गुरुवार, 24 अक्तूबर 2019

लट्टू और डोरी


बच्चो, सुनो कहानी!

ना ही ये परियों की है,
ना इसमें राजा रानी।
ना ही ये जंगल की है,
ना कोई हाथी ज्ञानी।

शेर बहादुर, भालू, चीता,
ना ही है खरगोश।
चाँद पे चरखा काते बुढ़िया,
ना चिड़िया का जोश।

ओ माँ, मुझको बना रहे तुम,
समझे क्या अज्ञानी!
ऐसी भी क्या होती होगी,
कोई भला कहानी!

हाँ बच्चो, ये एकदम निराली कहानी है। ध्यान से सुनना, सुनना और गुनना।  एक था गाँव! और गाँव में, एक था लट्टू, एक थी डोरी। बच्चो, लट्टू देखा है ना आपने!... अरे नहीं नहीं, वो बिजली वाला लट्टू नहीं, मैं बात कर रहा हूँ डोरी से गोल-गोल घूमने वाले लट्टू की। ... तो हाँ, लट्टू अपना पूरा गोल-मटोल था। बदन पर उसके गहरी गहरी धारियाँ बनी हुई थीं। नीचे निकली हुई थी नुकीली कील। डोरी उन धारियों में कस के लिपट जाती और झटके से जैसे ही अलग होती, लट्टू गर्रर्रर्रर्र... से फिरकी लेता हुआ ये जा-वो जा! फिर तो काफी देर तक अपनी नुकीली कील के सहारे लट्टू इतराता हुआ गोल-गोल घूमता रहता और डोरी वहीं पास में बैठी उसका नाच देखकर खुश होती रहती।
लट्टू और डोरी के दोस्त थे गाँव के बच्चे। स्कूल की छुट्टी के बाद गाँव के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे बच्चों का जमघट लग जाता। कुछ बच्चे पकड़ा-पकड़ी खेलने लग जाते, कुछ गिल्ली-डंडा और कुछ बच्चे लट्टू घुमाने लग जाते। कुछ तो पेड़ के ऊपर चढ़ कर डालियों से नीचे को लटक कर झूला झूलने का मज़ा लेने लगते। एक बात पूछूँ!... क्या तुमने कभी किसी पेड़ पर चढ़ने का मज़ा लिया है?... जानता हूँ, ज़्यादातर बच्चे ना में ही उत्तर देंगे। एक बात तो मैं भी कहूँगा कि पेड़ पर चढ़ने के लिए शक्ति, बुद्धि और साहस- तीनों की ज़रूरत होती है। अगर कोई बच्चा पेड़ पर चढ़ने की कोशिश करता है तो उसमें इन तीनों गुणों का विकास होता है।खैर, ज्ञान की बात जाने ज्ञानी, अभी तो सुनो कहानी! लट्टू और डोरी बहुत पक्के दोस्त थे। वे खूब बातें करते रहते थे। लट्टू बड़ी-बड़ी गप्पें मारने में उस्ताद था। वो डोरी से अक्सर कहता, “तू तो निरी आलसी है, एक ही जगह पर पसरी रहती है। मैं तो दूर-दूर तक जाता हूँ, मैंने कई नई-नई चीजें देख रखी हैं।” डोरी पलट कर कहती, “ले जाता तो है नहीं कहीं, बस बातें सुनाता रहता है।” आसपास खेलने वाले बच्चे भी लट्टू और डोरी के दोस्त थे। वे भी उनसे बातें करते थे। सच पूछो तो उनकी भाषा केवल बच्चों के ही समझ में आती थी। ऐसे ही एक दिन डोरी ज़िद पकड़ कर बैठ गई कि उसे भी घूमने जाना है। लट्टू और उनके दोस्त बच्चों ने बहुत समझाया पर वह मानी ही नहीं। हार कर लट्टू बोला, “ठीक है मेरी माँ, ले चलूँगा घुमाने, अब तो खुश!” डोरी तो खुशी से मचलने लगी। दोस्त बच्चों ने उन्हें सीख दी-
एक बोला, “रास्ते के किनारे-किनारे चलना।”
दूसरा बोला, “शहर में गाड़ियों की बड़ी भीड़ रहती है, ध्यान से चलना।”
तीसरा बोला, “ अंजान आदमियों पर भरोसा मत करना, कोई उठा कर ले जाएगा।” इस पर सारे बच्चे खिलखिला कर हँस पड़े। गाँव की बाहरी सीमा तक सभी लट्टू और डोरी को छोडने आए। अब आगे का सफर दोनों को ही तय करना था। सब बच्चों ने हाथ हिला कर उन्हें विदाई दी। “जल्दी लौट कर आना, हम तुम्हारा इंतज़ार करेंगे,” कहते हुए बच्चे गाँव को लौट गए।
डोरी ने लट्टू पर लपेट कसी और ज़ोर से झटके से अलग हो गई। लट्टू नाचता हुआ आगे को बढ़ गया। डोरी चिल्लाई, “अरे मैं तो पीछे ही रह गई, मुझे भी तो साथ लेकर चल।” लट्टू घूमता हुआ पीछे को आया और बोला, “देख, ऐसे तो तू हमेशा पीछे रह जाएगी। तू ऐसे कर कि मुझसे अलग होते समय मेरे कंधों पर बैठ जाया कर, फिर मैं आगे जाऊँगा तो तू भी मेरे साथ ही होगी।” डोरी खुशी से खिल उठी। इस बार डोरी ने लट्टू की गोल-गोल धारियों में खुद को फँसाया और झटके से अलग होकर लट्टू के कंधों पर जा चढ़ी। लट्टू नाचता हुआ आगे बढ़ने लगा। डोरी ज़ोर से चिल्लाई, “वाह! मज़ा आ गया!” इस तरह लट्टू और डोरी अपनी यात्रा पर निकल पड़े। डोरी ने कहा, “कितना अच्छा लग रहा है। मैंने ये जगहें तो देखी ही नहीं थी।... अरे वो देख, कितनी सारी भेड़ें जा रही हैं!” लट्टू बोला, “हाँ-हाँ, भेड़ें घर को लौट रही हैं। शाम हो रही है। थोड़ी देर बाद रात हो जाएगी, फिर अँधेरे में रास्ता भी नहीं दिखेगा।” अँधेरा होने से पहले-पहले लट्टू शहर पहुँच जाना चाहता था। उसने डोरी से थोड़ा तेज़ लपेट फैंकने को कहा। डोरी ने पूरी ताकत लगाकर लपेट फैंकी और फिर से लपक कर लट्टू के कंधों पर सवार हो गई। लट्टू तेज़ी से शहर के रास्ते चल दिया। लट्टू को जोश दिलाने के लिए डोरी गाना गाने लगी-

तेज़ तेज़ तू चल मेरे लट्टू
तेज़ तेज़ ही चलता जा।
दाएँ-बाएँ देख ज़रा ना
आगे-आगे बढ़ता जा।

गाँव के पीपल का तू पोता
धरती माता का तू वीर।
तीखी नोक नुकीली तेरी
हर बाधा को देती चीर।

रात अँधेरी आ पहुँची है
आगे तेज़ निकलता जा।
तेज़ तेज़ तू चल मेरे लट्टू
तेज़ तेज़ ही चलता जा।

तेज़ तेज़ तू चल मेरे लट्टू
तेज़ तेज़ ही चलता जा।

गाना सुनकर सच में लट्टू को भी जोश आ गया। लट्टू ने अपनी गति बढ़ाई और तेज़ी से भागने लगा।
“अरे-अरे ज़्यादा जोश में कहीं मुझे गिरा मत देना,” डोरी बोली।
“अब तू थोड़ी देर चुपचाप बैठी रह, और हाँ मुझे कस के पकड़ लेना,” लट्टू ने कहा। रात का अँधेरा चारों ओर छाने लगा था। तभी लट्टू ने डोरी को दूर चमकती रौशनियाँ दिखाईं। “ये क्या हैं!” डोरी ने आश्चर्य से पूछा। लट्टू ने हँसकर कहा, “ये शहर की रौशनियाँ हैं। रात भर शहर ऐसे ही जगमगाता है। अपने गाँव की तरह नहीं कि शाम होते ही अँधेरा घुप्प!” डोरी की आँखें फटी की फटी रह गईं। “रात भर इतनी रौशनी रहती है शहर में!” डोरी इतना ही बोल पाई। गाँव की रेतीली पगडंडी कब की खत्म हो चुकी थी। उसकी जगह शहर की चौड़ी-चौड़ी सड़कों ने ले ली थी। सड़क के बीचोंबीच थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बिजली के खंभे लगे थे। खंभों पर बहुत बड़ी दूधिया लाइटें जगमगा रहा थीं। लट्टू अब चलते-चलते थक गया था। “आज रात यहीं आराम करेंगे,” लट्टू ने डोरी से कहा और दोनों सड़क से नीचे उतर एक नाले के किनारे टिक गए। सड़क पर तेज़ आवाज़ करते हुए गाडियाँ आ-जा रही थीं। डोरी बोली, “राम जाने शहर के लोग इतने शोर में रहते कैसे होंगे!” लट्टू उबासी लेते हुए बोला, “अरे आदत पड़ गई है यहाँ के लोगों को, अब इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। तू भी सोने की कोशिश कर, कल सुबह आगे चलेंगे। मुझे तो थकान के मारे नींद आ रही है।” “नींद तो मुझे भी आ रही है पर यहाँ बदबू कितनी है! ढंग से साँस भी नहीं ले पा रही हूँ, डोरी ने कहा। लट्टू गुस्से में झुँझलाता हुआ बोला, “अब तू सो जा। और तू नहीं सोती है तो मत सो, कम से कम मुझे तो सोने दे।” थोड़ी देर में दोनों कह-सुन कर जैसे-तैसे सो गए। सुबह की नर्म-नर्म धूप जब आँखों पर पड़ी तो दोनों उठे। पास की सड़क पर गाड़ियों की आवाजाही शुरू हो गई थी। कोई-कोई बड़ी गाडियाँ बच्चों से भरी हुई जा रही थीं। हँसते-खिलखिलाते बच्चों को देख कर लट्टू और डोरी दोनों बहुत खुश हुए। पर इन बच्चों और गाँव के बच्चों में फर्क था। ये ज़्यादा चमकदार और सुंदर कपड़े पहने हुए, सजे-धजे लग रहे थे जबकि गाँव के बच्चे साधारण कपड़े पहनने वाले थे। वहाँ तो कई बच्चे फटे पुराने कपड़े भी पहने रहते थे। आलस मरोड़ते हुए लट्टू बोला, “अब चलते हैं थोड़ा और आगे।” डोरी तो तैयार ही बैठी थी। दोनों फिर उसी तरह आगे बढ़ गए। लट्टू के कंधों पर सवार डोरी शहर को देख रही थी। सड़क के पास से ही कुछ छोटे रास्ते अलग हो रहे थे। वे रास्ते आगे जाकर बड़े-बड़े मकानों की ओर जाते थे। लट्टू धीरे-धीरे ही आगे बढ़ रहा था ताकि वे दोनों शहर को आराम से देख सकें। जहाँ तक नज़र जाती वहाँ तक मकान, दुकान, बाज़ार, गाड़ियों की लाइन, लोगों की भीड़ दिखाई देती थी। डोरी बोली, “बाप रे! इतने शोर-शराबे और भीड़-भाड़ में रहकर तो कोई पागल ही हो जाए! इससे तो अपना गाँव ही भला!” “ऐसी बात भी नहीं है डोरी, नहीं तो गाँव से इतने सारे लोग शहर क्यों आते! याद नहीं, मोहन के पिता जी ने शहर में आकर दुकान खोली और कुछ सालों में ही कितना बड़ा मकान बना लिया है,” लट्टू ने कहा। दोनों इसी तरह बातें करते हुए शहर को देखते हुए आगे जा रहे थे कि तभी डोरी की नज़र सड़क से लगी एक दुकान पर पड़ी। एक होटल के बाहर नल पर खूब सारे गंदे बर्तनों के ढेर के बीच एक बच्चा बैठा उन्हें साफ कर रहा था। “यह तो अपना चंदर है,” डोरी के मुँह से निकला। लट्टू ने नज़र घुमा कर देखा तो सच में वह चंदर ही था। “अरे! चंदर यहाँ क्या कर रहा है,” लट्टू बोला। “क्यों, याद नहीं, पिछले साल पाँचवी पास करने के बाद इसने स्कूल छोड़ दी थी और शहर काम करने आ गया था,” डोरी ने कहा। “अच्छा तो यहाँ काम करता है चंदर! पैसा भी खूब मिलता होगा! याद है ना, जब होली पर गाँव आया था तो सब बच्चों पर कैसा रौब झाड़ रहा था,” लट्टू ने कहा। वे दोनों बातें कर ही रहे थे तभी उन्होने देखा कि एक मोटा और बहुत लंबा आदमी वहाँ आया और एक जोरदार लात चंदर को मार कर चिल्लाया, “रात को बिना बर्तन साफ किए ही सो गया और अब काम करने में मौत आ रही है, जल्दी साफ कर सारे बर्तन।” उसकी लात से चंदर बर्तनों पर ही लुढ़क गया और रोते-रोते बोला, “रात को देर तक तो काम करता रहा, मेरे लिए खाना भी नहीं बचा, बस थोड़ी-सी सब्जी खाई। थकान इतनी हो गई थी कि वहीं नींद आ गई, इसलिए बर्तन साफ करना भूल गया।” वह आदमी गुस्से से लाल-पीला होकर फिर चिल्लाया, “मुझसे ज़ुबान लड़ाता है! ...काम करना है तो ढंग से कर, नहीं तो चलता बन, बहुत आते हैं तेरे जैसे यहाँ।” ऐसा कहकर दाँत पीसता हुआ वह आदमी वहाँ से चला गया। लट्टू ने जब देखा कि आसपास कोई नहीं है तो डोरी से फुसफुसा कर बोला, “एक लपेट देकर घुमा, हम लोग चंदर के पास चलते हैं।” घूमते हुए दोनों चंदर के पास जा पहुँचे। चंदर के हाथ साबुन के झाग में भरे हुए थे और वह रोता-रोता बर्तन धो रहा था। जैसे ही चंदर की नज़र लट्टू और डोरी पर पड़ी, वह रोना छोड़ अचानक बोल पड़ा, “अरे लट्टू और डोरी, तुम लोग यहाँ कैसे पहुँचे!” साबुन भरे हाथों को धोकर उसने लट्टू और डोरी को उठाया और एक ओर चल दिया। लट्टू धीरे-से बोला, “चंदर भैया, तुम्हारे ज़्यादा लगी तो नहीं! ...वह आदमी क्या इसी तरह तुम्हें रोज़ मारता है!” चंदर बोला, “अब क्या बताऊँ, पिताजी के अचानक बीमार हो जाने से घर की हालत बहुत खराब हो गई थी। इसलिए सोचा कि कुछ पैसे कमा कर घर वालों की मदद करूँगा और शहर चला आया। पर यहाँ तो बहुत तकलीफ है। थोड़ा-सा काम गलत हो जाने पर पैसे काट लेते हैं, मारपीट अलग से होती है।” डोरी ने गुस्से में कहा, “तो तुम ये काम छोड़ क्यों नहीं देते! इससे तो अच्छा गाँव में रहकर ही कुछ काम करो। इससे तुम्हारी स्कूल भी नहीं छूटेगी।” तभी उस मोटे आदमी की आवाज़ आई, “अरे ओ छोटू, जल्दी बर्तन साफ कर के ला।” डोरी ज़िद पकड़ कर बैठ गई कि चंदर को अभी ही ये काम छोड़ कर उनके साथ गाँव लौटना होगा। चंदर बोला, “तुम उस राक्षस को जानते नहीं हो, अगर मैंने जाने की बात की तो वह मुझे पीट-पीट कर अधमरा कर देगा।” लट्टू बोला, “तो उसे बताते ही क्यों हो, ऐसे ही भाग चलो!” “पर मेरे पैसे अंदर अलमारी में रखे हैं, उनको कैसे छोड़ दूँ,” चंदर दुखी मन से बोला। ये भी सही है। “चंदर ने बहुत मेहनत से पैसे कमाए हैं, उनको छोड़ना तो ठीक नहीं,” डोरी ने चंदर का साथ देते हुए कहा। लट्टू ने तरकीब सुझाई। तीनों ने एक योजना बनाई। चंदर ने डोरी को तो जेब में डाला और बर्तनों का ढेर उठा कर अंदर की ओर चला। जाते समय उसने जेब से लट्टू को निकाल कर उस मोटे के पैरों के आगे लुढ़का दिया। अंदर जाकर चंदर ने अलमारी खोल कर अपने पैसे निकाले। वही हुआ जिसका डर था। अलमारी की आवाज़ सुनते ही मोटा लपक कर अंदर की ओर बढ़ा और उसका पैर गिरा लट्टू की कील पर। लट्टू की तरकीब काम कर गई। “ओ माँ, मर गया रे, अरे मेरे पैर में ये क्या चुभ गया ...देखो कितना खून निकल रहा है ...अरे कहाँ मर गए सब लोग,” मोटा हाय-हाय करके चिल्लाता हुआ धप्प-से वहीं बैठ गया। इसी भागदौड़ का फायदा उठा कर चंदर भागा हुआ आया और लट्टू को उठा ये जा-वो जा। भागते-भागते उसने सड़क पार की और गाँव की पगडंडी पर पहुँच कर वहीं ज़मीन पर चित्त लेट गया। फिर तीनों खिलखिला कर हँस पड़े। चंदर बोला, “दोस्तो, आज तुम्हारी वजह से मुझे हिम्मत मिली और मैं उस जेल से आज़ाद हो पाया।” लट्टू मुस्कराता हुआ बोला, “खुश तो हम दोनों भी बहुत हैं पर पूरी खुशी तो मुझे नाच कर ही मिलेगी।” चंदर ने डोरी को लट्टू पर लपेट एक झटके से लट्टू को हवा में उछाल अपनी हथेली पर ले लिया। लट्टू चंदर की हथेली पर इतराता हुआ नाच रहा था। तीनों दोस्त गाँव की ओर बढ़ चले। डोरी खुशी में झूमती हुई गाने लगी-

हम हैं कमाल के मेरे भैया, हम हैं कमाल के,
चक्कर को घनचक्कर करदें, रस्ता निकाल के।
हम हैं कमाल के।।

मोटा सेठ बहुत गंदा था, बच्चों को दुख देता था,
अच्छा सबक सिखाया उसको, धरती पे डाल के।
हम हैं कमाल के।।

गाँव हमारा सबसे प्यारा, चलें उसी की ओर,
लट्टू और डोरी की बातें, रखना सँभाल के।
हम हैं कमाल के।।

हम हैं कमाल के मेरे भैया, हम हैं कमाल के,
चक्कर को घनचक्कर करदें, रस्ता निकाल के।
हम हैं कमाल के।।
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