राजस्थानी कविता-संग्रह
अंधारे री उधारी अर रीसाणो
चाँद
कवयित्री- मोनिका
गौड़ (बीकानेर)
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संवेदनाओं के ह्रास के इस दौर में व्यक्ति, परिवार और समाज सभी
अपने-अपने स्तर पर विसंगतियों व विद्रूपताओं से घिरे दुख, तकलीफ और समस्याओं से
छटपटाते रहते हैं। इसी में से गुजरते हुए मोनिका अपनी कविता में न केवल
इस पर टिप्पणी करती हैं बल्कि इसकी पड़ताल भी करती हैं।
51 कविताओं
के इस संग्रह में मोनिका चहुंदिश फैले अंधेरे को न केवल टटोलती हैं बल्कि उसमें
छटपटाते जीवन को शब्द देती हैं,
सवाल भी खड़े करती हैं और यहाँ तक कि सवालों की उग्रता और उससे उपजे
गहन आक्रोश के चलते पूरे समाज तक को कटघरे में खड़ा कर देती हैं। संग्रह की पहली ही
कविता 'मन बेताळ' में ये तेवर नज़र आते हैं
जिसमें वे कहती हैं-
बोल विक्रम, बता
विक्रम
कै फौलाद सूं जद बण सकती ही हळ री फाळ
तो दुनाळियां कुण घड़ी?
मानखै ने मानखै सूं डरण री जरूरत क्यूँ पड़ी?
कारतूस रै खोळ रा दागीना क्यूँ नी बणवाओ
टैंक सूं टाबरिया नै स्कूल क्यूँ नी पूगाओ?
इसी तरह अंधेरा जब निराशा को गहरा कर देता है तो वे खुशी के राग उकेरने में खुद को असमर्थ पाती हैं और अपनी कविता 'चेतना री चौघट मनभावण राग' के माध्यम से कहती हैं-
उफणती छातियाँ में
बसबसीजती रूह
समाजू रीताँ
अर संस्काराँ रो
भारियो ऊंच्यां,
आयठण हुवती जूण
खदबदे चेतना री चौघट,
तद किण ढाळे उगेरूँ राग
कै रचूँ कविता?
‘खेत-स्क्रैप’, ‘जींवतो-जागतो खतरो’, ‘भाजती
जूण’ और ऐसी ही कई कविताओं में मोनिका बढ़ते बाज़ार की चपेट
में आए मनुष्य और समाज की दुर्दशा को अलग-अलग कोणों से रेखांकित करती हैं। इनकी
कविता पूरी तरह राजस्थानी लोक-रंग में रची-बसी है। लोक प्रचलित खेल और उनसे जुड़े
खेल-गीत भी विविध प्रतीक और बिम्ब रचते हुए इनकी अभिव्यक्ति को माटी की सुगंध और
सम्प्रेषण-सहजता प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए कविता ‘भाजती
जूण’ में ‘ठोकरां रुळतो जमीर / बण्यो
रैवै सतोळियै रो भाटो... या फिर कविता ‘कठै
गयो पाणी’ में खेल-गीत के माध्यम से मनुष्य के भीतर के पानी
के सूखने को इंगित करती पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
सात समंदर गोपी चंदर
बोल म्हारी मछली
कितरो पाणी?
जोव म्हारी मछली
कठै गयो पाणी?
उतरग्यो पाणी
रैयगी कहाणी
कांई बताऊँ
कितरो पाणी
कठै गयो पाणी!
संग्रह दो खंडों में बँटा हुआ है- ‘मन बेताळ’ और ‘पड़छियाँ विहूणी जूण’।
दूसरे खंड में 18 कविताएँ हैं और वे सभी नारी को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं।
गांधारी और अहिल्या जैसे पौराणिक पात्रों की पीड़ा को समसामयिक दृष्टि देते हुए
मोनिका अपनी कविता में स्त्री को पुरुष सत्ता की अधीनता से मुक्त करने का विचार
पूरे दमखम से रखती हैं और तब वे कहती हैं-
नीं
जोवूंला बाट किणी राम री
म्हारी
मुगती सारू
अहल्या
प्रगटसी
मतोमत
आपरै भीतर सूं
ज्यूँ
चट्टाणां मुळकै पुहुप
मांयले
राम पाण।
एक कविता जो भाव के स्तर
पर बहुत महीन बुनावट लिए हुए है वो है- ‘प्रेम’। प्रेम
ऐसी अबूझ पहेली है जिसे हल करने के लिए जाने कितने काव्य रचे गए, पर रहा तब भी वह एक पहेली ही। यह कविता अपने ढंग से प्रेम को परिभाषित
करती है और पूरे अधिकार से कहूँगा कि यही मोनिका की कविता का आधार स्वर है-
पण समझलो म्हारा मीत
प्रेम हक, तोल, जाप, मात्रा सूं नीं
सहजता सूं मिलैला
थे
हो जाओ स्त्री निछळ,
प्रेम
आपो-आप आ जासी
पण
सरल नीं है, स्त्री होवणो...।
“स्त्री होना ही प्रेम में
होना है,” जैसी उक्ति एक ओर जहाँ प्रेम के रहस्य को उद्घाटित करती है तो वहीं
दूसरी ओर स्त्री को बहुत बड़े धरातल पर स्थापित करती है क्योंकि समूची सृष्टि ही
प्रेम का अनुनाद है और प्रेम स्त्री का पर्याय। इस तरह यह कविता मोनिका के काव्य
सृजन का उत्कृष्ट उदाहरण बन जाती है।
ठीक
इसी तरह की एक अन्य कविता है- ‘म्हैं पीपळ हूँ’। इस कविता में पीपल के पेड़ से जुड़ी लोक आस्थाओं,
अपेक्षाओं और कामनाओं को समाज में स्त्री की बंदी-व्यथा और पुरुष-प्रधान समाज
द्वारा स्त्री को पावन, महान और देवी की प्रतिमा बताने के छल
की तरह प्रकट किया गया है। प्रतीक-विधान बहुत सुंदर और अपने आप में अनूठा है।
कविता बात शुरू करती है पीपल के पेड़ से और अंत में दिखाई पड़ती है स्त्री। पीपल का
पेड़ कहता है-
म्हारी खुली बांवां उचक ’र
परसणों चावै आभो
म्हैं बाथां में भरणो
चावूँ
पूनम रो चाँद
म्हैं थाकग्यो हूँ जुगाँ
सूं
महानता रो बोझो उखण्यां
आजाद करदो म्हनैं
थारी कामनावां, सुपना, आस्थावां अर निष्ठावां सूं
म्हैं पीपल हूँ, स्त्री
नीं होवणों चावूँ...।
अपनी
कविताओं में मोनिका ने आज के समय को रेखांकित किया है और सोशल मीडिया, टीवी चैनल्स और राजनीति के कुचक्रों में फँसे एक आभासी जीवन जीते समाज को
तो दर्शाया ही है साथ ही ‘सागी सियाळिया’, ‘घाणी अर लोक’, ‘पांगळो तंत्र’ जैसी कविताओं
में चित्रण किया है लोकतन्त्र की दुर्दशा का और अपाहिज शासन
तंत्र को धिक्कारा भी है। ‘दिल्ली री सड़कां’, ‘रूप बदळतो डर’ कविताएं उस भय
का बयान है जो आज देश के हर कोने में हर रोज हो रहे लड़कियों,
औरतों के साथ बलात्कार के कारण चहुं ओर व्यापा हुआ है। बालिका शिक्षा और नारी के
समान अधिकारों के झंडे और नारे हर जगह बुलंद होते रहते हैं पर आज देश की आजादी के
72 साल बीत जाने पर भी क्या हम, ये समाज, हमारी कानून व्यवस्था स्त्री-सुरक्षा को लेकर सच में कुछ पुख्ता इंतजाम
कर पाई है, यह बहुत बड़ा सवाल है और साथ ही शर्मिंदगी का कारण
भी।
मोनिका
गौड़ के अब तक 4 कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं- दो हिन्दी के और दो राजस्थानी के।
यह तीसरा राजस्थानी कविता-संग्रह है। सन 1995 में इनका पहला हिन्दी कविता-संग्रह प्रकाशित
हुआ था। तब से लेकर अब तक मोनिका की कविता निरंतर परिपक्व और सघन संवेदना से परिपूर्ण
होती चली गई है। शायद इसी लिए वे कविता में मात्र रूमानियत की पक्षधर नहीं हैं। कविता
लोक-चेतना का स्वर बन कर उभरे इसी की कोशिश और इसी की हिमायत इनका सृजन-संसार है। प्रेम
और रोमांस के सर्वप्रिय और बहुप्रचलित प्रतीक चंद्रमा को भी ये नाराज कर देती हैं, वो आना चाहता है इनकी कविता में, पर ये कह देती हैं-
म्हारी कविता में आवण सारू
थांने
बळणो पड़सी
तपणो-सुळगणो
पड़सी
कांई
थे हुय सकोला लाल
सुळझाय
सकोला भूख रा सवाल?
म्हारी
कलम फगत
साच
रो रूमान रचै है
इणी
सारूँ लोगाँ रै चुभै है।
केटी
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(पुस्तक
ज्योति पब्लिकेशन्स, बीकानेर से प्रकाशित है)
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