रात भर खाँसती बीमार माँ को
नहीं ले जा सका अस्पताल
चौथे दिन भी।
जवान होती सुशीला के
फटे-उधड़े कपड़ों से झाँकते शरीर को
नहीं ढक पाया नए कपड़े लाकर
महीना बीत जाने तक भी।
जगह-जगह से जंग खाए
टीन के छप्पर को
नहीं बदल पाया
इस बरसात के आने तक भी।
नजर चुराने लगा
जब घर के चूल्हे-चौके से,
कतराने लगा जब
बीवी की आँखों में उगे प्रश्नों से;
उसी रात हीरा के ठेके पर
चढ़ा कर देशी दारू का अद्धा
लात मार कर सामने पड़े स्टूल को
लाल हुई आँखों को मसल
कलुआ जोर से चिल्लाया
अब नहीं चलेगा ये
बदल डालूंगा सब कुछ।
दनदनाता हुआ डोलने लगा गलियों में
दूर....बहुत दूर फैंक डाले छैनी-हथौड़े
डूब गया क्रान्ति में
उसी रात कलवा कवि हो गया।
केटी
****
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें