शुक्रवार, 31 मई 2019

कलुआ की क्रांति-कविता (तीसरा भाग- चक्रव्यूह भेदन)

आसान होता है समंदर में उतर जाना
तब तक, जब तक कि ना हो सामना तूफान से।
ढोल, नगाड़े, शंख, तुरही के स्वर
करते आकर्षित सहज ही
किसी को भी रणभूमि में।
क्रांति के इस समर में कूद तो गया था कलुआ
पर अब था भयभीत
सामने खड़े थे चक्रव्यूह
सपनों का अंत निकट था।
कितना अद्भुत था वो दृश्य
क्रांति-योद्धा दिखा रहे थे जौहर
अलग-अलग दल बनाकर।
ये 'अ-वादी', ये 'ब-वादी', ये 'स-वादी', ये 'द-वादी'
कोई प्रति-वादी तो कोई निर्वादी
क्रांति भी थी खाँचों में बँटी हुई।
कलुए ने भरी हुंकार
सहम गई दिशाएँ
बिखर गए चारों ओर शब्द ही शब्द।
कुछ दलों ने किए आघात
कुछ ने अपनाया, कुछ ने सहलाया
जम रहे थे अब कलुआ के कदम।
लड़ने चलते हैं जो शोषण से
जाने कब लड़ने लग जाते हैं आपस में
बन जाते हैं खुद शोषण के यंत्र।
कविता से झरते हैं जिनके प्रेम के फूल
मन की बगिया उनकी
होती जर्जर नफरत से।

केटी
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