रविवार, 12 जुलाई 2020

रास्ते के रंग

वह जा रहा था। रास्ता था, वह था और साथ थे नजारे... सूरज, धूप, हवा, रेत, बबूल, पेड़, पंछी।
रास्ता मुड़ा। अब सूरज ठीक ऊपर चमकने लगा। तीखी धूप आँखें चौंधियाने लगी, बदन जलाने लगी। हवा भी जैसे डर कर धूप का साथ दे रही हो! पहले तन झुलसा फिर मन झुलसना शुरू हो गया। गहरा आघात हमें भीतर झुलसाने लगता है। दुनिया की हर शय का रंग गहरा काला हो जाता है। सन्नाटा काट खाने को दौड़ता है। कुछ कदमों की दूरी मीलों लंबी हो जाती है। हर साँस दुख का भारी दस्तावेज बन जाता है। 

रास्ता फिर मुड़ा। सूरज दाँयी ओर पेड़ों की ओट में आ गया। अरे...! ये क्या...! पेड़ों की घनी डालियों से छन कर आती हुई धूप खुशबू में बदल गई! आहा! कितनी सलोनी धूप!... कभी चोरी से झाँकती और लाज से पीली हुई प्रेमिका पहली बार अपने प्रेमी से मिलने का जतन कर रही है। पेड़ की पत्तियों में सरसराहट जैसे प्रीत का प्रथम बोल बोलने में उसके कंठ में आ गए कलेजे की थरथराहट है।... और वो, बेचैन प्रेमी-सा उसके इंद्रजाल में है। हवाएँ मृदंग बजा रही हैं। रास्ते की रेत लिपटना चाहती है... मुझे भी साथ लेलो, मैं भी साक्षी बनूँगी तुम्हारे प्रणय की। समय धुआँ हो गया है, भागता बादल हो गया है। कितने महीने मुहूर्तों की मानिंद गुजर जाते हैं, साल समय की सबसे छोटी इकाई बन बीत जाते हैं।

रास्ता फिर मुड़ता है... फिर मुड़ता है... फिर मुड़ता है। हर बार सब कुछ बदल जाता है। तब कहीं जाकर समझ में आता है कि समय कुछ नहीं बदलता, बदलने वाला होता है वो मोड़ जो तय करता है कि धूप जलाएगी या प्रेयसी बन गुनगुनाएगी।

केटी
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