काॅपी का एक बहुत पुराना पन्ना,
पन्ने पर बहुत धुंधला-सा एक रेखाचित्र।
रेखाचित्र तो वो सिर्फ उसे दिखता था
लोगों के लिए थीं कुछ आधी-अधूरी रेखाएं,
रेखाएं, जो कि खो चुकी थीं अपना मूल आकार।
जाने कितनी बार उन्हें मिटा कर साफ़ कर देने की कोशिश की,
हर बार जितना ज़्यादा ज़ोर लगाया
दर्ज हो गई उतनी ही बार अगले पन्ने पर।
हो गई कुछ और ज्यादा धुंधली, कुछ और ज्यादा आकारहीन,
किन्तु मिटी नहीं, मिटती ही नहीं।
लगता है काॅपी फट जाने पर भी बनी रहेंगी ये,
जैसे कामनाएं पीले जंगली फूल बन उग आती हैं कब्र पर।
केटी
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