वो लड़की
जो दोनों हाथों को गोल कर
कैद कर लेती थी सूरज को,
मचल कर गर्दन घुमा
मुसकराहटों के कई सारे बंद लिफाफे
बिखेर देती थी फिजाँ में,
निचले होठ को लापरवाही से आधा दबा
'च्च' की ध्वनि करते हुए
आँखों की पुतलियों को फैला लेती
आकाश-सा,
अक्सर झाँकते हुए मेरे मन के दरीचों में,
कहकर भाग उठती है कि ढूँढो तो,
मैं कहाँ हूँ।
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