मन की धारा ...... जैसी भी बह निकली ...... कुछ कविताएं, कुछ कहानियाँ, कुछ नाटक ........ जो कुछ भी बन गया ........ मुझे भीतर तक शीतल कर गया ......
बस यूँ ही पुकारते पुकारते
बन गई मैं जाने कब,
जाने कैसे स्वयं एक पुकार।
बचा ही नहीं कुछ
प्राण थे, प्यास थी और थी पुकार।
अब आओ या न आओ
कोई अंतर न पड़ेगा रसिया।
शायद जानती नहीं थी मैं
प्राणों का पुकार बन जाना ही
तुझमें समा जाना है।
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