गारे और गोबर से लिपे
सख्त और खरखरे आँगन में
पड़ती है जब बारिश की दूसरी फुहार,
रंग बदल जाता है आँगन का
निकल आते हैं कोमल हरियाले पात
जाने कहाँ से!
चूते हुए छप्पर में
बचाते हुए खुद को फुहार से
देखता रहता हूँ मैं आँगन को,
किलकते, लहराते बूँद बूँद पी जाने को व्याकुल
उन हरियाले शिशुओं को,
बेखबर हैं जो इस बात से
कि निकलते ही धूप उखाड़ फेंकेगी इन्हें सुखिया ताई।
क्षण का आनंद क्षणजीवी ही जाने!
आकंठ आनंद में डूबते हुए देखना किसी को
भर देता है कितना आनंद
कर देता है मन का आँगन हरा
ठुमकने लगता है एक हरियल शिशु
मन के आँगन पर।
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