बहुत हुआ सतरंगे सपने
बहुत हुआ अब तुम जाओ
व्यर्थ भ्रमों के जाल बिछाकर
और ना मुझको उलझाओ
तेरे संग बहुत खेला मैं
गाए गीत सुहाने से
नाचे नाच अनगिनत मैंने
उठे कदम दीवाने से
ललकी थी मेरी बाँह और
पुलके थे नयन नशीले तब
सतरंगी आभा से झिलमिल
तुम करीब आए थे जब
एक अंजाना संसार बसा
मधु के प्याले सा झूम गया
यात्रा-पथ मेरा निश्चित था
दोराहे पर मैं घूम गया
क्यों घूम गया तुम क्या जानो
सपने हो आखिर सत्य नहीं
अन्तर्मन अकुला जाता है
वरना यह मेरा कथ्य नहीं
आन्दोलित हो मानस से मैं
बस यही सोचता रहता हूँ
सपने तो देखे खूब मगर
क्यों इसी स्वप्न की कहता हूँ
माया ही है पर कुछ तो है
जिससे यथार्थ को भूल गया
जैसे एक बालक थाली में
चन्दा को पाकर फूल गया
इस अनुपम मृगतृष्णा में तुम
क्यों मुझ मृग को भटकाते हो
एक अंजाना संबंध लिए
क्यों द्वार मेरा खटकाते हो
बीतेगी रात्रि जैसे ही
तुम भी अलोप हो जाओगे
मदहोश होश में आ भी जा
बस यही शब्द कह पाओगे
फिर बुझी-बुझी आँखें लेकर
अचरज कर करके रोऊँगा
दुनिया में तुम्हें खोजने को
खुद भाव-भँवर में खोऊँगा
फिर भी तुम नहीं मिलोगे यह
कटु लगता है पर सत्य वचन
यूँ रात गई यूँ बात गई
क्यों भूल गया मेरा कवि मन
क्यों भूल गया मैं, मैं क्या हूँ
बालक सम और ना बहलाओ
है निकट भोर मैं भी जगलूँ
रहने दो और ना सहलाओ
क्या कहूँ और मैं तुमसे अब
कुछ पल के हो पर अपने हो
जीवन में तुम एक स्वप्न सही
लेकिन सुन्दरतम सपने हो
वो देखो सूरज उदय हुआ
जाना होगा अब तुम जाओ
बहुत हुआ सतरंगे सपने
बहुत हुआ अब तुम जाओ
Very nice.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सीमा जी।
हटाएंVery Beautiful poem
जवाब देंहटाएंसपना हमेशा ही खूबसूरत होता है पूनम जी।
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