यह कहानी है बाजा बाबू की। बाजा बाबू...उर्फ रंगलाल। रंगलाल कस्बे के इकलौते बैंडमास्टर प्रभुलाल का बेटा था। उस जमाने में शादियों में बैंड पार्टी को बुलाना बड़े रौब की बात मानी जाती थी, और फिर प्रभुलाल की बैंड पार्टी तो दूर-दूर तक मशहूर थी। बारात जब बैंड बाजे के साथ सज-धज कर निकलती तो गली-मोहल्लों में घरों से निकल कर औरतें-बच्चे-बूढ़े कौतूहल भरी नजर से बारात को देखते और बैंड बाजे की मधुर ध्वनि का आनंद लेते।
उन दिनों रंगलाल कस्बे की सरकारी स्कूल में ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता था। रोज शाम को उसके पिता अपनी बैंड पार्टी के साथ नए-नए गानों को बजाने का अभ्यास करते थे। अपने अभ्यास में वो अक्सर रंगलाल को भी शामिल करते थे। उनका मानना था कि बड़ा होकर उसे ही तो उनकी बैंड पार्टी को सँभालना है। रंगलाल को भी बाजा बजाने में बड़ा मजा आता था। गाने के सुर पीतल के बाजे से निकल कर उस पर सम्मोहन-सा करने लगते थे-
उन दिनों रंगलाल कस्बे की सरकारी स्कूल में ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता था। रोज शाम को उसके पिता अपनी बैंड पार्टी के साथ नए-नए गानों को बजाने का अभ्यास करते थे। अपने अभ्यास में वो अक्सर रंगलाल को भी शामिल करते थे। उनका मानना था कि बड़ा होकर उसे ही तो उनकी बैंड पार्टी को सँभालना है। रंगलाल को भी बाजा बजाने में बड़ा मजा आता था। गाने के सुर पीतल के बाजे से निकल कर उस पर सम्मोहन-सा करने लगते थे-
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
आज मेरे यार की शादी है
लगता है जैसे सारे संसार की शादी है
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
आज मेरे यार की शादी है
लगता है जैसे सारे संसार की शादी है
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
बजाते-बजाते रंगलाल की आँखें मुँद जाती और उसके पैर थिरकने लगते। प्रभुलाल इस बात पर अक्सर उसे डाँठते थे-
"बैंडमास्टर का काम गीत बजाने का है। इतना सुरीला बजाओ कि लोग झूमने लगें, नाचने लगें। ये नहीं कि खुद ही नाचने लगो।"
रंगलाल खिसियाकर हँसने लगता।
रंगलाल की कक्षा में ही कस्बे के माने हुए वकील धनपतराज जी की बेटी ललिता भी पढ़ती थी। रंगलाल उसे देखकर सोचता, "यह कितनी गोरी गट्ट है... ऐसा लगता है जैसे किसी ने धीरे-से प्लेट में एक रुपए वाली माखणिया आइसक्रीम सरका दी हो... हाथ से छुआ नहीं कि पिघली... बोलती कितना धीरे है...पास वाले को भी न सुनाई दे...।" कक्षा में रंगलाल का सारा ध्यान ललिता पर ही लगा रहता। स्कूल में कुछ ही बच्चे साइकिल लाते थे। ये सम्पन्न घरों के या नौकरीपेशा परिवार वालों के बच्चे होते थे। ललिता भी साइकिल से ही स्कूल आती थी। एक रोज़ छुट्टी होने पर ललिता ने जैसे ही साइकिल उठाई तो देखा पिछला पहिया एकदम नीचे बैठा हुआ था। साइकिल की यह हालत देख ललिता परेशान हो गई। कुछ लड़के-लड़कियों ने देखा भी, दो पल रुके भी, पर फिर धीरे-धीरे सब सरक लिए। ललिता के पड़ौस में रहने वाले ठेकेदार साहब का लड़का भँवर साइकिल से गुज़रा तो रुक गया। भँवर रंगलाल का पक्का दोस्त था। वह रोज़ उसे साइकिल पर बैठा कर अपने साथ लाता-ले जाता था। भँवर ने पूछा, “क्या हुआ ललिता, खड़ी कैसे है?” “... साइकिल,” बस इतना ही बोल पाई वह और उसका गला भर आया। रंगलाल ने आगे बढ़कर कहा, “ला अपनी साइकिल मुझे दे, मैं पंक्चर ठीक करवाके ले आऊँगा। तू भँवर के साथ चली जा।” ललिता भँवर की साइकिल पर बैठ कर चली गई। जाते-जाते उसने पीछे मुड़कर रंगलाल को और फिर अपनी साइकिल को देखा। पैदल-पैदल पंक्चर साइकिल को घसीटते हुए रंगलाल स्कूल से बाज़ार आया। रफीक चाचा की दुकान से पंक्चर बनवा कर वह ललिता के घर पहुँचा। पूरे दो घंटे धूप में चलते हुए उसका गला सूख गया था। ललिता का घर इतना बड़ा था कि उसे अंदाज ही नहीं आया कि वह कहाँ से उसे पुकारे। तभी एक नौकर ने उसे इधर-उधर झाँकते हुए देखा तो पूछा, “किस से काम है, यहाँ क्या कर रहा है?” नौकर ने थोड़ा डाँठते हुए पूछा था इसलिए कुछ पल को तो वह झिझका फिर बोला, “ललिता की साइकिल पंक्चर हो गई थी, ठीक करवाके लाया हूँ।” तभी अंदर का पर्दा हिला और ललिता बाहर आई। “हाँ-हाँ मेरी ही साइकिल है, अंदर रख दो इसे,” ललिता ने नौकर से कहा। नौकर साइकिल रखने लगा। रंगलाल ने मुस्करा के ललिता से कहा, “तू तो ऐसे ही परेशान हो गई थी, देखा! ठीक करवादी ना मैंने!” ललिता कुछ न बोली, सिर्फ थोड़ा-सा हँसी। सफ़ेद झक्क मोती बिखर गए। रंगलाल सोचने लगा कि हँसने से इसके गाल लाल हो गए या पहले से लाल ही थे। कब घर पहुँचा, पता नहीं। शाम को प्रभुलाल ने अपनी बैंड-पार्टी के साथ एक नए गाने का अभ्यास किया-
"बैंडमास्टर का काम गीत बजाने का है। इतना सुरीला बजाओ कि लोग झूमने लगें, नाचने लगें। ये नहीं कि खुद ही नाचने लगो।"
रंगलाल खिसियाकर हँसने लगता।
रंगलाल की कक्षा में ही कस्बे के माने हुए वकील धनपतराज जी की बेटी ललिता भी पढ़ती थी। रंगलाल उसे देखकर सोचता, "यह कितनी गोरी गट्ट है... ऐसा लगता है जैसे किसी ने धीरे-से प्लेट में एक रुपए वाली माखणिया आइसक्रीम सरका दी हो... हाथ से छुआ नहीं कि पिघली... बोलती कितना धीरे है...पास वाले को भी न सुनाई दे...।" कक्षा में रंगलाल का सारा ध्यान ललिता पर ही लगा रहता। स्कूल में कुछ ही बच्चे साइकिल लाते थे। ये सम्पन्न घरों के या नौकरीपेशा परिवार वालों के बच्चे होते थे। ललिता भी साइकिल से ही स्कूल आती थी। एक रोज़ छुट्टी होने पर ललिता ने जैसे ही साइकिल उठाई तो देखा पिछला पहिया एकदम नीचे बैठा हुआ था। साइकिल की यह हालत देख ललिता परेशान हो गई। कुछ लड़के-लड़कियों ने देखा भी, दो पल रुके भी, पर फिर धीरे-धीरे सब सरक लिए। ललिता के पड़ौस में रहने वाले ठेकेदार साहब का लड़का भँवर साइकिल से गुज़रा तो रुक गया। भँवर रंगलाल का पक्का दोस्त था। वह रोज़ उसे साइकिल पर बैठा कर अपने साथ लाता-ले जाता था। भँवर ने पूछा, “क्या हुआ ललिता, खड़ी कैसे है?” “... साइकिल,” बस इतना ही बोल पाई वह और उसका गला भर आया। रंगलाल ने आगे बढ़कर कहा, “ला अपनी साइकिल मुझे दे, मैं पंक्चर ठीक करवाके ले आऊँगा। तू भँवर के साथ चली जा।” ललिता भँवर की साइकिल पर बैठ कर चली गई। जाते-जाते उसने पीछे मुड़कर रंगलाल को और फिर अपनी साइकिल को देखा। पैदल-पैदल पंक्चर साइकिल को घसीटते हुए रंगलाल स्कूल से बाज़ार आया। रफीक चाचा की दुकान से पंक्चर बनवा कर वह ललिता के घर पहुँचा। पूरे दो घंटे धूप में चलते हुए उसका गला सूख गया था। ललिता का घर इतना बड़ा था कि उसे अंदाज ही नहीं आया कि वह कहाँ से उसे पुकारे। तभी एक नौकर ने उसे इधर-उधर झाँकते हुए देखा तो पूछा, “किस से काम है, यहाँ क्या कर रहा है?” नौकर ने थोड़ा डाँठते हुए पूछा था इसलिए कुछ पल को तो वह झिझका फिर बोला, “ललिता की साइकिल पंक्चर हो गई थी, ठीक करवाके लाया हूँ।” तभी अंदर का पर्दा हिला और ललिता बाहर आई। “हाँ-हाँ मेरी ही साइकिल है, अंदर रख दो इसे,” ललिता ने नौकर से कहा। नौकर साइकिल रखने लगा। रंगलाल ने मुस्करा के ललिता से कहा, “तू तो ऐसे ही परेशान हो गई थी, देखा! ठीक करवादी ना मैंने!” ललिता कुछ न बोली, सिर्फ थोड़ा-सा हँसी। सफ़ेद झक्क मोती बिखर गए। रंगलाल सोचने लगा कि हँसने से इसके गाल लाल हो गए या पहले से लाल ही थे। कब घर पहुँचा, पता नहीं। शाम को प्रभुलाल ने अपनी बैंड-पार्टी के साथ एक नए गाने का अभ्यास किया-
ओ फिरकी वाली,
तू कल फिर आना
नहीं फिर जाना,
तू अपनी ज़ुबान से
ओ तेरे नैना हैं ज़रा
बेईमान से...
रंगलाल भी सुर पकड़ने
लगा।
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
ओ तेरे नैना हैं ज़रा
बेईमान से...
इस बार रंगलाल को दूसरे
बाजों की घनघनाहट की जगह सफ़ेद झक्क मोतियों के बिखरने की झंकार सुनाई दी और फिर
उसके पैर थिरकने लगे-
ओ तेरे नैना हैं ज़रा
बेईमान से...
“क्या कर रहा है?... सही
सुर लगा ना... कितनी बार कहा है नाचने की जगह बजाने पर ध्यान दे,”
प्रभुलाल ने बेसुरे होते रंगलाल को डाँठा। रंगलाल का मन उचट गया। बाजा रखकर वह माँ
के पास चला गया। माँ तवे से रोटियाँ उतार रही थी। फूली-फूली रोटियाँ... फूले-फूले
गालों जैसी...पर रोटियाँ उन गालों-सी लाल नहीं हैं... रंगलाल जाने क्या-क्या सोच
रहा था। इस सुर को वह पकड़ नहीं पा रहा था। खाना खाकर भँवर के यहाँ चल दिया।
“कल से गणित पढ़ाने मास्टर
जी घर पर आएंगे। ललिता भी पढ़ने आएगी,” भँवर ने बताया। रंगलाल
भँवर से गिड़गिड़ाते हुए बोला, “यार मुझे भी बैठा ले
ना साथ में।” “नहीं-नहीं, मास्टर जी नाराज़ हो
जाएंगे,
पापा से कह देंगे,”
भँवर बोला। रंगलाल क्या कहता। गुमसुम हो गया। अचानक भँवर ने रंगलाल के दोनों कंधों
पर हाथ रखकर कहा,
“मुझे सब पता है,
तू ललिता से दोस्ती करना चाहता है ना, इसीलिए आना चाहता है ना… बोल...
सच है ना?”
रंगलाल को झटके से हुए इस आक्रमण का अंदाजा न था। उसके टूटे-फूटे जवाब और चेहरे से
उड़ते हुए भाव सब कुछ साफ-साफ कह गए। भँवर ने रास्ता निकाला,
“मास्टर जी सीधे स्कूल से मेरे घर पर आएंगे। एक घंटा पढ़ाएंगे। उनके निकलते ही तू आ
जाना। मैं ललिता को सवाल करने के लिए रोके रखूंगा। रंगलाल को विश्वास नहीं हो रहा
था कि बात इतनी आसानी से बन जाएगी। आज उसे अपने दोस्त पर गर्व हुआ। दूसरे दिन
स्कूल में उसे लगा कि सारे पीरियड इतने लंबे कैसे हो रहे हैं! छुट्टी क्यों नहीं
हो रही है! छुट्टी होते ही रंगलाल भँवर के साथ घर को निकला। घर जाकर बस्ता पटका और
खूब छपाछप पानी से मुँह धोया। बार-बार काँच में देखा,
बाल ठीक किए। चप्पल डाले और ये जा वो जा। सीधे भँवर कि गली के नुक्कड़ पर गणेश
मंदिर की सीढ़ियों पर जा बैठा। भँवर के घर के बाहर मास्टर जी की साइकिल दिख रही थी।
साइकिल पर लगी नीले रंग की टोकरी दूर से ही पहचान में आ रही थी। समय बिताने के लिए
कई गाने गुनगुनाए... या शायद एक ही गीत कई बार गुनगुनाया... ओ तेरे नैना हैं ज़रा
बेईमान से। तभी मास्टर जी को साइकिल उठाते देखा। लपक कर पहुँच गया। मास्टर जी को
नमस्ते कर सीधा ऊपर वाले कमरे में। उसको देखते ही भँवर थोड़ा-सा मुस्कराया फिर
बोला, “अरे रंगलाल, आजा-आजा।” ललिता ने हल्के से सर उठाया और बोली, “मैं जाऊँ?”
“नहीं-नहीं तू बैठ, मैं पानी लेकर आता हूँ,” कहते हुए भँवर कमरे से निकल कर नीचे
चला गया। कमरे में ललिता और रंगलाल अकेले। ललिता का मुँह नीचे किताब में गड़ा हुआ,
जाने क्या ढूँढ रही थी उसमें। रंगलाल एकटक उसे देख रहा। रंगलाल को बदन में जैसे
पानी उबलता हुआ-सा महसूस हो रहा था। कनपटियों पर मानो चींटियाँ रैंग रही हों। मन
किया कि कस के भींच ले ललिता को। उसकी साँसे तेज़ होने लगी। सारे अंग बर्फ में जम
कर जैसे अकड़ गए हों। तभी भँवर कमरे में आया। भँवर के हाथ से पानी का जग लेकर
रंगलाल खूब सारा पानी एक साँस में पी गया। ललिता ने कॉपी किताब उठाए और चलने को
हुई। “कल जल्दी आ जाना, सारे सवाल कर लेंगे,” भँवर ने कहा। ललिता ने गर्दन हिलाई
और रवाना हो गई। जाते-जाते उसने रंगलाल को देखा और थोड़ा-सा मुस्कराई। उसके जाते ही दोनों दोस्त किताबें एक तरफ फैंक
कर बिस्तर पर लुढ़क गए। भँवर ने रंगलाल की आँखों में झाँकते हुए पूछा, “बता क्या
किया?... क्या कहा उससे?... बोल ना।” भँवर को मस्ती सूझ रही थी। रंगलाल ने जब
बताया कि उसने तो बात ही नहीं की तो भँवर झल्ला उठा, “चल साले, तेरे लिए इतनी
मेहनत की और तूने सब बेकार कर दिया।” और फिर यही रोज़ का क्रम बन गया। रंगलाल और
ललिता इसी तरह मिलने लगे। उनकी बातों में ज़्यादा तो रंगलाल ही बोलता था, पर ललिता
भी अब बात करने लगी थी उससे। धीरे-धीरे उनकी दोस्ती बढ़ने लगी।
शीतला-सप्तमी पर
सात दिनों का मेला लगता था। मेले में खूब सारे झूले, दुकानें, बड़ी चहल-पहल रहती
थी।
“ललिता! मेले चलें!...
खूब मज़ा आएगा... झूले खाएँगे... घूमेंगे,” रंगलाल ने पूछा।
“मम्मी भेजेगी नहीं, और
फिर वहाँ सारे लड़के देखेंगे... मैं नहीं आऊँगी।”
“दोस्त है ना मेरी, मेरी
बात नहीं मानेगी!... तुझे मेरी कसम है।” थोड़ी देर चुप्पी छा गई। रंगलाल मुँह लटकाए
बैठा था।
“ठीक है, मैं आ जाऊँगी,”
रंगलाल का उतरा मुँह देखकर ललिता बोली, “पर मैं झूले नहीं खाऊँगी।”
“सच्ची, पक्का आएगी?...”
रंगलाल चहक कर बोला। तय हो गया कि रविवार को सुबह ग्यारह बजे ललिता मेला मैदान के
बाहर वाली प्याऊ के पास पहुँच जाएगी। वहाँ से उसके साथ एक चक्कर मेले का लगा कर वह
घर लौट आएगी। रंगलाल ने अतिरेक खुशी में उसके दोनों हाथ पकड़ लिए। हाथ छुड़ाते हुए
ललिता बोली, “अच्छा, अब मैं चलती हूँ, बहुत देर हो गई।” रविवार को आने में जैसे
बरसों लग गए। बहुत लंबा इंतज़ार। उस रोज़ सुबह-सुबह नहा-धोकर रंगलाल मेले की ओर
भागा। पैरों में जैसे पंख लग गए हों। मेला मैदान के बाहर वाली प्याऊ पर आकर साँस
ली। कई बार, कई लोगों से टाइम पूछा। साढ़े दस... पौने ग्यारह... ग्यारह...। रंगलाल
थोड़ा पीछे को चलता हुआ देखने लगा कि ललिता कहाँ तक पहुँची होगी। फिर प्याऊ तक
लौटा। कभी बैठा, कभी उठा। फिर सोचा कहीं आकर निकल तो नहीं गई!... मेले में जाकर
देखना चाहिए। हालाँकि मन मानने को तैयार नहीं था पर फिर भी वह मेले में आगे तक गया
और देखकर आया। इस बीच उसकी स्कूल के कई लड़के भी निकले।
“रंगलाल! आजा मेले में
चलते हैं।”
“नहीं-नहीं, तुम लोग
चलो, मैं थोड़ी देर में आता हूँ।”
थोड़ी देर... और देर...
बहुत देर! रंगलाल रूँआसा हो उठा। लगा कि गले में कुछ दब-सा रहा है। भारी कदमों से
रंगलाल घर की ओर घिसटने लगा। दिन भर ऊपर वाली कोठरी में औंधा मुँह किए पड़ा रहा।
शाम को मन लगाने के लिए वह अपने पिता की बैंड-पार्टी के साथ बाजा बजाने का अभ्यास
करने गया। प्रभुलाल ने सबको नए गाने का अंतरा गाकर सुनाया-
पहले भी तूने इक रोज़ ये
कहा था,
आऊँगी तू ना आई
वादा किया था सैयां बन
के बदरिया,
छाऊंगी तू ना छाई
मेरे प्यासे नैना तरसे,
तू निकली ना घर से
कैसे बीती वो रात सुहानी,
तू सुनले कहानी,
ज़मीं आसमान से
ओ तेरे नैना हैं ज़रा
बेईमान से
बैंड-पार्टी के सब लोग
लड़खड़ाते हुए सुर पकड़ने लगे। रंगलाल भी बाजे में साँसे उँड़ेल रहा था।
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
पहले भी तूने इक रोज़ ये
कहा था
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
आऊँगी तू ना आई
रंगलाल की हिचकियाँ
बंधने लगीं। आँखों से पानी छलकने लगा। लगा कि वह मेला मैदान के बाहर वाली प्याऊ के
ऊपर बीचों-बीच खड़ा ज़ोर-ज़ोर से बाजा बजा रहा है।
मेरे प्यासे नैना तरसे,
तू निकली ना घर से
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
वह अपनी सारी ताकत लगाकर
अपने फेफड़ों को फुलाता और बाजे को हवा से भर देता। उसकी साँस चुकती जा रही थी और बाजा
बेसुरा होता जा रहा था। “कैसे बजा रहा है!... आराम से सुर को समझते हुए बजा,”
प्रभुलाल अपने बेटे पर चिल्लाया। एक झटके से रंगलाल जैसे प्याऊ से नीचे गिर पड़ा।
ललिता ऐसा ही करती थी। भँवर के घर पर खूब बातें कर लेती थी पर पर कहीं और मिलने के
लिए नहीं आती। पूछो तो सौ बातें! “मम्मी ने आने नहीं दिया... घर पर मामाजी आ गए
थे... स्कूल का काम बाकी था... क्या बोल कर घर से निकलूँ... ।” रंगलाल हर बार
सोचता कि अब के तो गुस्से से फटकार ही देगा उसको, पर जैसे ही वह
सामने आती उसका गुस्सा गायब हो जाता और वह उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में खो जाता। इधर एक
बात और होने लगी थी कि रंगलाल जब-तब ललिता को छूने की कोशिश करने लगा था। कभी हाथ
पर हाथ रख देना,
कभी उसकी ठोड़ी पर हाथ रख कहना कि इधर तो देख, कभी चिपक कर पास
बैठना... ऐसा ही बहुत कुछ। ललिता को छूते ही रंगलाल को ऐसा लगता जैसे रुई का
बड़ा-सा फाया छू गया हो... रोम-रोम में बिजली दौड़ गई हो। एक ऐसा नशा जो सिर्फ
खींचता था,
समझ में नहीं आता था। ललिता को यह सब कुछ एकदम नया-सा और कुछ अजीब-सा भी लगता था।
कभी-कभी वह झटके से खुद को रंगलाल से दूर कर लेती, पर कभी-कभी उसे
यह अच्छा भी लगता था। रात को सोते समय जब वो छूना उसे याद आता तो उसकी छाती में
धकधक होने लगती थी और वह तकिये को कस कर भींच आँखें बंद कर पड़ जाती। पल-पल,
दिन-दिन दोनों एक अंजान सफर की ओर बढ़ रहे थे। सब कुछ होते हुए भी जैसे ललिता इस
रिश्ते का भविष्य जानती थी। इसीलिए बीच-बीच में वह रंगलाल से दूरी बना लेती थी। पर
रंगलाल की दीवानगी तो समंदर की तरह ठाठें मारती थी। जब ललिता कई-कई दिनों तक भँवर
के यहाँ नहीं आती तो रंगलाल भँवर से मिन्नतें करके उसे ललिता के घर भेजता और उसे
बुला कर लाने के लिए कहता, और फिर...! और फिर वही
सब शुरू हो जाता।
इधर एक रोज़ प्रभुलाल ने
घर में घुसते ही रंगलाल को बुलाया। “आज से तू भी चलेगा हमारे साथ शादी में बैंड
बजाने के लिए,”
कहते हुए उन्होने दो थैलियाँ रंगलाल को पकड़ाईं जिनमें उसके नाप की बैंड-मास्टर
वाली ड्रैस थी। लाल वैलवेट का कोट और पैंट, जिनके किनारे पर
सफ़ेद चमकीली गोट लगी हुई थी। वैसे ही रंग की तनी हुई कैप,
पीतल का चमचमाता बैल्ट और काले जूते-सफ़ेद जुराब। गोटावत सेठ के बेटे की शादी थी।
प्रभुलाल ने अपने बेटे को बैंड-पार्टी में अपने पास ही खड़ा कर रखा था। बारात कस्बे
के बाज़ार से होते हुए बारातघर तक पहुँची। विशाल पंडाल सजा हुआ था। बारातघर के बाहर
प्रभुलाल ने एक के बाद एक कई गाने बजाए। बाराती नाचने में मग्न थे। आखिर में बजा
वो गाना- “ओ फिरकी वाली तू कल फिर आना...।” बजाते-बजाते रंगलाल उन्हीं ‘बेईमान
नैनों’
में डूब गया।
ओ तेरे नैना हैं ज़रा
बेईमान से
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
और फिर वही हुआ। उसके पैर थिरकने
लगे। प्रभुलाल को गुस्सा आया। पर वहाँ तो इसे सब लोग एक अजूबे की तरह देखने लगे।
और देखते ही देखते नोटों की बरसात शुरू हो गई। घराती-बाराती सब झूम उठे। कुछ
बारातियों ने जोश में आकर रंगलाल को बीचों-बीच खड़ा कर दिया। अब बीच में रंगलाल
अपनी मस्ती में थिरक रहा था और उसके चारों ओर बाराती। गाना खत्म हुआ।
ढम ढमा ढम
ढम ऽऽऽ
बैंड-पार्टी के ड्रम ने ‘सम’ पर आकर गाने को विराम दिया। गोटावत सेठ ने
रंगलाल को इशारे से अपने पास बुलाया, “ओ बाजा बाबू! ज़रा यहाँ
आना।” सेठजी ने बीस रूपए का नोट रंगलाल को दिया और खूब शाबासी दी। सेठजी का ऐसा
करना था कि चारों ओर से आवाज़ें लगना शुरू हो गईं, “अरे सुनो
बाजा बाबू, ये लो अपना ईनाम।” नोटों की बरसात से प्रभुलाल की
नाराजगी हवा हो गई। कई लोगों ने प्रभुलाल से भी कहा, “वाह
बैंड-मास्टर जी, आपका बाजा बाबू तो कमाल का है।” प्रभुलाल
अपने बेटे की पहली व्यावसायिक सफलता पर फूला नहीं समा रहा था। यहीं से रंगलाल को
एक नया नाम मिला- बाजा बाबू। बैंड बुक करवाने वाले लोगों में से कई लोग तो कह भी
देते थे, “बाजा बाबू को ज़रूर लाना।” रंगलाल को बहुत खुशी
होती जब उसे लोग बाजा बाबू कहकर पुकारते। हर बारात में वह एक-दो गाने जमकर बजाता
और जब उसे मस्ती चढ़ती तो उसके पैरों का थिरकना शुरू हो जाता और लोगबाग रूपए लुटाने
लगते। रंगलाल शादियों में सजे हुए दूल्हा-दुल्हन को बड़े चाव से देखता था। सजी हुई
दुल्हन उसे हमेशा बहुत सुंदर लगती। वह सोचता, “ललिता भी किसी
दिन दुल्हन बनेगी... ऐसे ही सजेगी... कितनी खूबसूरत लगेगी... वह खूब मस्त बाजा
बजाएगा... पर क्यों?... क्या वह ललिता का दूल्हा नहीं
बनेगा...?” ऐसी ही ऊटपटाँग बातें उसके मन में चलती रहती थीं।
‘बाजा बाबू’ की विशेष माँग और उससे
बढ़ने वाली आमदनी को ध्यान में रखते हुए प्रभुलाल अपने बेटे को हर शादी-प्रोग्राम
में ले जाने लगा।
स्कूल में परीक्षाएँ शुरू हो गई थीं।
अब रंगलाल का ललिता से मिलना भी कम हो पाता था। एक बार बाज़ार से निकलते हुए उसने
उसे ‘नाहटा क्लोथ स्टोर’ में देखा
था। साथ में बैठी औरत उसकी माँ होगी, उसने अंदाज़ा लगाया था।
ललिता की नज़र जैसे ही उस पर पड़ी एक पल के लिए वह मुस्कराई,
फिर उसने खुद को संयत कर लिया और नज़र फेर ली। परीक्षा खत्म हुई, छुट्टियाँ लग गईं। एक दिन अचानक भँवर ने बताया कि ललिता तो पूना चली गई
है, अपने मामा के यहाँ। रंगलाल क्या कहता। उदास हुआ। सोचा, “मिल के भी नहीं गई... भँवर ने भी पहले नहीं बताया... अब जाने कब
आएगी...!” सामने पड़ी येऽ... लंबी गर्मी की छुट्टियाँ! दिन को जब धूप सड़कों का
डामर पिघलाने लगती और गरम लू की लपटें भाँय- भाँय करती किसी चुड़ैल-सी डोलती रहती
थी, ऐसे में भी रंगलाल भँवर के घर इसी आस में पहुँच जाता कि शायद आज ललिता के
आने की खबर मिलेगी। लेकिन हर बार निराशा भरी खबर बंद कमरे में पंखे के नीचे भी
अंदर से उसे इतना जला डालती जितना बाहर चल रही लू की लपटें उसके शरीर को न जला
पातीं। ऐसे में एक उसका बाजा ही था जो उसे ललिता के करीब होने का एहसास करवाता था।
यह सब तो रंगलाल जैसे-तैसे झेल जाता
पर इधर हुई एक घटना ने उसे भीतर तक तोड़ दिया। एक दिन भरी दोपहर में उसके पिता बाहर
से आए तो उनका चेहरा लाल तमतमा रहा था। खाना खाने बैठे और दो कौर ही लिए थे कि
जोरदार उल्टी आई। रंगलाल और उसकी माँ तो बुरी तरह घबरा गए क्योंकि उल्टी पूरी खून
से सनी हुई थी। चक्कर खाकर प्रभुलाल वहीं गिर पड़ा और बेहोश हो गया। अस्पताल में
डॉक्टर ने बताया कि शराब ने उसके शरीर के अंदर घाव कर दिये हैं। कस्बे के छोटे-से
अस्पताल में शायद प्रभुलाल को बचा पाने की क्षमता नहीं थी। तीसरे दिन सुबह-सुबह
हुई खूनी उल्टी ने प्रभुलाल के जीवन-संगीत पर विराम लगा दिया। रंगलाल पर दुखों का
पहाड़ टूट पड़ा। जिस दिन भँवर उससे मिलने आया तो उसके गले लगकर वह खूब रोया। दुख
जीवन-रूपी रंगमंच पर अचानक से सारे पर्दे बदल डाल देता है जिससे देखते ही देखते
सारे किरदार और सारे दृश्य बदल जाते हैं। रिश्तेदार धीरे-धीरे कन्नी काटने लगे।
बैंड-पार्टी के भी कुछ लोगों ने मिलकर अपनी नई पार्टी बनाने की गुपचुप शुरुआत
करली। कल तक प्रभुलाल के साए में सब एक थे, वे ही आज उसके न
रहने पर अपना भविष्य असुरक्षित महसूस करने लगे। कुछ तो कब के भीतर ही भीतर अपना
नया ग्रुप बनाने को तैयार बैठे थे, बस किसी अच्छे मौके की
तलाश में थे। अपने पिता के कुछ वफादार साथियों के सहारे रंगलाल ने बैंड-पार्टी को
फिर से खड़ा किया। वे बहुत संघर्ष के दिन थे। खुद नए गाने सीखना, अपनी टीम के साथ उन्हें बजाने का अभ्यास करना और शादियों में जाकर बजाना; इन सबके अलावा चुपचाप आँसू बहाती माँ को हौसला देना भी उसी के जिम्मे था।
बीच-बीच में मौका निकाल कर कभी-कभार वह भँवर के घर भी हो आता। ललिता की कोई खबर न
थी। ऐसे ही अपशगुनी दिनों में एक दिन यह खबर भी आई कि ललिता आगे अब अपने मामा के
यहाँ रहकर ही पढ़ेगी। वैसे भी कस्बे में हायर-सैकेन्डरी स्कूल के आगे पढ़ाई थी नहीं।
भँवर के घर पर भी बातें चल रही थीं उसे शहर के हॉस्टल में रखकर आगे पढ़ाने की। जिस
दिन भँवर भी चला गया उस दिन रंगलाल को लगा कि अब उसके लिए ललिता के घर का आखिरी
दरवाजा भी बंद हो गया है। बाहर का अकेलापन उसके भीतर पसरने लगा। हर वक़्त चुप्पी
उसके चेहरे पर अपना स्थायी निवास बना चुकी थी। बाजा बजाना जहाँ उसके लिए जीवन-यापन
की मजबूरी थी वहीं दूसरी ओर अपने भीतर की प्यास बुझाने का जरिया भी थी।
मौसम गुजरते चले गए। पतझड़ों ने पत्ते
झाड़कर पेड़ों को डरावना बना दिया पर बहारें कोई भी नई कौंपल उगाने में कामयाब नहीं
हुई। दिन-महीने-साल और फिर एक के बाद एक कई सारे सालों के ढेर तले ‘रंगलाल’ कुचल कर रह गया, जो बच
रह गया था, वह था ‘बाजा बाबू।’ नितांत औपचारिकता से अपनी बैंड-पार्टी को ढोना और सुबह से शाम और शाम से
रात तक पहुँचना उसे थका डालता। इसी थकन और भीतर के अकेलेपन ने उसे शराब तक
पहुँचाया। और जो भी हो शराब एक काम ज़रूर करती कि बरसों के घने अंधकार को चीरकर
बाजा बाबू को रंगलाल बना देती और ललिता को उसके पास बैठा देती। वह कभी हँसता, कभी रोता और कभी आधी रात में बाजा बजाने लगता-
ओ तेरे नैना हैं ज़रा
बेईमान से
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
बजाते-बजाते उसकी आँखें मुँद जाती और
उसके पैर थिरकने लग जाते। बाजे में साँसे उँड़ेलते उसके फेफड़े थक जाते, बाजा बेसुरा होने लगता और रंगलाल निढाल होकर पड़ जाता। मीठी नींद उसे घेर
लेती।
इसी तरह पाँच बरस बीत गए। इन पाँच
सालों में कस्बा भी शहरी होने लगा था। कई नई-नई बैंड-पार्टियाँ बन गईं। शादियाँ भी
ठेके पर होने लगी। ठेकेदार ही हर चीज की व्यवस्था करता। टैंट, खाना, रोशनी, सजावट से लेकर
दूल्हे के लिए घोड़ी और बैंड-पार्टी भी ठेकेदार ही लाता। अब सीधे कोई बैंड-पार्टी
बुक नहीं करता। लोगों के कामकाज की भागदौड़ तो ज़रूर कम हुई मगर इसका सीधा असर
बैंड-पार्टियों की कमाई पर हुआ। इन ठेकेदारों के आगे-पीछे डोलो तब कहीं जाकर कोई
बुकिंग मिलती थी। ठेकेदार औने-पौने पैसे देकर चलता करता। कई बार तो बारात में बजाते
समय लोगों से बख्शीश में मिले रुपए ठेकेदार से मिलने वाले रुपयों से ज़्यादा होते थे।
एक दिन मनोहरलाल का आदमी बुलाने आया।
मनोहरलाल कस्बे में शादियों का सबसे बड़ा ठेकेदार था।
“अरे आ भई बाजा बाबू, परसों की एक बुकिंग है, आ जाणा,” मनोहरलाल बोला।
फीकी-सी हँसी हँसते हुए रंगलाल ने
कहा, “इस बार तो पैसे बढ़ाओ साहब,
इतने में पूरा नहीं पड़ता।”
“तेरे से रोज़ का मामला है इसलिए
बुलाता हूँ, वरना अपनी शकल तो देख...,
ऐसे ही भूत-पलीत की तरह उठ के आ जाता है,” मनोहरलाल गरजता
हुआ बोला। “जोगियों जैसी तो दाढ़ी बढ़ा रखी है, बैंड-पार्टी की
ड्रेस देखो तो वही बरसों पुराणी; आजकल शादी-ब्याह में इन सब
चीजों का भी ध्यान रखणा पड़ता है,” मनोहरलाल ने कहा।
रंगलाल ने खुशामदी स्वर में कहा, “इस बार में सब ठीक कर लूँगा, बस आप पैसे बढ़ा देना।”
“ठीक है, ठीक है, मैं देख लूँगा,”
मनोहरलाल ने लापरवाही से जवाब दिया।
चलते-चलते रंगलाल ने पूछा, “किसके यहाँ की बुकिंग है?”
“अरे बहुत बड़ी पार्टी है। मुझे तो
बोल रहे थे कि बैंड-पार्टी भी शहर से बुलवालो पर मैंने ही मना किया, वैसे आर्केस्टा पार्टी बुलाई है शहर से,” मनोहरलाल
ने बताया। “तूने नाम सुण रखा होगा ना वकील धनपतराज जी का,
उन्हीं की बेटी की शादी है; गजब खर्चा कर रहे हैं,” मनोहरलाल उत्साह से बोलता ही जा रहा था। रंगलाल पर तो जैसे बिजली गिर पड़ी
हो। कौन क्या बोल रहा है, वह कहाँ से कहाँ को चल रहा है, उसे कुछ होश नहीं रहा। उसी बेहोशी जैसी हालत में जाने क्या बड़बड़ाता वह घर
पहुँचा। बिस्तर पर औंधा पड़ गया। माथे को कभी तकिये के बाएँ कोने में दबाया तो कभी
दाएँ कोने में, पर दर्द हल्का ना हुआ। “ललिता की शादी हो रही
है और उसे पता ही नहीं चला... भँवर ने भी नहीं बताया... पर भँवर कौनसा यहाँ बैठा
है जो उसे बताता... ललिता से मिलने का मन हो रहा है... कैसे मिलूँ... उसके घर
जाऊँ... वहाँ कौन मिलने देगा...,” विचारों का जंजाल उसके
चारों ओर फैल गया और वह एकदम अकेला, असहाय, छटपटा के रह गया। रात का इंतज़ार किए बगैर पीने बैठ गया। शराब अपने असर से
बाहर हो चुकी थी। छत पर चढ़ गया। एकटक चाँद को देखने लगा। ये क्या! चाँद सफ़ेद झक्क
मोती बिखेरने लगा! दूर... बहुत दूर... चाँद पर बैठी दिखाई दी ललिता। उसने हाथ
बढ़ाया पर छू नहीं पाया। ललिता मुस्करा रही है... रंगलाल देख रहा है... देख रहा
है... ललिता दुल्हन बनी हुई है... कितनी खूबसूरत लग रही है... वह उसके पास जाना
चाहता है... उसे छूना चाहता है... पर बहुत भीड़ है उसके चारों ओर... कैसे जाए...!
वह ललिता को पुकारता है... ललिताऽऽऽ!... बहुत शोर है चारों तरफ... ललिता उसकी
आवाज़ भी नहीं सुन पा रही... वह इंतज़ार करेगा कि भीड़ हट जाए और वह ललिता से बात कर
पाए... और फिर धीरे-धीरे रात की मदहोशी ने उसे अपने में समेट सुला लिया।
आखिर वो रात भी आई। बारातघर से
दूल्हे राजा की बारात सजी। चमचमाती गाडियाँ, इधर-उधर चहक रहे
सजे-धजे बाराती, जवान, बूढ़े, बच्चे, लड़कियाँ, औरतें। शहर
से बड़े-बड़े लाउड स्पीकर वाली मशीन भी आई थी। एक खुली लॉरी में उसे बजाया जा रहा
था। कान फोड़ने वाली जोरदार आवाज़ चारों ओर गूँज रही थी। उसके थोड़ा आगे पंजाबी ढ़ोल
बज रहा था। ढ़ोल की ताल पर बाराती नाच रहे थे। बीच में सफ़ेद घोड़ी पर दूल्हे राजा
सवार थे। उसके आगे बाजा बाबू की बैंड-पार्टी थी। दोनों ओर रंगीन रोशनी वाली गैस
बत्तियाँ जल रही थीं। साक्षात इंद्रलोक की रौनक धरती पर उतर आई थी। बाजों की आवाज़
घनघना रही थी।
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
आज मेरे यार की शादी है
लगता है जैसे सारे संसार की शादी है
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
आज मेरे यार की शादी है
लगता है जैसे सारे संसार की शादी है
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
बाज़ार से होती हुई बारात वकील साहब
की कोठी पर पहुँची। कोठी खुद दुल्हन की तरह सजी हुई थी। सामने ही बहुत बड़ा
शामियाना लगा था। लाउड स्पीकर, पंजाबी ढोल और बैंड-पार्टी सभी
जम के शोर मचा रहे थे। नोटों की बरसात हो रही थी। बाजा बाबू ने नया गाना छेड़ा-
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
ओ फिरकी वाली,
तू कल फिर आना
नहीं फिर जाना,
तू अपनी ज़ुबान से
ओ तेरे नैना हैं ज़रा
बेईमान से...
बारातियों में से कुछ
नवयुवकों को यह गीत थोड़ा पुराने फैशन का लगा। या यूँ कहलो कि इसकी धुन पर उनसे
नाचा नहीं जा रहा था।
“ए सुनो!
कोई दूसरा गाना बजाओ,” एक ने कहा।
“कोई नया गाना बजाओ ना,
वो डिस्को डांसर वाला आता है तुम्हें?” दूसरा बोला।
“अरे छोड़ो इसे,
ये गाँव का बैंड है, कुछ नहीं आता इन्हें,”
तीसरा बोला।
सब लड़के लॉरी के पास चले
गए और लाउड स्पीकर से अपनी पसंद का गीत बजवाने लगे। इधर बाजा बाबू तो अपनी ही धुन
में बाजा बजा रहा था।
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
पहले भी तूने इक रोज़ ये
कहा था
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
आऊँगी तू ना आई
बाजा बाबू की आँखें मुँद गई और उसके
पैर थिरकने लगे। बीच बारात में वह अकेला नाच रहा था। उसकी साँसें
बाजे में समाती और एक चीत्कार बाजे से फूट पड़ता।
मेरे प्यासे नैना तरसे,
तू निकली ना घर से
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
इधर वकील साहब अपने समधियों और
बारातियों को गले लगाकर, माला पहनाकर स्वागत कर रहे थे। कोठी के बड़े दरवाजे
पर आकर औरतें मंगल-गीत गाने लगी थीं। पंजाबी ढोल और लाउड स्पीकर वाले सब शामियाने
के एक कोने में बैठकर सुस्ताने लगे थे। बैंड-पार्टी के सब लोग भी बाजा बाबू की ओर
देख रहे थे और सोच रहे थे कि अब बंद हो तो थोड़ा आराम मिले। पर बाजा बाबू तो बेसुध
बजा रहा था। पेट से गले तक पहुँचती साँस पसलियों को चीरने लगी थी। बैंड-पार्टी के
ड्रम ने कई बार ‘सम’ पर विराम लगाकर
गाने को बंद करने का संकेत दिया।
ढम ढमा ढम
ढम ऽऽऽ
पर आज बाजा
बाबू संगीत के अनुशासन को तोड़ कर रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था।
ओ तेरे नैना हैं ज़रा
बेईमान से
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
बाजा बाबू ने छाती में उठे दर्द को
एक हाथ से दबाया और एक तरफ चल दिया। कुछ मकान छोड़ कर लंबी-सी चबूतरी पर जाकर पसर
गया। वकील साहब ने आवाज़ लगाई, “लो भाई बाजा बाबू,” और कोट की जेब से सौ रुपये का नोट निकाला। बैंड-पार्टी के सबसे पुराने सदस्य
राधेश्याम ने रंगलाल की ओर देखा और कहा, “जाओ बाजा बाबू, साहब ईनाम के लिए बुला रहे हैं।” जब उसने कोई जवाब नहीं दिया तो राधेश्याम
खुद जाकर ईनाम ले आया और सीधे रंगलाल के पास पहुँचा। राधेश्याम ने सौ का नोट बाजा बाबू
की तरफ करते हुए कहा, “इतना बड़ा ईनाम तो आज तक नहीं मिला।”
वहाँ उस ठंडी चबूतरी पर एक ओर साँसों
की गर्मी से अभी भी दहकता हुआ बाजा पड़ा था और पास ही पड़ा था अपनी सारी साँसें बाजे
में उँड़ेलने के बाद, बाजा बाबू का बेजान शरीर।
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बेहतरीन कहानी सर, क्या डूब कर लिखा है आपने.। अद्भुत.।
जवाब देंहटाएंआभार भाई कल्याण।
हटाएंबेहतरीन कहानी...
जवाब देंहटाएंलगा जैसे रेडियो के लिखी गयी कोई गीतों भरी कहानी पढ़ रहा हूँ..����
रेडियो के लिए भी गीतों भरी कहानी लिखी थी मैंने। शायद तुम्हें याद हो। साल था 1990, थपलियाल जी के समय की बात है, अशोक जी ने रेकॉर्ड की थी। कहानी का नाम था- अपराधी।
हटाएंबहुत आभार मनीष।
माशाअल्लाह बहुत ख़ूब सर..
जवाब देंहटाएंशुक्रिया भाई।
हटाएंमाशाअल्लाह बहुत ख़ूब सर..
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