जैसा मुझे लगता है
वैसा तुम्हें भी लगता है क्या,
खुद से बोलते बोलते
थक कर मूक हो जाना
या फिर जैसे कि शब्द चुक गए हों।
शून्य में देखना ऐसे
जैसे मेले में खोया बालक
सिसकता हुआ देखता है भीड़ को
बहुत देर रोने के बाद।
जीवन छंदहीन कविता की तरह
रूबरू कराता शब्दों से
जो कभी कभी मजाक जान पड़ते हैं।
अल्ल सुबह से देर रात तक
रक्त में कुछ चलता है
छूता है एक एक धमनी एक एक शिरा को,
सोने जा रही ग्रन्थियों को जगाता है रोकता है
सुनो! देखो मैं यहीं हूँ।
सी-साॅ झूले पर बैठे बच्चे
एक पल के लिए पाते हैं समान तल
वरना एक ऊपर तो एक नीचे,
तब भी जुड़ाव तो रहता ही है सदा।
ये जुड़ाव, रक्त की अनचीह्नी आवाज,
शब्दों का चुक जाना-
तुम्हें भी लगता है क्या
जैसा मुझे लगता है।
--------------------------------
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें