चीख भी कंठ के तंतुओं में उलझ
बदल जाती अश्रु झरती उच्छ्वास में
तैरती रहती पृथ्वी के सभी ऊपरी मंडलों पर
पाने को ठौर, रहने को ठिकाना।
युगों युगों की चिर प्रतीक्षा
वरदान बन देती उस चीख को चेतना का अंश
या कि अभिशप्त कर छोड़ देती उसे
पीड़ा के मर्म को गाने के लिए
चीख का इकतारा बजाने के लिए।
दोस्त मेरे!
यूॅं ही नहीं जन्म लेता है कवि कोई
पीड़ा चरम पर पहुंच
स्वयं होती रूपांतरित मनुज रूप में।
केटी
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