मन की धारा ...... जैसी भी बह निकली ...... कुछ कविताएं, कुछ कहानियाँ, कुछ नाटक ........ जो कुछ भी बन गया ........ मुझे भीतर तक शीतल कर गया ......
मैंने कहा तुम गलत हो
तुमने कहा मैं गलत हूँ
फिर दोनों ने कहा वे गलत हैं
उन्होंने कहा वे सब गलत हैं
एक ही शोर- चहुँ ओर।
खुद को सही कहने में
हो गए हम सब गलत।
इस गोल धरती पर
सीधे खड़े कैसे रहें बाबा...!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें