नीरजा
फिर उठी और उसने बाहर वाले कमरे में झाँका। उसे लगा कि अब तो पाँच बज ही गए होंगे।
पिछली बार जब उसने देखा था तो पच्चीस मिनट कम थे। उसके बाद तो वह कितनी ही देर बीच
वाले कमरे में बैठी रही थी। बाहर से आती हुई ‘घर्रर्रर्रर्रर्र...’ की आवाज़ को सुनती रही। पडौस में किसी का मकान बन रहा था। शायद पत्थरों की
घिसाई की मशीन से आने वाली आवाज़ थी ये। परसों वह खाना बनाने के बाद यूँही ज़रा
दरवाजे तक गई थी। निरुद्देश्य दरवाजा खोल गली में देखने लगी। दाँयी ओर खाली पड़े
प्लॉट में मज़दूर मुँह और नाक पर पट्टी बाँधे पत्थरों की घिसाई कर रहा था। मशीन से ‘घर्रर्रर्रर्रर्र...’ की आवाज़ और चारों ओर पत्थर का
पाउडर बिखर रहा था। नीरजा को वो आवाज़ सम्मोहित-सी करती रही। इंसान चाहे तो पत्थरों
के स्वरूप में भी परिवर्तन करदे। कुछ देर बाद खुद ही झेंपती हुई उस सम्मोहन से
बाहर निकल, दरवाजा बंद कर, अंदर आ गई।
तीन बार उठ कर घड़ी देख चुकी थी। एक खयाल ये भी आया कि घड़ी का सैल तो कमजोर नहीं हो
गया, फिर खुद ही ने उसे खारिज भी किया कि इतनी जल्दी तो नहीं
होता। नीरजा की दिनचर्या इस घड़ी से संचालित होती थी। शादी के बारह साल बाद इस घड़ी
से उसका ऐसा गठबंधन हो जाएगा उसने सोचा नहीं था।
एक
सफल वकील राजीव को पति के रूप में पाकर उसने बहुत खुशी से अपनी गृहस्थी की यात्रा
शुरू की थी। शादी से पहले राजीव जब उसे देखने आए तो उसने बड़े उत्साह से अपनी डायरी
राजीव को दिखाई।
“अरे
वाह! आप कविताएँ लिखती हैं!”
“हाँ, कॉलेज की मैग्ज़ीन में भी छपी हैं।”
“गुड,गुड,गुड...ये तो बहुत अच्छा है। कब लिखती हैं ये आप? ... मेरा मतलब इतना समय मिल जाता है आपको?”
“समय
का क्या है, मिल ही जाता है।”
राजीव
का उसकी कविताओं में इस तरह रुचि दिखाना उसे अच्छा लगा। शादी के बाद अपनी डायरी को
सँभाल कर अपने साथ ले आई थी वो। जब मन करता कुछ लिखती, फिर इंतज़ार करती शाम का। चाय बनाते-बनाते उसके पैर थिरकते रहते, होठ कोई गीत गुनगुनाते रहते। चाय का प्याला राजीव को थमा कर खुद भी अपनी
चाय लेकर बैठ जाती।
“आज
मैंने एक कविता लिखी है, सुनाऊँ?”
मुसकराते हुए वह राजीव से कहती। राजीव लंबी ‘हूँ...’ करते हुए कहता, “गैस आ गई क्या? ...दिन में फोन कर दिया था मैंने।”
“हाँ, आ गई। ...सुनाऊँ कविता?” नीरजा कप नीचे रखते हुए
कहती।
“यार, तो फोन तो करना था कि आ गई... मैं वहाँ परेशान हो रहा था,” राजीव चिढ़ता हुआ-सा कहता। एक लंबी चुप्पी पसर जाती। दिन पर दिन यह
चुप्पी पसरती ही चली गई। चाय के प्यालों से खाने की थाली तक होते हुए घर के
कोने-कोने में फैलती चली गई यही चुप्पी। कामकाज का दबाव और उसके कारण राजीव की
व्यस्तता बढ़ती जा रही थी।
“अब
लाइट ऑफ करके सो जाओ ना, बहुत रात हो गई है,” राजीव करवट बदल कर बड़बड़ाता।
“बस
थोड़ी देर और, फिर सोती हूँ,” नीरजा
अपनी डायरी में डूबी हुई बोलती।
झल्ला
कर राजीव उठ बैठता, “तुम्हारे पास तो दिन भर फालतू समय
बहुत है, लिखती रहना, अब मुझे सोने
दो।” कमरे में अँधेरा... अँधेरा में छटपटाती नीरजा... फालतू समय... फालतू काम! रात
का अँधेरा नीरजा के मन में घुस जाता और तब उसे अचानक लगता कि कुछ फिसल रहा है...
क्या?... ठीक से नहीं दीख रहा पर फिसल ज़रूर रहा है... फालतू
काम! रात, सुबह, दोपहर, शाम जाने कितनी बार उसने यही महसूस किया। धीरे-धीरे जाने कब सब कुछ बदलता
चला गया। फिसलती हुई जिंदगी को जमा कर पकड़े रखने के क्रम में कब वह इस घड़ी से बंध
गई, पता ही नहीं चला। हर काम के लिए घड़ी में एक समय नियत था
और घड़ी के काँटों के हर कोण पर उसकी दिनचर्या सधी हुई थी।
नीरजा
फिर उठी और बाहर वाले कमरे तक आई। “ओहो!
... पाँच-बीस!” घड़ी देखकर
वह बड़बड़ाई। जल्दी से उसने
थैला पकड़ा और सब्जी लेने निकल गई। पाँच बजते ही वह सब्जी लेने जाया करती थी। तेज़
कदमों से गली पार कर वह सड़क पर आई। सड़क के किनारे-किनारे चलते हुए
सोचने लगी कि क्या-क्या लेना है। ... आटे की चक्की...
प्रॉपर्टी डीलर का ऑफिस...
ऑटो रिपेयर सेंटर... सब के बाहर हमेशा
जैसी हलचल थी। इस समय करीब-करीब वही लोग दिखाई पड़ते थे जो
हमेशा दीखते थे। नीरजा इन सबके प्रति उदासीन भाव से चलती जाती थी। शायद नित्य के
एक-से दृश्य ने उसे उन सबके प्रति उदासीन बना दिया था। कुछ ही देर में वह सड़क पार
कर सब्जी भंडार तक पहुँच गई। सब्जी वाला अपने चिर परिचित अंदाज
में मुसकराया। हँसते समय
उसके दोनों गाल ऊपर
की ओर उठ जाते थे। नीरजा को हर बार उसका
मुसकराता चेहरा अपने ड्राइंग रूम में पड़े ‘लाफिंग बुद्धा’ की मूर्ति जैसा जान पड़ता
था। बिना कुछ बोले वह सब्जियाँ छाँटने
लगी। पास में ही एक बुजुर्ग अपना थैला लेकर निकल रहे थे। औपचारिकतावश किसी ने उनसे
पूछा होगा, “और
अंकल, क्या हालचाल हैं?” जवाब में
उन्होंने एक शानदार ठहाका लगाया और बोले-
सुबह धकेली हो गई शाम
चलता है जीवन अविराम
सब्जी तुलवाते हुए नीरजा ने चौंक कर पीछे
देखा। हल्के हरे रंग का लंबा सूती कुर्ता और सफ़ेद पायजामा पहने एक पकी उम्र का
आदमी नज़र आया। वह अब भी अपने चेहरे के साथ-साथ पूरे शरीर को दाएँ-बाएँ झुलाते हुए
बराबर हँसे जा रहे थे। आज से पहले नीरजा ने कभी उन्हें यहाँ नहीं देखा था। एक बार
उसने सोचा कि सब्जी वाले से पूछे उनके बारे में, फिर उसने कुछ सोच कर ऐसा नहीं किया। “ज़रा जल्दी करो
ना भैया, कितने पैसे हुए?” सब्जी वाले
को कहती हुई नीरजा एक बार फिर पीछे मुड़ कर देखने लगी। वो आदमी लंबे-लंबे डग भरता
हुआ दुकान से बाहर जा रहा था। सब्जी का हिसाब करके नीरजा बाहर को लपकी। अचानक
सब्जी वाले ने आवाज़ दी, “मैडम, अपना
थैला तो ले जाइए।” नीरजा को बड़ा अटपटा लगा। वह खिसियाते हुए मुसकराई और सब्जी का
थैला लेकर बाहर निकली। सड़क पार करके एक बार फिर आगे तक देखा। वो बहुत आगे चल रहे
थे। नीरजा ने अपनी चाल तेज़ की पर वो ‘महादेव आटा-चक्की’ के पास वाली गली में मुड़कर गायब हो गए। नीरजा परेशान हो गई। “ऐसे अचानक
कहाँ चले गए वो!... गायब ही हो गए!... पर मुझे उनसे क्या करना था!... बात करनी
थी!... नहीं, कुछ नहीं!...” विचारों में डूबती-तैरती नीरजा
कब घर पहुँच गई, पता ही नहीं चला। सब्जी काटते हुए, खाना बनाते हुए, .... और शायद बर्तन धोते हुए भी
उसने दोहराया था- “सुबह धकेली हो गई शाम, चलता है जीवन
अविराम।” एक-दो बार उसने झटक कर इसे अपने से दूर भी करना चाहा पर फिर थोड़ी देर बाद
इन्हीं पंक्तियों को दोहराने लग गई। रसोई साफ कर नीरजा बाहर वाले कमरे में आई। रात
के नौ-तीस हो गए थे। लगभग इसी समय उसका सारा काम खत्म हो जाता था। राजीव लॉबी में
ही पसरे हुए टीवी चैनलों को घुमाते रहते या कभी अपने कमरे में बैठ फाइलों से उलझ
रहे होते। आधा घंटा नीरजा वहीं लेटी हुई इंतज़ार करती कि राजीव कॉफी माँगे तो वह
बनाकर दे। जैसे ही घड़ी के काँटे रात के दस बजने का संकेत करते नीरजा उठ बैठती और
सोने के कमरे में चल देती; पर आज जाने क्यूँ वह घड़ी के उस
सख्त अनुशासन को तोड़, दस के पहले ही सोने के कमरे में चली
गई। इधर-उधर अलमारियों में कुछ ढूँढने लगी। थोड़ी देर बाद झुँझला कर बैठ गई। “कहाँ
रखदी होगी डायरी...!” अलमारियों की ओर देखते हुए खुद से ही बोली। एक बार फिर उठी
और अलमारी में रखे सामान को इधर-उधर करने लगी। “क्या देख रही हो?” राजीव ने कमरे में घुसते हुए पूछा। “नहीं, कुछ खास
नहीं... ऐसे ही ज़रा...,” नीरजा चौंक कर इस तरह बोली जैसे
उसकी चोरी पकड़ी गई हो। लाइट ऑफ करके वह भी लेट गई। सोने की कोशिश में उसके भीतर
कुछ जागने लगा था। कानों में किसी रहस्यमयी संगीत की तरह वही पंक्तियाँ गूँज रही
थी। नीरजा को लगा कि वह किसी बहुत बड़े आँगन में आ खड़ी हुई है और उन पंक्तियों के
सारे शब्द छोटे-छोटे बच्चों की तरह किलक-किलक कर उसे बुला रहे हैं- “आओ, आओ, पकड़ो हमें।” नीरजा भी चंचलता से उछल कर उनके
पीछे भागने लगी। एक को, दूसरे को,
तीसरे को... सभी को पकड़ने की कोशिश करने लगी। क्या-क्या होता रहा उस रात नीरजा को
ठीक-ठीक कुछ याद नहीं रहा। उसे कई तरह के सतरंगी शब्द अपने पास से गुजरते हुए
महसूस हुए। शायद वह कई बार उठी भी थी और उठ कर कमरे में घूमी भी थी। आज लंबे समय
बाद रात नहीं गुज़री, बल्कि वह खुद रात के पहाड़ पर चढ़कर भोर
की नन्ही-सी किरण तक पहुँच गई थी।
सुबह चाय बनाकर कुछ भागते हुए कदमों से
सोने के कमरे में आकर नीरजा कुछ तलाशने लगी। टेपरिकॉर्डर के पास पड़ी मेडिकल स्लिप
के पीछे लिखी हुई पंक्तियाँ अब उसके हाथ में थी-
सुबह धकेली हो गई शाम
चलता है जीवन अविराम
उत्तर नहीं यहाँ कोई भी
प्रश्न खड़े हैं यहाँ तमाम
रात को जाने कब वह ये लिख गई थी। उसे सब
याद आया कि कैसे उसने लिखने के लिए कुछ तलाशा, कुछ ना मिला तो उपाध्याय जी की बेटी की शादी के कार्ड
के पीछे लिखने की कोशिश की, कागज़ चिकना होने के कारण नहीं
लिखा गया, और तब दिखी ये मेडिकल स्लिप,
और इसी के पीछे उसने कुछ लिख डाला। इस समय इन पंक्तियों को वह इतने ही प्यार से
निहार रही थी जैसे कोई माँ अपने गोदी के बच्चे को ममता से भर कर बार-बार देखती है।
उसे यूँ लग रहा था जैसे मन रुई के फाहे-सा हल्का हो गया हो,
या बरसों गहन मौन तपस्या में रहकर किसी तपस्वी ने जैसे कुछ शब्दों से अपना मौन
तोड़ा हो और उन शब्दों की अद्भुत प्रतिध्वनि जैसे दिशाओं पर कोई पवित्र छिड़काव कर
रही हो। नीरजा को बहुत अच्छा लग रहा था पर साथ ही मन जैसे उलझता जा रहा हो कि “अब?... अब क्या करूँ?”
दिन के सारे काम पानी पर बहते हुए-से
गुजरते जा रहे थे। आज तो पक्का घड़ी खराब हो ही गई, ऐसा उसे लगा, क्योंकि पाँच बज
ही नहीं रहे थे। दिन का काम निबटा कर ज़रा देर बैठी। कुछ देर सोचती रही फिर अचानक
उठ बैठी और अंदर के कमरे में गई। अलमारियों से सारा सामान तसल्ली से उतार कर नीचे
फैलाने लगी। नीचे, बहुत नीचे- दबी हुई मिली उसे अपनी डायरी।
डायरी को पाकर उसे ऐसा लगा जैसे बरसों बाद बचपन की सखियाँ अचानक से आमने-सामने हो
गई हों। एक साँस में सारे पेज पलटती गई। अतीत के ना जाने कितने ही पल डायरी में
टंगे स्याही-बिन्दुओं के सहारे से उभरने लगे। अलमारी को व्यवस्थित कर बाहर वाले
कमरे में आई। “अरे! ये क्या!... पाँच-दस हो गए!” नीरजा बुदबुदाई। इस समय का भी कुछ
पता ही नहीं चलता, कब किसी चंचल हिरनौटे-सा भागने लगता है और
कब कछुए की चाल पकड़ लेता है। वह जल्दी से गली पार कर सब्जी की दुकान को चल पड़ी।
सड़क के दृश्य लगभग रोज़ के-से थे पर फिर भी उसे हवाओं में कुछ नयापन लगा। खुद में
भी वह एक ताजगी का एहसास कर रही थी। कुछ नया था आज उसके पास। सब्जी लेते समय नीरजा
बार-बार सड़क की ओर देख रही थी। चलते-चलते सब्जी वाले से पूछ ही लिया, “ भैया, कल वो अंकल आए थे ना,
लंबे-से, वो कौन हैं, कहाँ रहते हैं?” सब्जी वाले कुछ देर सोचा फिर कहा, “हाँ-हाँ आप शायद मनोहर अंकल का कह रही हैं, वे इधर
ही आटा-चक्की के पीछे की तरफ कहीं रहते हैं।” ‘अच्छा-अच्छा’ कहकर नीरजा बाहर को चली। सड़क पार करके दूसरी ओर आ गई और किनारे-किनारे
चलने लगी। तभी उसकी नज़र पड़ी सामने से आते हुए उन्हीं बुजुर्ग पर। आज भी वो कल की
ही तरह ढीला और लंबा हल्के हरे रंग का कुर्ता और सफ़ेद पायजामा पहने हुए थे। नीरजा वहीं
ठहर गई।
“नमस्ते अंकल,” नीरजा ने झुकते हुए कहा।
“नमस्ते जी... आपको पहचाना नहीं बेटा,” बुजुर्ग कुछ संकोच से बोले।
“हम इधर दो गली छोड़ कर रहते हैं। कल शाम सब्जी
वाले के यहाँ आपकी कविता की वो दो लाइनें सुनी थीं... बहुत अच्छी लगीं,” नीरजा एक साँस में कह गई।
“कविता...? ओह! अच्छा-अच्छा वो...,” कहते हुए
उन्होंने वैसा ही शानदार ठहाका लगाया और देर तक उनका शरीर दाएँ-बाएँ झूलता रहा। नीरजा
को अपने उतावलेपन पर खुद अचरज हो रहा था। “अंकल वो कविता आपने लिखी है?” उसने पूछा। कुछ देर के लिए वो बुजुर्ग एक रहस्यमयी मुसकान के साथ उसे देखते
रहे, फिर बोले, “आप भी कविता लिखती हैं?” उनका यह पूछना एक ओर जहाँ प्रश्न था वहीं दूसरी ओर ये ध्वनि-संकेत भी था कि
इसका उत्तर ‘हाँ’ है।
“नहीं-नहीं... मैं... हाँ, ऐसे ही कभी-कभी...,” नीरजा अचकचाते हुए बोली।
“नहीं भी और हाँ भी! तब तो आप पक्का कविता लिखती
ही हैं,” कहकर बुजुर्ग ने फिर वैसा ही ठहाका लगाया।
नीरजा को अब खुद अपनी हालत पर तरस आने लगा
था। जब मन के पर्दे उठने लगते हैं तो भीतर छुपे दृश्य सामने वाले को दिखाई देने लगते
हैं और बड़े यत्न से ढक के रखे गए अंतस-चित्रों का यूँ अचानक से किसी के सामने बेनकाब
हो जाना घबराहट और भय पैदा कर ही देते हैं। नीरजा ने प्रयत्नपूर्वक मुसकरा कर कहा, “अंकल, मैंने उसी कविता को कुछ आगे बढ़ाया है।”
“अरे वाह! सुनाओ तो,” कहते हुए वृद्ध की आँखों
में बालक-सी जिज्ञासा उभर आई। नीरजा ने एक नज़र चारों ओर देखा फिर सुनाया-
सुबह धकेली हो गई शाम
चलता है जीवन अविराम
उत्तर नहीं यहाँ कोई भी
प्रश्न खड़े हैं यहाँ तमाम
उन बुजुर्ग ने तुरंत नीरजा के सर पर हाथ रख
दिया, “सच में बेटा, आप तो बहुत अच्छा लिखती हैं।” नीरजा ने सब्जी का थैला एक हाथ से दूसरे हाथ
में लेते हुए कहा, “बहुत पहले लिखा करती थी, ये तो आज वर्षों बाद लिखा है अंकल। शादी से पहले मम्मी-पापा को ये सब अच्छा
लगता था, फ्रेंड-सर्किल भी वैसा ही था... पर अब यहाँ वैसा माहौल
ही नहीं है,” कहकर नीरजा थोड़ा झिझकी और एक पल के लिए उसके मन
में आया कि कहीं उसने कुछ गलत तो नहीं कह दिया।
बुजुर्ग ने किसी तरह अपनी हँसी रोकते हुए कहा, “मतलब आप कविता की धक्कामार
गाड़ी हो।” नीरजा की आँखों में प्रश्नवाचक चिह्न चमका तो बुजुर्ग आगे बोले, “कोई सुने तो लिखूँ, कोई पढे तो लिखूँ, कोई तारीफ करे तो लिखूँ... ये कविता की धक्कामार गाड़ी ना हुई तो और क्या हुई?” नीरजा सुन्न खड़ी रही। सच्चाई इस तरह खुलकर उससे सवाल-जवाब करने लगेगी, उसे अनुमान ना था। “पर फिर भी यह बहुत बड़ी बात है कि आप आज भी लिख लेती हैं।
एक बार जड़ता हावी हो गई तो उसी तरह रहने की आदत हो जाएगी बेटा, और फिर सबके बीच ऐसी अकेली हो जाओगी कि जीवन भार लगने लगेगा,” कहते हुए वे एकदम गंभीर हो गए। दूर कहीं देखते हुए-से वे फिर बोले, “एक दिन मैं भी वहीं खड़ा था, जहाँ आज आप हो बेटा, तब मुझे किसी ने सचेत किया था एक कविता सुनाकर”-
जब तक रहती चेतनता
तब तक रहती अहिल्या।
ज्यों-ज्यों चेतनता खोती
त्यों-त्यों जड़ता छाती जाती
बन जाती सिला किसी एक दिन।
तब शुरू होती प्रतीक्षा
एक लंबी, बहुत लंबी- प्रतीक्षा
किसी के पावन स्पर्श की।
बुजुर्ग शाम के बढ़ते धुँधलके में किसी खोए हुए पल के साक्षी बने हुए थे।
नीरजा कविता के हर कंपन को अपने भीतर महसूस कर रही थी। उसकी चेतनता करवट ले रही थी।
“आज आपको इसकी बहुत ज़रूरत है। आपको ये कविता सुनाकर मैं जैसे उऋण हो गया। “अच्छा बेटा
अब मैं चलता हूँ,” उन्होंने शांत भाव से नीरजा के सर पर फिर एक बार हाथ रखते हुए कहा। लंबे-लंबे
डग भरते हुए वे फिर सड़क पर आगे को बढ़ गए। नीरजा का हृदय गद्गद था। ‘नमस्ते अंकल’ कहकर नीरजा मुसकराई और घर की ओर बढ़ने लगी।
दूर किसी गली में बजते हुए बैंड की आवाज़ सुनाई दे रही थी। सड़क के उस पार चार-पाँच दुकानों
पर रंग-बिरंगी लाइटों की सजावट की हुई थी। रंगीन रोशनी बिखेरते नन्हे-मुन्ने बल्ब देखकर
उसे एक पुराने गाने की धुन याद आई। बहुत कोशिश करने पर भी उसे गाने के बोल याद नहीं
आए, किन्तु फिर भी नीरजा बड़ी मस्ती में गाने की धुन ही गुनगुनाती
हुई आगे को बढ़ गई।
सुबह धकेली हो गई शाम
जवाब देंहटाएंचलता है जीवन अविराम
अज्ञेय जी सदैव शब्दों की नीरवता मेँ कविता की तालाश करते। जीवन के बंधे बँधाए शेडूल में जब नीरवता अपनी जड़ें जमा चुकी हो तब फ़ितरत में रची बसी तख़लीक़ बाहर आने को व्याकुल होती है ऐसे में अवचेतन मन अपना समविचारक तलाश करता है और तब उसके अंदर छुपा व्याकुल परिंदा अपने परों को खोलकर उड़ान भर ही लेता है। ये कहानी इंसानी दिमाग़ के चेतन अवचेतन और अचेतन मन को आंदोलित करती है. रात भर जागे रहने की फितरत इंसोम्निया मर्ज़ की ओर भी इशारा करती है।
मज़ाहिर सुल्तान ज़ई
बहुत सुंदर विश्लेषण किया है सर आपने। हार्दिक आभार।
हटाएंउम्दा रचना
जवाब देंहटाएंपूरी कहानी एक रौ में चलती है। अच्छे बिम्ब भी बने हैं पर मूल रूप से जो कविता है जिस के इर्द गिर्द कहानी चलती है वो कमजोर या फिर यूँ कहूँ तो प्रभावी नही दिखी। इसलिए एन्ड अच्छा नही दिखा।
जवाब देंहटाएंपर भीतर से थोड़ी भी संवेदना बची रहे उसका स्पर्श भिगाता तो है ही...शेष मिलने पर
बहुत आभार इस मूल्यवान टिप्पणी के लिए। अवश्य मिलना चाहूँगा।
हटाएं