बुधवार, 22 अगस्त 2018

प्रेम, अवनि और वातायन

पुस्तक-चर्चा
**********
कविता-संग्रह- प्रेम, अवनि और वातायन (मूल्य : 150 रु.)
रचनाकार- सुनीता गोदारा
**********
मन की यायावरी खोलती है तीसरा वातायन...
------------------------------------------------
हर संवेदनशील मन पहले पहल प्रेम और फिर प्रेम के ज़रिए प्रकृति को पकड़ता है, गहरे में महसूसता है और उसके विचलनों को सृजनशीलता के बहुविध आयामों से अभिव्यक्त करता है। प्रेम वैयक्तिक रिश्तों से होता हुआ परिवार और परिवेश तक फैलता है और शनै शनै उसकी छाया प्रकृति के हर रंग में प्रतिबिम्बित होती दिखाई देती है। अभिव्यक्ति प्रेम से प्रकृति तक प्रकृति से प्रेम तक वर्तुलाकार पथ में चलती रहती है। 
किन्तु मन की यायावरी और आसपास घट रहे पलों के प्रति गहरी सजगता संवेदनशील मन को इस वर्तुल से बाहर धकेलती है और ठीक उसी ठौर से वह जीवन के बहुष्कोणीय प्रिज्म को देखने समझने का प्रयत्न करने लगता है। यही प्रयत्न एक तीसरा वातायन खोलता है जहाँ से वह घट रहे हर पल की निगरानी करने लगता है और उन्हें पकड़ते हुए अभिव्यक्ति भी देता है। 
सुनीता गोदारा के काव्य-संग्रह 'प्रेम, अवनि और वातायन' का तीसरा और अंतिम खंड है- 'तीसरा वातायन'। इसमें छोटी-बड़ी 48 कविताएँ हैं। इस संग्रह में संग्रहीत कविताओं में सुनीता ने जीवन के फलसफे और क्रियाकलापों के मनोवैज्ञानिक आधार को पकड़ने की कोशिश की है-

उजाले में भी अँधेरे की
इक लकीर होती है
कोई बूझ नहीं पाता
उस अँधेरे का राज़
कोई ढूँढ़ नहीं पाता
अँधेरे की उस प्यारी-सी लकीर को
पहचान नहीं पाता। 

इसी तरह दृश्य और अदृश्य, परिचित और अंजान के बीच पड़ने की छटपटाहट है इन कविताओं में। कभी उदासी घेरती है, तो कभी खुद ही दिलासा देते हुए कहती हैं-

एक उम्मीद ही काफी है
ज़िंदादिली के लिए
मुश्किलों भरा दौर है यह
अगर वो वक़्त ना रहा
तो ये वक़्त भी बीत जाएगा। 

इस खंड की कविताओं में विषय-वैविध्य देखने को मिलता है। तीसरे वातायन से सुनीता एक समग्र दृष्टि से स्त्री को बेटी, पत्नी और माँ तीनों भूमिकाओं में देखते हुए हर एक को उसके वैशिष्ट्य में अभिव्यक्त करती हैं-

समझती हूँ मैं मेरी बिटिया रानी
गुज़र रही हो
आज तुम उसी दौर से 
मैं भी जिससे रूबरू हुई थी
पच्चीस साल पहले। 

इसी तरह माँ पर लिखी एक लंबी कविता में सुनीता माँ के माध्यम से स्त्री के उन प्रश्नों के उत्तर खोजती हैं जिन्हें स्त्री कभी पूछ ही नहीं पाती और वे अबोले प्रश्न उसके व्यक्तित्व का रहस्यमयी अबोलापन बन के रह जाते हैं-

माँ
क्या देख रही हो
सूनी पगडंडियों पर!
दूर तक दौड़ाती
अपनी निगाहों से 
धोरों में अपनी पहचान 
खोज रही हो ना... माँ!

इस खंड की कविताओं में प्रेम की निरी भावुकता से ऊपर उठते हुए जीवन के ठोस व पथरीले यथार्थ से टकराने की कोशिश हुई है। इसी से जीवन-अनुभव के काव्य-अनुभव में बदलने का सिलसिला शुरू होता है। एक कविता में सुनीता स्वीकार करती हैं-

अनुभव
उम्र की शाखों पर लगा फल नहीं
अपितु
जिंदगी में खाई ठोकरों से मिला सबक
जीवन का तजुर्बा भी हो सकता है
और समझने का नजरिया भी। 

कुछ कविताओं में ऐसा लगता है कि कविता के मूल बिन्दु ने सुनीता को बहुत तेज़ी से अपनी और खींचा और उन्होंने उसे पूरा हृदयंगम करने से पहले ही कविता रच दी। फलत: बहुत कुछ छूट गया। यह ठीक ऐसा ही है जैसे कोई नयनाभिराम दृश्य देखते ही हमने तुरंत उसका फोटो खींच लिया पर जल्दबाज़ी में कैमरा हिल गया और फोटो कुछ अस्पष्ठ (blur) हो गया। पर इसे भी रचना-प्रक्रिया का एक अंग मानते हुए आने वाली कविताओं में सुनीता अपने पाठकों को और भी समृद्ध अनुभव दे पाएँगी, ऐसा मुझे विश्वास है। 
बालुई रेत के धोरों में उठते हुए 'बंतुलिए' (रेत के तूफान) जैसे सुनीता के मन का अनिवार्य अंग बन गए हैं। उन्हीं के साथ उड़ती रहती हैं उनकी संवेदनाएँ और रचती हैं कविताएँ-

बीहड़ में भी विचरण कर लेता
तो कभी
रेगिस्तान की लू भरी
आँधियों के साथ भी तपता
रे मन, तू भी कैसा यायावर है...!

केटी
***