परत दर परत
खुलती हैं हथेलियाँ
कहीं घिसी हुई लकीरें
बयाँ करती हैं पहाड़-सी जिंदगी से टकराने का दर्द
कहीं प्रीतम की प्रतीक्षा में
आंसुओं को पोंछ कर नम हुई हथेलियाँ
कहीं हर बार हार जाने के बाद
मन मसोस कर
एक दूसरे को मलती हुई हथेलियाँ
फिर भी उठती हैं जब भी किसी की ओर
देती हैं तसल्ली,
बनती हैं सहारा
हथेलियाँ नहीं
दुआओं की जादुई पोटली हैं ये।
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