गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

वही लड़की बार-बार .........

"दरसन कर लेनाआआआआआ....., पार उतारे मंगला आरतीईईईईई........" का कानफोड़ स्वर सुबह पहले रामावतारजी को झंझोड़ देता है। बिस्तर पर लेटे-लेटे वे कई तरह के मुँह बनाते-बिगाड़ते हैं। कभी-कभी 'हुंह' जैसी तिरस्कार भरी ध्वनियाँ भी निकाल देते हैं। कंधों और सीने को उचकाते हुए एक ज़ोरदार उबासी लेते हैं, फिर पैरों को रज़ाई से निकालते हुए बैड के नीचे रखे चप्पलों की ओर सरका देते हैं और एक उड़ती हुई नज़र दीवार घड़ी पर डाल देते हैं। पाँच पैंतीस.... वे लगभग रोज़ इसी समय उठते हैं। तभी लाउडस्पीकर पर वही आवाज़ गूँज उठी- "दरसन कर लेनाआआआआआ....., पार उतारे मंगला आरतीईईईईई........," " ओफ़्फ़ोह! अभी तक चाय नहीं बनी क्या कृष्णा," कह कर उन्होंने गुस्से या खीज भरे स्वर से उस स्वर को काटने की कोशिश की जिसे वे हर रोज़ सुबह सुनते हैं और परेशान हो जाते हैं। उनकी पत्नी कृष्णा, जो कि जीवन के पचपन बसंत देख चुकी हैं और रामावतारजी से पूरे दस वर्ष छोटी हैं, स्टील के ग्लास में चाय और साथ में एक खाली प्याला लिए कमरे में आईं और चुपचाप पास के प्लास्टिक के सफ़ेद स्टूल, जो कि अपना सफ़ेदपन बहुत हद तक खो चुकने के बाद भी वक़्त ज़रूरत 'सफ़ेद स्टूल' के नाम से ही याद किया जाता था, पर रखकर चली गईं। स्टूल पर कल-परसों-नरसों की चाय की छलकी हुई बूँदों के निशान साफ तौर पर बने हुए थे, जिन पर अब कोई गौर भी नहीं करता था। चाय सुड़कते हुए भी कई बार उन्हें वही स्वर सुनाई दिया और उन्होंने होठों को आड़ा-टेढ़ा किया।
ये आवाज़ पास के ही ठाकुर जी के मंदिर से आ रही थी। दो साल पहले सेठ राधाकिशन माहेश्वरी ने यह मंदिर बनवाया था। सेठजी का बंबई में सोने-चाँदी का बहुत बड़ा कारोबार था। सेठानीजी रोज़ सुबह ठाकुरजी के दर्शन करके ही दिन का आरंभ करती थीं। वैसे तो पूजा-पाठ के लिए बाकायदा एक पंडित रखा हुआ था, फिर भी सुबह और शाम लाउडस्पीकर पर आरती गाने का अधिकार सेठानीजी का ही था। काले रंग वाली, औसत से भी नीचे स्तर के नाक-नक़्श युक्त चेहरे वाली, मोटी व बेडौल देह वाली सेठानी झलमल करती जरीदार साड़ी पहने ठाकुरजी को दंडवत प्रणाम कर खड़ी हो जाती और मन्नू पुजारी यंत्रवत माइक उसके सामने ला कर खड़ा कर देता। और तब सेठानी अपने धँसधँसे और अजीब-सा तीखापन लिए हुए स्वर में, सभी शब्दों को अनिवार्य रूप से अनुनासिक बनाते हुए गाने लगती- "दरसन कर लेनाआआआआआ....., पार उतारे मंगला आरतीईईईईई........।" लाउडस्पीकर से निकल कर ध्वनि-तरंगें हवा पर सवार होकर चारों ओर बिखर जातीं। तमाम बाधाओं के बावजूद ये स्वर-लहरी रामावतारजी के कानों में घुस जाती और हर सुबह उन्हें झंझोड़ कर उठा देती। 
स्वरों का भी एक रहस्यमयी विज्ञान है। एक स्वर के साथ-साथ चलते हुए कब कोई किसी अन्य स्वर-लहरी तक पहुँच गया, पता ही नहीं चलता। स्वरों में ही आग भरी हुई है, स्वरों में ही शीतलता का आभास है। स्वरों में ही रोमांच का एहसास है और स्वरों में ही प्रेम की अनुभूति के कंपन हैं। स्वर दिक और काल से परे पलक झपकते ही किसी को भी कहाँ से कहाँ पहुँचा देते हैं। रामावतारजी भी चले जाते हैं इन स्वरों के साथ ....... दूर-बहुत दूर। हज़ारों किलोमीटर दूर उत्तराखंड के पहाड़ी प्रदेश में बैपरिया पहाड़ की तलहटी में बसा एक गाँव .......सिलोर महादेव। ऊँचे-ऊँचे चीड़ और देवदार के वृक्ष, किसी थके हुए बुजुर्ग-सा दूर-दूर तक पसरा हुआ पहाड़, जिसकी तीखी ढूहों पर बने हुए छोटे-छोटे घर, पिरूल नामक तेज़ फिसलनदार घास से भरी हुई सर्पाकार पगडंडियाँ जो कि अपरिचितों को गंतव्य तक पहुँचाती कम हैं, भटकाती अधिक हैं। इन्हीं के बीच गगास नदी के किनारे बना शिवालय और उसमें सेवा-अर्चना करते भुवन पंडित। भुवन पंडित जब शाम को ज़ोर से शंख फूँकते और अपनी अस्थमा से भरी हुई टूटती हुई साँसों के साथ जैसे-तैसे आरती पूरी करते तो गाँव के कुछेक बच्चे आ जुटते गुड़, बतासा, मिसरी प्रसाद के चक्कर में। रामावतार एक बहुत शर्मीले बालक हैं। आठवीं बोर्ड में सर्वाधिक अंक लाकर फिलहाल छुट्टियाँ मना रहे हैं। एक महीने की छुट्टी के बाद वे लखनऊ अपने मामा के यहाँ आगे की पढ़ाई के लिए जाएंगे। उनके सूबेदार पिता उन्हें फौज में भेजना चाहते हैं पर माँ ऐसी करमजली नौकरी क़तई नहीं चाहती।
एक शाम रामावतार सभी दोस्तों के साथ हरिराम के अनबोए खेत में खेल रहे थे कि मंदिर से आरती का स्वर सुनाई दिया। पर ये स्वर उस अस्थमा से लिजलिजी हुई साँसों के कंपन से बिलकुल अलग थे। बहुत मीठी, बहुत मोहक स्वर-लहरी .........ओम जय शिव ओमकारा .......। सम्मोहित से रामावतार शिवालय पहुँचे तो देखा भुवन पंडित हाथ में दीपक लिए पूजा कर रहे हैं और उनके पास खड़ी एक लड़की आरती गा रही है। आरती कब की खत्म हो गई, भुवन पंडित प्रसाद बाँट रहे हैं ............ "ले रे रामा," पंडित जी की आवाज़ ने उसका सम्मोहन तोड़ा और वो मिसरी प्रसाद लेकर बाहर खड़ा हो गया। पूजा का सारा सामान समेट कर पंडितजी और वो लड़की शिवालय का दरवाज़ा बंद कर नीचे को आने लगे। रामावतार ने बस एक बार आँखें उधर कर देखा। अपने परिवार से भटकी हुई हिरनी जैसी उसकी आँखें थीं, कुछ सहमी-सहमी सी। जब वो दोनों उसके आगे से होकर निकले तो वो थोड़ा पीछे दब गया और उनकी पीठ को देखता रहा जो धीरे-धीरे पगडंडियों में घूमती हुई एक धुँधले धब्बे में बदल गई। बहुत देर से मुट्ठी में भिंची मिसरी ने हथेली को चिपचिपा कर दिया था। जैसे-तैसे उस प्रसाद को मुँह में डाल कर रामावतार ने एक बार फिर शिवालय की ओर हाथ जोड़े और घर की ओर चल दिया। निस्संदेह स्वरों की मिठास ने मिसरी को एकदम फीका कर दिया था। 
क्या कुछ स्वर उलझाने वाले भी होते हैं? समझ में नहीं आता कहाँ से पकड़ें ओर कहाँ से छोड़ें! आँख बंद करो तो वही स्वर, खोलो तो वही स्वर। स्वर न हुए इंद्रजाल हो गया- इंद्रजाल या मोहपाश......! आरती के स्वरों में जैसे कोई अनकहा निमंत्रण हो। चौदह वर्ष की वयस में रामावतार अचानक से कौनसे मायावी वन में प्रविष्ट हो गए कि डर, शंका और घबराहट के होते हुए भी उस अंजान वन की मायावी सुरम्यता से बाहर नहीं आना चाहते थे! बरसात में उफनती गगास नदी के शोर में आरती के वो मीठे स्वर तैरते रहते और रामावतार टकटकी लगाए शिवालय में खड़े रहते ............. मंत्र-मुग्ध, पूर्ण सम्मोहित।
भुवन पंडित की पत्नी जमना  के क्षय रोग से निधन के बाद उनकी इकलौती बेटी सरस्वती, जिसे सब सरु कहते थे, को उसकी मौसी अल्मोड़ा ले गई। एक के बाद एक सारी कक्षाओं में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए इस साल मैट्रिक का इम्तिहान देकर सरु अपने पिता के पास लौट आई। सरु का आगे अपनी मौसी के साथ न रह पाने का कारण उनके पास पर्याप्त धन के अभाव का होना तो था ही, साथ में मौसी के दोनों बेटों का लगभग हर साल फ़ेल हो कर आवारागर्दी करने के फलस्वरूप उपजा पारिवारिक द्वेष भी था। ............. "कितनी चाय पियोगेऔर अब?....... उठ के तैयार हो जाते तो कुछ काम-धाम भी करते.............. बाथरूम के नल टपक रहे हैं, प्लंबर को ही ले आते......," रामावतारजी की पत्नी कृष्णा के स्वर ने अचानक जैसे उन्हें पचास सालों को लँघा कर आज में ला पटका। ये बहुत ही निर्मम था। वो कुछ देर और वहीं रहना चाहते थे। दूर पहाड़ों में शिवालय.......... शिवालय में होती आरती.......... आरती में उस लड़की के स्वर। एकदम नया, एकदम अंजान मोह-पाश।
सूरज इतना नीचे सरक आया कि धूप रौशनदान से तैरती हुई नीचे वाली खिड़की की जाली को चीरती हुई रामावतारजी की आँखों में गड़ने लगी। वे तुरंत अख़बार को आँखों के आगे फैला लेते हैं। ऐसा करने में उनका उद्देश्य अख़बार पढ़ना है या धूप से बचना है, ये कहना ज़रा कठिन है। कुछ देर ऐसे ही निररुद्देश्य बैठे रहने के बाद वे अचानक अख़बार फैंक उचक कर खड़े होते हैं। अब वे एक ही साँस में तैयार होते हैं। दाढ़ी बनाना, नहाना-धोना, पूजा-पाठ.......... सब कुछ एक के बाद एक। दिन के खाने के बाद वे थोड़ा सोते हैं जिसे वे 'एक झप्पैक' सोना कहते हैं। शाम की चाय पी ही थी कि उनके पड़ौसी गुप्ताजी का लड़का शानू आया। शानू किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहा था। अँग्रेजी की कोई प्रॉब्लम पूछने आया था। "अरे-अरे क्यों नहीं, ज़रूर पूछो बेटा," चेहरे पर एक औपचारिक मुस्कान लाते हुए वे कहते हैं।
 चश्मे को अंगुली से थोड़ा-सा आँखों की ओर धकेल कर उन्होंने कॉपी-पैन हाथ में लिया। तुरंत ही एक साईकिल का रेखाचित्र खींच डाला। "देखो बेटा, ये अंग्रेजी की साईकिल है। इसके दो पहिये हैं। एक पहिया है 'वॉक्युवेलेरी' और दूसरा है 'टैन्स।'  जब तक दोनों ही पहिये मज़बूत ना हों साईकिल चलेगी कैसे?.......," रामावतारजी यंत्रचालित से पढ़ाते चले गए। पढ़ाते-पढ़ाते इतना उत्साहित हो जाते हैं कि कई बातों को अनावश्यक रूप से ज़ोर से भी बोलने लगते हैं। शानू चला गया। रामावतारजी अंग्रेजी की साईकिल पर ही चल रहे हैं। अभी भी अंग्रेजी पढ़ाने के इस विशेष ढंग से बंधे हुए हैं। खुद पढ़ा तो, अपने बच्चों को पढ़ाया तो, पड़ौसियों को पढ़ाया तो..........हर बार इसी साईकिल से। अंग्रेजी की साईकिल चलते-चलते भागने लगती है और धीरे-धीरे हवा में उतर जाती है। जाने कहाँ-कहाँ पहुँचा दे रही है!
शाम का समय....... बालक रामावतार के पिता सूबेदार बालम सिंह कुल्हाड़ी और हँसिये को धार लगवा कर घर लौटे। उन्होंने कुल्हाड़ी और हँसिया संभाल कर लकड़ी के पाट के नीचे सरका दिया जिस पर रात को वे सोते थे। "दिन भर यहाँ-वहाँ घूमता रहता है। कल सुबह पंडितजी के यहाँ चले जाना। उनकी लड़की तुझे अंग्रेजी और हिसाब पढ़ा देगी। पंडितजी कह रहे थे कि सरु बहुत होशियार है, मैंने बात करली है उनसे," कहते हुए सूबेदार बालम सिंह हुक्के में आग धरने लगे। रात को बालक रामावतार घर के आगे वाले दालान में खिड़की के पास सोते थे। खिड़की से आसमान झाँक रहा था। रामा आसमान में छाए तारों की एक अद्भुत बारात में शामिल हो गया। बिलकुल बारात ही है। ढोल-बाजे बज रहे हैं......और वो........वो रही दुल्हन की पालकी............अचानक हवा से पालकी का पल्ला लहराया और दुल्हन का सुंदर-सा चेहरा एक पल को बाहर छलक गया। एक मादक सुगंध जैसे फ़िजाँ में घुल गई। नशा-सा छाने लगा। ढोल-बाजे बजाने वाले चौगुनी लय-ताल से संगीत बिखेरने लगे। रामा नाच रहा है। बादलों के ऊपर थिरक रहा है। उसके रोम-रोम में संगीत प्रवाहित हो चुका है। नाच अपनी अंतिम परिणति में सदा ही मूर्छा में बदल जाता है। यह मूर्छा 'स्व' का तिरोहण हो या फिर उसके किसी रहस्यमयी कपाट को खोल देना हो, दोनों ही स्थितियों में होता अत्यंत सम्मोहक है।
सुबह जब रामा पंडितजी के घर के बाहर खड़ा था तो एक बार तो उसका मन किया कि फिर से अपने घर भाग जाए, पर फिर धीरे-धीरे संभलते हुए उसने आवाज़ दी, "पंडितजी प्रणाम! मैं रामा......।" "अच्छा-अच्छा, हाँ, आजा," कहते हुए पंडितजी घर के अंदर वाले भाग में चले गए। रामा एक बार नीचे बिछी दरी पर बैठ गया, तुरंत ही जाने क्या सोच कर खड़ा हो गया। खड़ा हुआ तो देखा सामने सरु थी, हाथ में कोई पुरानी-सी क़िताब लिए। सरु शायद ज़रा-सी मुसकुराई थी, ऐसा रामा को लगा। सरु ने रामा कि कॉपी ली और एक साईकिल का रेखाचित्र बनाया। "ये अंग्रेजी की साईकिल है। इसके दो पहिये हैं। एक पहिया है 'वॉक्युवेलेरी' और दूसरा है 'टैन्स।' जब तक दोनों ही पहिये मज़बूत ना हों साईकिल चलेगी कैसे?.......," सरु एक दक्ष अध्यापिका की तरह पढ़ाती चली गई। रामा रोज़ हँसी, खुशी, उदासी, करुणा और बेबसी जैसे जाने कितने ही मनोभावों को सरु की उन दो आँखों में डूबते-तैरते देखता रहता था। घर से जब चलता तो बेचैनी का एक जंगल उसके सर पर सवार रहता जो कि सरु के दरवाज़े पर आते ही ठीक वैसे ही ग़ायब हो जाता जैसे हरिराम के बाप के सर पर चढ़ा भूत देवी-थान में घुसते ही अपने आप उतर जाता था।
सरु के साथ का वो समय शायद काल का वो बग़ावती टुकड़ा था जो अपनी स्वतंत्र सत्ता घोषित कर चुकने के साथ शेष काल की गति से कई गुना अधिक तेज़ भागता था। सरु के घर के बाहर वही बेचैनी का जंगल उसकी प्रतीक्षा में होता। एक दिन घर लौटते हुए राधे सिंह की चाय की दुकान के पास से उसने मुड़ कर देखा। दूर पंडितजी के घर के दरवाज़े पर उसे लगा सरु खड़ी है और उसे ही देख रही है। वो जानता था कि इस बात में भ्रम की मात्रा अधिक है। किन्तु, कुछ भ्रम बहुत प्यारे भी होते हैं। जी नहीं करता कि उन भ्रमों को तर्क-बुद्धि की कसौटी पर कसा जाए। 
महीने भर की छुट्टी इतनी जल्दी ख़त्म हो जाएगी, रामा ने नहीं सोचा था। लखनऊ जाने के लिए जब वो और उसके पिता सूबेदार बालम सिंह सड़क को जा रहे थे तो पहले शिवालय में जाकर दोनों ने दर्शन किए। पंडितजी को प्रणाम किया तो उन्होंने 'असीक' देते हुए "जुग-जुग जियो, खूब तरक्की करो," का आशीर्वाद दिया। शिवालय के दरवाज़े से लगी निष्प्रभ भाव से खड़ी थी सरु। अपने परिवार से भटकी हुई हिरनी जैसी उसकी आँखें थी, कुछ-कुछ सहमी सी। वो रामा से कुछ कहना चाहती थी, ऐसा रामा को लगा था और सारी ज़िंदगी उसे यही लगता रहा कि सरु कुछ कहना चाहती थी।
स्कूल-कॉलेज-नौकरी-शादी-बीवी-बच्चे........... एक-एक कर जीवन के सभी अनिवार्य पथ-सूचकों को छूते हुए रामावतारजी की जीवन-यात्रा अनवरत आगे बढ़ती रही। पर सूजी का हलवा, कच्चे आम का अचार, कपड़ों को तह करना, आरती का सुरीला आलाप, अंग्रेजी की साईकिल जैसी ही बहुत सारी बातें रूप, रस, गंध, स्पर्श और ध्वनि को अपने में समेटे एक अनोखी सृष्टि का निर्माण कर चुकी थी उस एक महीने में। उस सृष्टि में सिर्फ दो प्राणी थे- रामा और सरु। एक समान्तर किन्तु अगोचर सृष्टि। जब कभी भी रूप, रस, गंध, स्पर्श या ध्वनि की कोई समान आवृत्ति वाली लहर उठ जाती तो इस सृष्टि से उस सृष्टि में आवागमन शुरू हो जाता और तब रामावतार वही रामा बन जाते। 
"सुनो! मुख-हाथ धोकर खाना खालो," रामावतारजी की पत्नी कृष्णा का स्वर गूँजा। रामावतारजी एक झटके से खड़े होते हैं। शाम कहाँ चली गई, पता ही नहीं चला। खिड़की के बाहर पसरा अंधेरा बता रहा था कि शाम गुज़रे काफी समय हो चुका है। वे जल्दी से मुख-हाथ धोकर खाने की टेबल की ओर बढ़े। उनकी पत्नी कृष्णा उनकी और ख़ुद की थाली लगा लाई। "सूजी का हलवा बनाया है, आपको बहुत अच्छा लगता है ना," कहते हुए वो थोड़ा मुसकुराई। रामावतारजी भी मुसकुराते हुए कुछ सोचने लगे और फिर गरम-गरम हलवे से जलती हुई जीभ को बचाने के लिए मुँह कुछ आड़ा-टेढ़ा करने लगे। 

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गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

Love

O dear cascade....! 
I am your river,
Watching you,
Waiting for you.
I have the path,
but have not the momentum,
and the ocean is so far.
How will I go dear?
Come and give me your thrust,
Your inner power.
I want to dance,
I want to flourish.
O dear cascade....!
I am watching you,
Waiting for you.