शनिवार, 4 जनवरी 2020

बकरे की अम्मा


बकरे की अम्मा

हमेशा की तरह आज भी अल्लारखी चलते-चलते पीर बाबा की मजार के पास पहुँच कर रुक गई। उसने कनखियों से इधर-उधर देखा और फिर मजार के आगे सर झुका कर मिमियाने लगी। उसे हर वक़्त डर लगा रहता था। उसका बेटा रहमत कब अल्लाह को प्यारा हो जाए, वह नहीं जानती थी। पीर बाबा बड़े दयालु हैं, वे उसके दुख को ज़रूर समझेंगे; बस यही सोच कर वह हर रोज़ अपने बेटे की सलामती की दुआ माँगती थी। उसकी संगी-साथिनें अक्सर उसका मज़ाक उड़ाते हुए कहती थीं, “अरे बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी!” उसका दुख और बढ़ जाता।

अल्लारखी कासिम लोहार की बकरी थी। कासिम सुबह होते ही उसके गले की रस्सी खोल कर उसे बाड़े से बाहर निकाल देता। दिन भर वह गाँव के आसपास खेतों के किनारे चरती रहती और शाम होते होते बाड़े में पहुँच जाती। रहमत के पहले भी उसके दो बड़े भाई हुए, पर एक बकरीद पर कुर्बान हो गया और दूसरा कासिम के बड़े बेटे की सगाई की दावत की भैंट चढ़ गया। दोनों बार अल्लारखी बहुत रोई। दो दिन तक चारे का एक तिनका भी मुँह में नहीं लिया। किसी तरह से दिन कटने लगे। और फिर उसने रहमत को जन्म दिया। रहमत के आने से उसके जीवन में खुशी आ गई। अपने बेटे को प्यार से दुलारते-चाटते वह अपना सारा दुख भूल जाती थी। इधर कासिम के घर के सब लोग भी बहुत खुश थे। कासिम रहमत को गोद में उठा कर अपनी बीवी को आवाज़ देता, “अरी ओ नसीमन! देख तो क्या शानदार बकरा है! इसे खूब अच्छा खिलाया-पिलाया कर। अगली बकरीद तक तगड़ा हो जाएगा।“ ये सुन कर अल्लारखी के दिल पर अंगारे बरसने लग जाते। वह सोचती, “कैसे इंसान है! मेरे दो बच्चों को अपनी खुशी के लिए काट कर खा गए और अब तीसरे को भी खाने की सोच रहे हैं! इतना भी नहीं सोचते कि हमने हमेशा इसका दूध पिया है तो कम से कम इसके एक बच्चे को तो ज़िंदा छोड़ दें!” जब नसीमन रोज़ हरी हरी कच्ची घास रहमत के आगे डालती तो अल्लारखी समझ जाती कि यह सब अपने स्वार्थ के लिए कर रहे हैं। मन ही मन कुढ़ती पर अपना दुख किससे कहे! और फिर आखिर वह कर भी क्या सकती थी! ऐसे में पीर बाबा का ही आसरा था। वे बड़े कारसाज़ हैं। वे ही कोई करिश्मा करें, मेहरबानी करें तो उसके बेटे की जिंदगी बच सकती है। हर वक़्त अपने बेटे की जान की खैर मनाती रहती।

एक दिन वह खेतों की मेड़ के पास मंडरा रही थी कि उसने देखा नीम के बड़े से पेड़ के नीचे एक गधा खड़ा था। वह समझ गई कि ये कहीं बाहर से आया हुआ है, क्योंकि गाँव के सभी जानवरों को तो वह पहचानती थी। पास पहुँच कर जान-पहचान करने की गरज से उसने सलाम-दुआ की। गधे ने बताया कि वह शहर के एक धोबी के यहाँ रहता था। अब वह वहाँ से भाग आया था। अल्लारखी को हैरानी-सी हुई। वह बोली, “भैया एक बात बताओ, तुम अपने मालिक के घर से क्यों भाग आए? मालिक ही तो खाना-पानी देता है, रहने-सोने का ठिकाना देता है।” गधे ने गुस्से में अपने काले-मोटे नथुनों को फड़काया और तमक कर बोला, “मालिक है तो क्या हुआ! कोई बैठे-बैठे नहीं खिलाता। दिन-रात हाड़ तोड़ मेहनत करता था मालिक के लिए, और बदले में मिलता था आधा-अधूरा खाना, कभी-कभी तो शहर की गलियों में कचरे के ढेर में मुँह मारना पड़ता था। आखिर हम भी जीव हैं। कभी थोड़ा-सा सुस्ताने का मन हमारा भी करता है। पर इनको इससे क्या! इनका काम ना करो तो ले लट्ठ पिल पड़ेंगे।” 

गधे की बात ने अल्लारखी के दुख को छू लिया। उसे लगा कि इसका कहना सही है। कहते हैं कि दुख सुनाने से मन हल्का हो जाता है। उसने भी लंबी साँस लेकर अपना दुखड़ा गधे को सुना दिया। बात पूरी करते करते फिर एक बार उसके मुँह से यही निकला कि पीर बाबा का ही आसरा है। गधे ने कहा, “पीर बाबा भी उसी की मदद करेंगे जो अपने दुख से निकलने के लिए खुद कोशिश करेगा।” “मैं भला कर ही क्या सकती हूँ!” अल्लारखी रुआँसी होकर बोली। गधे ने जवाब दिया, “रहने दे, रहने दे, तू अपने बेटे को चाहती ही नहीं। खाली नाटक करती है। गधा हुआ तो क्या हुआ, इतना तो मैं भी समझता हूँ।” अल्लारखी के कानों में जैसे पिघला हुआ सीसा उंडेल दिया हो! वह कुछ बोल नहीं पाई। उसका दुख कई गुना बढ़ गया। उसने सोचा, “देखो, आज यह गधा मुझे कैसे बोल सुना रहा है! ये क्या जाने माँ के मन को!” एक शब्द भी बोले बिना अल्लारखी अपने बाड़े की ओर चल दी। पीछे से गधा फिर चिल्ला कर बोला, “जब बेटे को चाहती ही नहीं तो खाली उसके जाने से क्यों दुखी होती है! कम से कम मालिक के तो काम आ रहा है।"

उस दिन के बाद गधा जब कभी भी अल्लारखी के सामने आता तो उसे चिढ़ाते हुए कुछ ना कुछ बोलता रहता, “अरी ओ नाटकबाज़! ... अब बकरीद में कितने दिन रह गए!” अल्लारखी के मन में आता दो तमाचे रसीद करदे गधे को, पर फिर हार कर रह जाती। उसे गधे से ज़्यादा खुद पर गुस्सा आता कि वह कुछ भी नहीं कर पा रही है।

एक रात की बात है, दिन भर की थकी अल्लारखी बाड़े में अपने खूँटे से बँधी सोई पड़ी थी कि बाड़े में धप्प की आवाज़ आई। उसे खटका हुआ। “कहीं कोई खतरा तो नहीं!” सोच कर तुरंत उठ बैठी। रहमत को संभालने के लिए हल्का-सा मिमियाई। जवाब में नन्हें रहमत ने आंखे बंद किए किए गर्दन को झटकारा। माँ की जान में जान आई। तभी देखा झीनू बिलाव दबे पाँव घर की ओर बढ़ रहा है। “ओह! तो तुम हो,” अल्लारखी मुस्कराते हुए बोली। झीनू शरारत भरी मुस्कान के साथ रसोई की खिड़की से भीतर घुस गया। थोड़ी देर बाद लौटा तो उसके मुँह पर लगे दूध के निशान से पता लग रहा था कि वह क्या करके आया है। अल्लारखी बोली, “आ गया चोरी करके!” अपनी मूँछों को पौंछता हुआ झीनू पास पड़ी पानी की टंकी पर चढ़ा और वहाँ से बाड़े की दीवार को फाँद गया। ज़मीन पर मुँह को टिका अल्लारखी फिर से सोने की कोशिश करने लगी। अचानक उसे क्या सूझा कि झट से उठ खड़ी हुई। इधर-उधर चलने लगी। उसके मन में एक बात आई कि अगर रहमत भी इसी तरह टंकी पर चढ़ कर बाड़े को फाँद जाए और यहाँ से दूर भाग जाए तो उसकी जान बच सकती है। वह सोचने लगी कि वह गधा एकदम सही कहता था कि अपने दुख से निकलने की कोशिश तो हमें खुद को ही करनी होगी। आज झीनू बिलाव को बाड़ा फाँदते देख उसे न जाने क्यों लग रहा था कि उसका रहमत भी ऐसा कर लेगा।

अल्लारखी को रास्ता मिला। अब वह हर रोज़ मौका निकाल कर रहमत को टंकी पर चढ़ना सिखाती, बाड़े में ही कूदना सिखाती। कभी-कभी रहमत परेशान होकर कहता, “बस करो अम्मी, अब मैं थक गया हूँ। इतनी जल्दी भी क्या है, सीख जाऊँगा धीरे-धीरे।” अल्लारखी प्यार से अपने बेटे को पुचकारते हुए कहती, “बस एक बार और करले। इस बार खूब ऊँचा कूदना।”
दिन पर दिन कटते जा रहे थे। रमजान का महीना आया। पूरे तीस रोज़ बाद मीठी ईद मनाई गई। नसीमन ने सिवइयाँ बनाई। घर भर में सारा दिन बच्चों की दौड़-भाग और लोगों की चहल-पहल बनी रही। बच्चों को हँसता-खेलता देख कर अल्लारखी भी बहुत खुश होती थी पर अगले ही पल वो खुशी चिंता में बदल जाती जब उसे खयाल आता कि बकरीद अब सिर्फ चालीस रोज़ दूर है। इस बीच दिन में बाहर घूमते हुए उसे कई बार वह गधा भी मिला। उसने जब अल्लारखी को चिढ़ाना शुरू किया तो इस बार अल्लारखी हमेशा की तरह चिढ़ी नहीं बल्कि मुस्कराई और बोली, “गधे भैया, मैं पूरी कोशिश कर रही हूँ अपने बच्चे को बचाने की। क्या तुम मेरी एक मदद करोगे?” गधे ने कहा, “अरी नेकबख्त! मैं तो इसी लिए तुझे चिढ़ाता रहा ताकि तुम खुद अपने बच्चे को बचाने की कोशिश करो। अब जब तुम इतनी हिम्मत कर रही हो तो मैं ज़रूर तुम्हारा साथ दूँगा, बोलो क्या करना है?” अल्लारखी गधे के करीब आई और उसके कान में फुसफुसा कर कुछ बोली। गधे ने अपने लंबे कान फड़फड़ाए, सिर को दोनों ओर घुमाया और बोला, “ठीक है, तुम्हारा काम हो जाएगा।”

कासिम शाम ढले रहमत के गले में रस्सी डाल रस्सी के दूसरे सिरे को पास लगे खूँटे में फँसा देता था। अब अल्लारखी को जल्दी ही बहुत कुछ करना था। सबसे ज़्यादा दिक्कत तो आई रहमत को समझाने में। वह मानने को तैयार ही नहीं था कि कासिम और उसके परिवार के लोग जो कि उसका इतना खयाल रखते हैं, वे ही उसे कुछ दिनों बाद काट के खा जाने वाले हैं। पर आखिर अल्लारखी उसे समझाने में कामयाब हो गई।

और फिर बकरीद के ठीक तीन रोज़ पहले की रात जब सारा गाँव नींद में सोया पड़ा था, अल्लारखी ने धीरे-धीरे अपने बेटे के पास सरकते हुए उसे आवाज़ दी, “रहमत! बेटा रहमत! उठो! आज मौका अच्छा है, निकल भागो।” रहमत ने कुनमुनाते हुए कहा, “क्या अम्मी, इतनी अच्छी नींद आ रही है... कल दिन में भाग जाऊँगा ना!” अल्लारखी बोली, “बस बेटा, आज की रात नींद खराब करले, फिर हर रात चैन की नींद सोना।” इसके साथ ही उसने अपने सींगों से खूँटे में फँसी रस्सी को ऊपर की ओर सरकाना शुरू किया। जल्दबाज़ी में कई बार उसका सिर भी छिल गया। रस्सी बाहर निकलते ही उसने रहमत को टंकी पर चढ़ने का इशारा किया। रहमत आसानी से टंकी पर चढ़ गया। अल्लारखी फुसफुसाई, “जल्दी कर, कूद जा मेरे बेटे, फाँद जा बाड़ को और भाग जा दूर...बहुत दूर।” रहमत ने अम्मी की आँखों में देखा, वहाँ एक ओर बेटे से हमेशा हमेशा के लिए बिछड़ जाने का दुख आँसुओं की शक्ल में टपक रहा था तो दूसरी ओर बेटे की सलामती की खुशी भी चमक रही थी। पूरी ताकत लगा कर रहमत बाड़ फाँद गया। दूसरी ओर गिरा तो थोड़ी चोट तो आई फिर अगले ही पल खड़ा हो गया। रात के अँधेरे में क्या करूँ, किधर जाऊँ सोच ही रहा था कि एक कोने से आवाज़ आई, “इधर आ जाओ रहमत मियाँ... तुम्हारी अम्मी ने मुझे तुम्हें यहाँ से दूर ले जाने के काम सौंप रखा है। रहमत मुस्कराया, फिर उसे अपनी अम्मी पर नाज़ हुआ।

रात के अँधेरे में दोनों प्राणी गाँव के बाहर की ओर भाग रहे थे। इधर अल्लारखी फिर पीर बाबा से अपने बेटे की सलामती की खैर मना रही थी।

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