वो विदा का पल नहीं था
क्या हुआ जो तुम्हारी ऑंख नम थी
या कंठ था भरा हुआ
या कंपकंपाते होंठ कह रहे थे अनकही
या कि थम-से गए थे वे मुहुर्त
विदा इस तरह तो नहीं आती होगी
फिर क्या हुआ ऐसा कि हम-तुम
साॅंस रोके चल पड़े थे उस घड़ी!
जानती हो आ गए हैं दूर कितने
पल-प्रतिपल बढ़ रहा है फासला
देर तक सूरज निकलता ही नहीं
भोर रूठी छुप गई किस ठौर जाने
काश हम फिर लौट पाएं उन पलों में
बदल डालें उस विदा के श्राप को
गर जो होता सहज इतना लौटना
लौट कर तुमको किसी दिन मैं दिखाता
वो विदा का पल नहीं था
था नहीं, बिल्कुल नहीं था
वो विदा का पल नहीं था।
केटी
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