयसी की घनी ज़ुल्फों की नर्म छाँव में जिंदगी गुज़ारने की तफ़्तीश करते हुए उसे शादाब करने की जुगाड़ में जो लगना होगा। 
                 

     

मंगलवार, 3 मार्च 2015

प्रतीक्षा

बढ़ता जाता द्वंद्व
खिंचती जाती लकीरें
जन्म लेता नर-पशु।
करता अट्टहास
खोलता खुनी जबड़े
आर्तनाद करती मानवता।
सभी बन गए पार्थ
बैठें हैं संशयग्रस्त
दीखते भयातुर।
प्रतीक्षा है कृष्ण की
देंगे दिव्य दृष्टि
जगाएंगे ज्ञान।
किन्तु तब तक
नर-पशु लील जाएगा
समूची मानवता।
कानों में पिघले शीशे सा
उतरता रुदन, हाहाकार, चीत्कार।
आँखें ताक रही क्षितिज को
दिखाई दे कहीं मोर पंख
सुनाई दे कहीं बंशी की धुन
कोई कहियो रे प्रभु आवन की।


सोमवार, 2 मार्च 2015

चिट्ठी

और आखिर उसने तय कर ही लिया कि वो चिट्ठी लिखेगा। ऐसा नहीं है कि ये निर्णय उसने आज ही किया है, कई बार ये हुआ है, पर जाने क्या सोच कर उसने अपना विचार बदल लिया। पर आज तो वो ज़रूर लिखेगा। मंगल ने जल्दी से काग़ज़ पैन संभाल लिया। थोड़ी देर तक काग़ज़ पर उलटी-सीधी लकीरें बनाता-काटता  रहा, साथ में सोच भी रहा था। कुछ देर बाद उसे लगा सोचते-सोचते बहुत देर हो गई, नहीं ..लकीरें बनाते-बनाते बहुत देर हो गई, या शायद दोनों ही बात। कटी-फटी लकीरों से ज़िंदगी झाँकने लगी तो उसे हँसी आ गई।
प्रिय पूजा!
इतना लिखते ही उसने काट दिया। क्यों काटा ? पता नहीं। शायद ठीक नहीं था। तो क्या ठीक रहेगा ? हाँ, पूजा जी! नहीं-नहीं ये तो अजीब सा लग रहा है। पूजा! हाँ, ये सही है ......
पूजा,
कैसी हो? आज इतने दिनों बाद मेरा पत्र देख कर न जाने तुम क्या सोच रही होगी। दिल्ली जाने के बाद कभी तुम्हारी कोई ख़बर ही नही मिली, इसलिए सोचा कि तुम्हारे  हाल-समाचार ही जान लूँ। यहाँ बहुत बढ़िया है। सब ठीक है। याद है तुमने एक बार कहा था, "मंगल तुम सदा रहो कुशल मंगल," और हम कितना हँसे थे। मुझे सब याद है। कभी-कभी मुझे लगता है शायद मेरी तकलीफ़ की वज़ह यही है कि मुझे सब कुछ याद रहता है। इंसान को भूलना भी चाहिए, पर भूल नहीं पाता। 13 मई 1989 …… उस दिन सूरज से आग बरस रही थी। गर्म लू के झौंके कानों के पास से गुज़रते तो लगता कि  सिर को किसी ने दहकती हुई भट्टी में डाल दिया हो। क़िताबों की दुकान के पास दिन भर खड़ा रहा था। आस-पास पानी नहीं था और जगह छोड़ कर जाने का मन नहीं हुआ। शाम को घर लौटते हुए जाने कितनी बार मुड़ कर देखा। गला सूख गया था पर पानी बेस्वाद हो गया। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। पर आज मैं तुमसे क्यों लड़ रहा हूँ? शायद इसलिए कि उस दिन से ही मेरी ज़िंदगी एक लड़ाई बन गई। एक ऐसी लड़ाई जिसके हर मोर्चे पर मैं अकेला था। ज्यों-ज्यों लड़ता गया ,त्यों-त्यों ज़िंदगी दुष्कर बनती गई। उसके तीखे-नुकीले जबड़ों के बीच मैं छटपटाता रहा- असहाय और बेबस। ज़िंदगी के वीभत्स, घिनौने अट्टहास मुझे कुंद करते रहे। ज़िंदगी जब मज़ाक उड़ाने लगती है तो हर कोई मज़ाक उड़ाने लगता है। जाने दो ....मैं भी क्या अपनी ले बैठा। तुम बताओ, तुम्हारे क्या हाल हैं। तुम्हारा परिवार, पति, बच्चे ….... सब कैसे हैं? क्या तुम्हारे बच्चे भी तुम्हारी तरह झिझक भरी हँसी हँसते हैं? क्या वो भी बोलते-बोलते चुप हो जाते हैं? क्या उनका रंग भी...........? उफ़्फ़! न जाने मैं भी क्या पूछ रहा हूँ। कभी-कभी ये दिमाग़ भी इंसान को चक्कर में डाल देता है। कहना कुछ और चाहता है, कहता कुछ और है। पर तुम बुरा मत मानना। इतने दिनों बाद चिट्ठी लिख रहा हूँ, या यूँ कहलो कि इतने दिनों बाद कुछ लिख रहा हूँ, इसलिए शायद थोड़ा नर्वस हूँ। अच्छा, दिल्ली का मौसम कैसा है? सुना है वहाँ सर्दी और गर्मी दोनों तेज़ पड़ती है? पर यहाँ भी सर्दी और गर्मी दोनों तेज़ ही पड़ती है। सर्दियों से याद आया, तुम्हे याद है एक दिन तुम सुबह-सुबह मुझसे मिलने आई थीं और सर्दी इतनी तेज़ थी कि तुम  काँपते हुए रज़ाई में घुस गई थीं। आजकल इतनी सर्दी नहीं पड़ती। सच तो ये है कि अब सर्दी पड़ती ही कहाँ है। सारे मौसम अपना रंग खोते जा रहे हैं। पर रात, रात आज भी उतनी ही अच्छी उतनी ही अकेली लगती है। रात के अँधेरे में ही तो सूरज का सपना छुपा हुआ है। अँधेरे के गहराने का एहसास रोशनी की आहट है। लेकिन यह ज़िंदगी किताबी-कथनों की पंक्तियों की तरह इतनी सीधी और सरल भी नहीं होती। पूजा, इस मन की गहन गुफाओं में व्याप्त अँधियारे कई बार सूरज का प्रवेश तक निषेध कर देते हैं और फिर तब शुरू होता है मन की दीवारों से सर टकराने का दौर; टकराना और एक डरावने अंधकार में टोहते हुए रास्ता खोजना। 1 दिसंबर, तुम्हारा जन्मदिन। हम लोग घंटों अस्पताल के मोड़ के पास लगे गुलमोहर के पेड़ के नीचे यह  तय करने के लिए खड़े रहे कि कहाँ चला जाए। तुम्हें याद है ना पूजा! अंतत: हम कहीं नहीं जा सके। उस दिन मैंने महसूस किया था कि तुम्हारा मन एक अंजाने अंधकार में छटपटा रहा है, कुछ ढूँ रहा है; शायद अपनी यात्रा की दिशा तय नहीं कर पा रहा है। एक बात बताऊँ, तुम्हारे शहर छोड़ के चले जाने के बाद भी मैं जाने कितनी बार उस गुलमोहर के पेड़ के तले जाकर खड़ा हुआ हूँ। अब यह तो क्या बताऊँ कि मैं वहाँ क्या देखने जाता रहा, पर हाँ, इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि वहाँ जाकर मैं कुछ बदल-सा जाता था।  
देखो! मैं फिर घूम कर अपनी ही बात कहने लग गया हूँ। मैं कुछ स्वार्थी हो गया हूँ। हाल तुम्हारे जानना चाहता हूँ और अपनी कहे चला जाता हूँ। या कहीं ऐसा तो नहीं……… जाने दो शायद तुम्हे बुरा लग जाए। पूजा! कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारी बात मेरे शब्दों का चोला पहन रही हो? लेकिन यह भी तो पूरी तरह नहीं हो पाता है। भले ही हम कितना भी इत्मीनान क्यूँ ना करलें लेकिन ऐसा बहुत कुछ होता है जो अनकहा रह ही जाता है। उसी अनकहे को कह पाने या सुन पाने के लिए हम जाने क्या-क्या करते चले गए! कैंटीन में चाय के प्यालों के साथ चलती वो अंत्याक्षरी, अंत्याक्षरी में जानबूझ कर गाए गए कुछ खास गीत,साईकिल-स्टैंड पर अचानक रोक कर तुम्हें एक किताब देना और यह बताना कि इसमें वो कहानी ज़रूर पढ़ना, रात के सन्नाटों में खुद से बतियाते हुए कविताएं लिखना और दूसरे दिन तुम्हें पढ़ाते हुए तुम्हारी आँखों में उसका असर तलाशना; ये सारा कुछ हर बार कम-सा लगने लगा उस अनकहे को कह पाने या सुन पाने में। और अब यह चिट्ठी... या कि चिट्ठी लिखने का खयाल भी, क्या उसी तरह की कोशिश नहीं है? पर एक बात तो तुम भी मानोगी कि इतना कुछ अनकहा रहने के बाद भी वो धुँधला-सा ही सही, पर कुछ था ज़रूर, जो हमें दिखाई देता था; ठीक वैसे ही जैसे दूर घाटियों की तलहटी में बसा कोई छोटा-सा मंदिर, न दीखते हुए भी, उसकी घण्टियों की टन-टन से हमारी समझ में आकार लेने लगता है। कमाल है, एक धुँधला-सा एहसास इस कदर ज़िंदगी पर हावी हो जाता है कि किसी के मानस पटल पर छप कर हर दृश्य को, हर विचार को और यहाँ तक कि काम करने के तरीके तक को अपने ढंग से बदल के रख देता है! मैं सही कह रहा हूँ ना पूजा! क्या तुम्हें भी ऐसा ही महसूस..., छोड़ो जाने दो। न जाने कितने प्रश्न पूछता रहा तुमसे हमेशा, और आज भी तो देखो ना...! पर तुम्हारा वो एक प्रश्न...! एक अनुत्तरित प्रश्न मुझे चैन नहीं लेने देता है। वो प्रश्न जो बरसों पहले तुमने मुझसे किया था। याद है, तुमने मुझसे पूछा था, "मंगल! मुझे बतादे मैं तुझे छोड़ कर क्यों जाऊँ?" हवाओं पर तैरता हुआ ये प्रश्न मेरे कानों से टकराता है और मैं परेशान हो जाता हूँ। दिन की भट्टी में अपने आप को झौंक देता हूँ। एक पल के लिए भी खुद को बचा कर नहीं रखता। डरता हूँ, सड़क के किसी कोने से, लैम्प पोस्ट के टूटे हुए काँच से या अधफटे फ़िल्मी पोस्टर से यही सवाल रैंगता हुआ आकर मुझ पर कुंडली मार कर ना बैठ जाए। आगे-आगे मैं भागता हूँ और पीछे-पीछे ये सवाल। थक कर हाँफता हुआ, कब ना जाने नींद की भूलभुलैया में चला जाता हूँ, पता नहीं लगता। सब कुछ खो गया, बस ये दौड़ बची है। बहुत हो गया, अब बंद करता हूँ। मन किया और लिख दिया। कभी यहाँ आओ तो मिलना, या चिट्ठी लिखना, या फिर जैसा तुम ठीक समझो।
                                                                                               
                                                                      तुम्हारा 
                                                                                             मंगल 
चिट्ठी तो शायद मंगल ने दूसरे दिन ही डाल दी। बरसों बीत गए, कोई जवाब नहीं आया। क्या पता कुछ लोग कह रहे थे उसने पता सही नहीं लिखा। कुछ लोग तो ये भी कह रहे थे कि वो पूजा नाम की किसी लड़की को जानता ही नहीं था।कुछ लोग तो दबे स्वर में ये भी कह रहे थे कि उसके शहर में तो लैटर-बॉक्स ही नहीं था। ……………………………राम जाने, उसने चिट्ठी लिखी भी थी या नहीं।
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रविवार, 1 मार्च 2015

उड़ान

उड़ान …!
मन पंछी व्याकुल
उड़ना चाहे
पर फैलाए
नभ को नापे।
प्राण प्रफुल्लित
तन मस्ताना
 मन आनंदित
रहना चाहते हर पल हर पल ।
ए आसमान!
विलीन हो जाऊँ
तुझी में किसी दिन
रह जाए शेष
केवल बस उड़ान ।