प्यारे
बच्चो! तुम लोगों ने आसमान में उड़ने वाली परी की कहानी सुनी होगी, जंगल में रहने वाले शेर बहादुर और बुद्धिमान खरगोश की भी कहानी सुनी होगी, लालची बनिए और उसे सबक सिखाने वाले रामू की कहानी भी सुनी होगी; पर यह कहानी उन सबसे अलग है। यह कहानी तुम्हें आसमान की ऊँचाईयों में
नहीं, पाताल की गहराईयों में ले जाएगी। ...तो तैयार हो ना, चलने के लिए! ...शाबाश!
छोड़ो
राजा, छोड़ो रानी
मछली
गाए, नाचे पानी
दिनभर
होती, खींचा-तानी
आओ
सुनलो, एक कहानी
शहर
से कुछ दूरी पर एक गाँव था। गाँव में एक कुआँ था। कुछ साल पहले तक लोग उस कुएँ का
पानी पीते थे, पर जब से घरों में नल लग गए तो लोगों ने कुएँ
से पानी निकालना बंद कर दिया। गाँव के सबसे बुजुर्ग जैरूप बा अक्सर बताते थे कि वो
कुआँ पातालफोड़ गहरा है। मतलब ये हुआ कि उसकी गहराई पाताल तक थी। उस कुएँ में झाँको
तो कुछ नज़र नहीं आता था, बस अँधेरा ही अँधेरा भरा हुआ था। उस
अँधेरे कुएँ में खूब सारे मेढक रहते थे। दिनभर कुएँ में इधर-उधर डोलते रहते, जो मिला उसे खाते, कुएँ की दीवारों पर लगी काई पर
फिसल कर कुएँ के पानी में गोता लगाते, रात को टर्र-टर्र करते
हुए पूरे कुएँ को गुँजा देते और आखिर थक-हार कर सो जाते। वो कुएँ का गोल घेरा, उसमें हर समय भरा हुआ घना अँधेरा और वो गंदा,
बदबूदार पानी ही उन मेढकों की दुनिया थी। दोपहर में जब सूरज पीपल के पेड़ के ठीक
ऊपर आ जाता, तब उसकी रोशनी पीपल के पत्तों से छनती हुई कुएँ
के अंदर पहुँच जाती और कुछ समय के लिए सब कुछ साफ-साफ दिखने लगता। पर मेढकों को
इसकी आदत नहीं थी। वे सारा समय अँधेरे में रहते थे। रोशनी की चमक से वे डर जाते और डर कर कुएँ की दीवारों के छेदों में या पानी
की गहराई में चले जाते और तब तक वहीं दुबके रहते जब तक अँधेरा फिर से ना आ जाए। उन
लोगों की जाने कितनी पीढ़ियाँ इसी तरह इसी कुएँ में बीत गई थीं।
इन्हीं
मेढकों के झुंड में एक नन्ही मेढकी भी थी। वह इन सबसे अलग थी। अलग मतलब ये नहीं कि
उसके छ: पैर और चार आँखें थी, बस उसका सोचना सबसे अलग ढंग
का था। जैसे कि जब दिन में एक बार कुएँ में रौशनी उतरती और पानी चमकने लगता तो वह
बहुत खुश हो जाती थी। कभी-कभी वह अपने साथी मेढकों को कहती,
“कितना अच्छा हो अगर यही चमक हमेशा बनी रहे।” इस पर दूसरे मेढक डरते हुए कहते, “अरे मरवाएगी क्या मेढकी! वो थोड़ा-सा समय हम कैसे
गुजारते हैं, वो हम ही जानते हैं। ... तुझे डर नहीं लगता
है!” मुस्कराती मेढकी कहती, “मैं तो सोचती हूँ किसी दिन इस चमक
को पकड़ कर ऊपर उठती जाऊँ और देखूँ कि ये आती कहाँ से है!” मेढक और घबरा जाते और तब
उनमें से कोई एक उसके धौल जमाता हुए कहता- ‘पागल मेढकी!’
ऐसे
ही दिन गुजरते जा रहे थे और ऐसे ही रातें कट रही थीं। एक दिन कहीं से उड़ते हुए कुछ
रंगीन कागज़ कुएँ में आ गिरे और पानी पर तैरने लगे। दोपहर के समय जब कुएँ में रोशनी
हुई तो हमेशा की तरह बाकी सारे मेढक तो डर के मारे इधर-उधर जा छुपे पर मेढकी खुशी से
चहकती हुई रोशनी की लकीर को छूने के लिए पानी के ऊपर आ गई। उसने पानी पर तैरते हुए
उन रंगीन कागज़ो को देखा। वह उनके पास गई और हैरत भरी नज़रों से उन्हें उलट-पलट कर बार-बार
देखने लगी। “अरे वाह! कितनी सुंदर-सुंदर चीजें बनी हैं! ... क्या सच में कहीं ऐसी चीजें
होती होंगी! ... यहाँ तो कुछ भी ऐसा नहीं दिखता! ... कहाँ होती होंगी ये सब चीजें!
... क्या मैं भी वहाँ जा सकती हूँ!” मेढकी मन ही मन सोचने लगी। उस दिन के बाद सभी ने
देखा कि वह अक्सर उदास, चिंता में डूबी हुई रहने लगी। कोई कहता, “अरे अपनी छुटकी मेढकी को क्या हो गया! मैंने आज उसे एक तरफ कोने में अकेले
कुछ बड़बड़ाते हुए देखा। जाने खुद से ही क्या बातें किए जा रही थी!” कोई नई बात ही लाता
और कहता, “इस नन्ही मेढकी पर उस चमकदार लकीर का साया पड़ गया है, इसकी नज़र उतारो वरना किसी काम की नहीं रहेगी।” लोग और भी कई तरह की बातें
बनाते रहते। इधर मेढकी पक्का तय कर चुकी थी कि वह यहाँ से बाहर निकल कर उस नई दुनिया
को देखेगी।
उसने
बार-बार कुएँ की काई भरी दीवार से चिपक कर ऊपर चढ़ने की कोशिश की, पर हर बार फिसल कर गिर पड़ी। उसे गिरता देख उसके साथी मेढक ठहाका लगा कर हँस
पड़ते। इतना ही नहीं, वे उसे चिढ़ाते भी थे- “अरे लगा ज़ोर, शाबाश!” मेढकी रुआँसी हो जाती और वहाँ से भाग जाती। बहुत बार उसके मन में
आता कि अब ये कोशिश छोड़ देनी चाहिए पर थोड़ा समय बीतता और उसमें फिर से वही हिम्मत भर
जाती और वह नया रास्ता तलाशने निकल पड़ती।
एक दिन उसके कानों में मीठी-मीठी आवाज़ आई।
वह समझ गई कि ये उसकी दोस्त चींटियों की आवाज़ है। चींटियाँ जब भी कुएँ की दीवार पर
इधर से उधर जाती थीं तो ऐसे ही मीठे सुर में गाना गाते हुए निकलती थीं। चींटियाँ एक
लाइन में चलते हुए मस्ती से गा रही थीं-
चले
चलो भई चले चलो
चले
चलो भई चले चलो
थकना
अपना काम नहीं
बढ़े
चलो भई बढ़े चलो
मेढकी
पानी में तैरती हुई तेज़ी से आगे बढ़ी और दीवार के पास आकर अपनी दोस्तों को आवाज़ देने
लगी। चींटियाँ चलते-चलते रुक गईं। रानी
चींटी ने मुड़ कर देखा और बोली, “ओह! तो तू है। बोल प्यारी मेढकी, क्या बात है!” मेढकी ने कुछ संकोच के साथ, धीरे-धीरे
फुसफुसाते हुए रानी चींटी से कहा, “तुम तो दिन-रात चलती रहती
हो, जाने कहाँ-कहाँ जाती हो। मैं भी यहाँ से निकल कर देखना चाहती
हूँ कि यहाँ के बाहर क्या-क्या है!” “हाँ तो देखो ना, ये दुनिया
तो बहुत बड़ी है, जाने कितनी-कितनी दूर फैली हुई! कई तरह के जीव, कई तरह की चीजें, कई तरह की गंध, कई तरह के स्वाद... और भी जाने क्या-क्या है,” रानी
चींटी बोली। मेढकी ने कुछ उदास होते हुए कहा, “मैंने बहुत कोशिश
की यहाँ से निकलने की, पर घेरे की दीवार पर इतनी फिसलन है कि
हर बार मैं फिसल कर पानी में गिर जाती हूँ। ... क्या तुम कोई और रास्ता बता सकती हो, जिस से मैं बाहर निकल जाऊँ!” रानी ने थोड़ी देर सोचा फिर कहा, “तुम ऐसा करो, यहाँ से घेरे के किनारे-किनारे चलती जाओ।
आगे, बहुत आगे एक जगह ऐसी आएगी जहाँ घेरे का पत्थर अभी कुछ रोज़
पहले ही उखड़ा है, वहाँ से ऊपर तक एक दरार आई हुई है। इस दरार
में अभी फिसलन नहीं हुई है, तुम उसके सहारे-सहारे घेरे से बाहर
निकल जाना।” मेढकी की खुशी का ठिकाना ना रहा। उसने अपनी दोस्त रानी चींटी को धन्यवाद
दिया। रानी चींटी ने मुस्करा के उसे देखा और अपने दल के साथ आगे बढ़ गई।
नन्ही
मेढकी के तो जैसे पंख निकल आए। उसने कुएँ के घेरे के किनारे-किनारे चलना शुरू कर दिया।
थक जाती तो कुछ पल ठहर जाती और थोड़ा सुस्ता कर फिर चल पड़ती। और फिर चलते-चलते वह उस
उखड़े हुए पत्थर के पास पहुँच गई। सच में वहाँ फिसलन नहीं थी। वह आराम से दरार के सहारे-सहारे
घेरे के ऊपर की ओर बढ़ने लगी। यात्रा इतनी आसान नहीं थी। अँधेरे रास्ते बहुत लंबे थे
और कदम-कदम पर गिरने का खतरा था, पर नन्ही मेढकी की आँखों में सपने
भरे हुए थे नई दुनिया को देखने के। उसके सपनों ने उसके मन में जोश भर दिया था। वह नाप-तौल
कर एक एक कदम बढ़ा रही थी। जाने कितने दिन और कितनी रातें वह इसी तरह चलती रही। और फिर
एक पल ऐसा भी आया कि उसे लगा कि उजाले कि वो लकीर पास आती हुई फैलती जा रही है, सब कुछ साफ-साफ दिखाई दे रहा है। इसी तरह चलते हुए वह कुएँ की मुँडेर पर जा
पहुँची। उसने आखिरी छलांग लगाई और मुँडेर से बाहर कूद गई। उसे अपनी आँखों पर भरोसा
नहीं हुआ। दूर-दूर तक चारों और उजाला फैला हुआ था। उसने गहरी साँस भरी तब महसूस हुआ
कि कुएँ की उस गंदी-बदबूदार हवा में और इस नई दुनिया की हवा में कितना फर्क है। बहुत
देर तक वह वहीं बैठी इस नई दुनिया की नई-नई आती-जाती चीजों को, नए-नए जीवों को देखती रही। रह-रह कर तरह-तरह की आवाज़ें उसके कानों में पड़
रही थीं, जो इससे पहले उसने कभी नहीं सुनी थी। कितनी रंग-बिरंगी
थी ये दुनिया! उसकी इच्छा हो रही थी कि ज़ोर से चिल्लाए और अपने साथियों को बताए कि
देखो जो उसने कहा वो सही था, सच में ये दुनिया केवल कुएँ तक ही
नहीं है, कुएँ के बाहर भी बहुत बड़ी दुनिया है।
बहुत
देर तक वहीं बैठी रहने के बाद उसने अपने खाने-पीने-रहने का ठिकाना ढूँढना शुरू किया।
कुएँ के ठीक पास ही एक छोटे गड्ढे में पानी भरा हुआ था। उसमें भी कुछ मेढक तैर रहे
थे। जब उनकी इच्छा होती गड्ढे के बाहर आ जाते, घूमते-फिरते और फिर
उसमें चले जाते। मेढकी ने गड्ढे के मेढकों से दोस्ती की और उनके साथ रहने लगी। अब वह
कुएँ की उस अंधेरी, गंदी-बदबूदार कैद से आज़ाद थी। दिन गुजरने
लगे। रोज़ मेढकी रोशनी में खूब घूमती, आस-पास के पेड़ों, झाड़ियों में रहने वाले पक्षियों से उसकी जान-पहचान बढ़ने लगी। कभी-कभार
गाँव के बच्चे उधर खेलने आ जाते। वे खूब हल्ला मचाते, दौड़ते, भागते, पेड़ों पर चढ़ते, ज़ोर-ज़ोर से किलकारियाँ मार कर हँसते और देर तक मस्ती करते रहते थे। मेढकी
पहले-पहल तो उनको देख कर डर गई थी, पर धीरे-धीरे उसे समझ आ गया
कि वे सभी बहुत प्यारे हैं, वे उसे कोई नुकसान नहीं पहुँचाएंगे।
उसने दूर देश से उड़ कर आने वाले सफ़ेद पक्षी भी देखे। उसके साथी मेढकों ने बताया कि
हर सर्दी के मौसम में वे अपने घरों से बहुत दूर उड़ कर यहाँ चले आते हैं। वह सोचती कि
अगर वह कुएँ से बाहर नहीं आती तो इतनी सुंदर दुनिया को भला कैसे देख पाती!
वैसे
तो नन्ही मेढकी बहुत खुश थी पर कभी-कभी एक बात उसके मन को दुखी कर जाती थी। वह सोचती
कि वह तो कुएँ से बाहर आ गई पर उसके साथी अभी तक उसी अँधेरे, बदबूदार घेरे में बैठे हैं। वह चाहती थी कि वे भी इस रोशनी और रंगों से सजी
दुनिया को देखें और बाहर की खुली हवा में साँस लें। पर उनको बाहर निकालने का कोई रास्ता
नहीं था, यही बात उसे उदास कर देती थी। पर फिर भी उसने आशा नहीं
छोड़ी थी।
एक दिन वह कुएँ के पास ही बैठी धूप में सुस्ता रही थी कि उसे कुएँ की मुंडेर
के पास से एक जानी-पहचानी गुनगुनाहट सुनाई दी-
चले
चलो भई चले चलो
चले
चलो भई चले चलो
थकना
अपना काम नहीं
बढ़े
चलो भई बढ़े चलो
“अरे
वाह! ये तो मेरी दोस्त चींटियाँ हैं,” मेढकी खुशी से उछलते
हुए बोली। कुछ ही देर में चींटियाँ एक लाइन में धीरे-धीरे आगे बढ़ती हुई दिखाई दीं।
“कहो
मेरी प्यारी दोस्तो, कैसी हो!” मेढकी ने पूछा।
चींटियाँ
रुक गईं और रानी चींटी बोली, “अरे तुम हो नन्ही मेढकी!... कैसी
हो तुम यहाँ!... आखिर तुमने हिम्मत की और कुएँ से बाहर आ ही गई।”
“ये
सब तुम्हारे कारण ही हो सका रानी... तुमने रास्ता दिखाया और हिम्मत भी बँधाई... क्या
मेरा एक काम और कर दोगी प्यारी दोस्त!” नन्ही मेढकी ने कहा।
“हाँ-हाँ, क्यों नहीं, तू बोल तो सही, तेरी
मदद करके मुझे बहुत खुशी होगी,” रानी ने कहा।
“क्या
तुम मेरे दूसरे साथियों को उसी रास्ते के बारे में और इस बाहर की सुंदर दुनिया के बारे
में बताओगी!... क्या तुम उन्हें मेरे बाहर आने की कहानी सुनाओगी!” मेढकी ने हिचकिचाते
हुए कहा।
रानी
मुस्कराई और बोली, “हमें तेरेजैसी दोस्त पर गर्व है। तूने
ना केवल खुद को उस अँधेरे से बाहर किया बल्कि अपने साथियों को भी वहाँ से बाहर लाने
की चिंता कर रही हो। हम इस काम में तेरी पूरी मदद करेंगी।” इतना कहकर रानी अपने चींटी
दल के साथ कुएँ के भीतर की ओर बढ़ गईं। “बहुत बहुत धन्यवाद मेरी प्यारी दोस्त,” कहते हुए मेढकी सामने वाले पीपल के पेड़ की ओर चल दी। वहाँ कबूतरों का परिवार
कब से उसे बुला रहा था।
और
फिर एक दिन वो भी आया जब मेढकी ने कुएँ के बाहर ‘धप्प’ की आवाज़ सुनी। वह लपक कर गड्ढे से बाहर आई। उसने देखा तो उसकी खुशी का ठिकाना
नहीं रहा। उसकी ही एक साथी मेढकी कुएँ की मुंडेर
के नीचे बैठी अचरज भरी नज़रों से चारों ओर एक नई दुनिया को देख रही थी।
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