छोटे दुखों का बयां
अक्सर छोटी कविताओं में नहीं हो पाता।
छोटे दुख बड़े अजीब होते हैं,
जैसे, "सुबह से उसने बात ही नहीं की!"
या कि, "मैं आया तब तक उसने खाना खा लिया!"
या , "वो मेरी तरह क्यों नहीं सोचती!"
या फिर, "मैं उसे फ़ोन करना भूल क्यों गया!"
ऐसे जाने कितने छोटे दुख 'क्यों','क्यों नहीं', में लिपटे रहते हैं।
उतरने को होते हैं जब ये कविता में
पसर जाती हैं पंक्तियां, फैल जाते हैं वाक्य,
जैसे कोई पक्के रागों का गायक देर तक लेता रहता है आलाप
बिखेरता रहता है 'मा पा धा नी सा' की आवृत्तियां,
तब कहीं शुरू कर पाता है राग के बोल।
छोटे दुखों का बयां
कविता में बड़ा ही दुरूह है मेरे दोस्त!
पंक्तियां उलझती जाती हैं एक दूजे में
और वो बित्ता-सा दुख
दूर छिटका खड़ा मुस्कुराता रहता है
किसी शरारती बच्चे की तरह।
केटी
****
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें