शनिवार, 22 दिसंबर 2018

सब कुछ खत्म होने की घड़ी

वर्णमाला केआखिरी अक्षर के कैद होने तक

इंतज़ार करना तुम

या फिर पाब्लो नेरुदा को पढ़ते रहना

उसके उद्धरणों को विमर्श के मंचों पर धकेलते रहना

करना अपनी विद्वता पर गर्व

फूलकर जमीन से ढाई इंच ऊपर उठ जाना

वही आखिरी घड़ी होगी

जब तुम लटका दिए जाओगे

इतिहास के धूसर पन्नों में रह जाएँगे

तुम्हारे छटपटाते पाँव।

धरती की आखिरी लड़की के रौंदे जाने तक

तुम बाँसुरी बजाते रहना

या सिमोन द बुआर के 'सैकेण्ड सैक्स' में डूबकर

लाना कुछ फैमिनिज्म के मोती

आक्रोश और ओज का छौंक लगाना कवि सम्मेलन के मंचों पर

जब खबर छपेगी उस आखिरी लड़की की

तब तुम मर जाओगे

हाथों में मोमबत्तियाँ लिए तुम्हारी लाश

खड़ी होगी शहर के चौराहे पर।

केटी
****

ज से जीवन

हम पढ़ाते हैं उन्हें

क से कबूतर

और वे बन जाते

क से किसान

म से मजदूर

ब से बेरोजगार

या कोई कोई ड से डाॅन भी।

काश हम उन्हें पढ़ाते कुछ और

सिखाते ज से जीवन जीना।

...

पर क्या ये हमें भी आता है...!

केटी
****

गुरुवार, 29 नवंबर 2018

आशा

बहुत सुहाना ये जीवन है

ईश्वर का उपहार समझना,

आनेवाला कल तेरा है

मेरा ये उद्गार समझना,

जीता जिसने क्या पाया

और हारा जिसने क्या खोया,

राह शेष है, मुझे है चलना

सृष्टि का ये सार समझना।

केटी
****

सोमवार, 1 अक्तूबर 2018

रावण

जी उठता है हर बार

फिर भी

मारो उसे बार बार

वो जो रावण है

छुप के रहता है हमारे मन की लंका में

केटी
****

रविवार, 30 सितंबर 2018

कामना-काॅम्प्लेक्स

(1)
पापा! आप और मम्मी हर रोज

छत से देखा करते थे चाँद,

अब वो क्यों नहीं दिखता?

गुड़िया! तेरे होने के साथ ही

सड़क पार बनने लगा था 'कामना-काॅम्प्लेक्स'

तेरे बड़े होने तक वो इतना बड़ा हो गया

कि ढक लिया उसने

तेरे हिस्से का आकाश, तेरे हिस्से का चाँद।

(2)
अभी कुछ दिन पहले तक

जब बिके नहीं थे इसके फ्लैट

बेसमेंट में इसके रहता था

दिहाड़ी मजदूर श्यामुआ का परिवार।

दिन की मजदूरी, रात की चौकीदारी

बदले में थी रहने को ठौर

मालिक की कृपा और कुछ पैसा भी।

एक दिन बहुत धूमधाम हुई

श्यामुआ के पूरे परिवार ने सजाई

कामना-काॅम्प्लेक्स पर बिजली की लड़ियाँ

कई बड़े लोग आए, खाना-पीना हुआ

फ्लैटों में परिवार बस गए

उसी रात श्यामुआ, उसकी बीवी और तीन बच्चे

सड़क पार फुटपाथ पर बसा रहे थे

अपना नया घर।

चन्द्र-दर्शन

चन्द्र-दर्शन
*********

पंचमी का चाँद भी

इतना बड़ा होता है क्या!

पूर्णिमा के बराबर न सही

पर कुछ कुछ वैसा ही

या पाव भर कटा हुआ कहलो।

देखते ही ध्यान आता है वो हिस्सा

जो है ही नहीं।

इसी में छुपी है

पंचमी से पूर्णिमा तक की भावी यात्रा

दस तिथियाँ, दस दिन-रात

कितनी बार उगने और कितनी ही बार बुझने की पीड़ा

पूर्णता को पाने की चिरंतन अकुलाहट।

काले आसमान में टँगा हुआ

ये पाव भर कटा हुआ चाँद

करवा गया मूर्त में अमूर्त के दर्शन,

पंचमी का यह चाँद

कोई दार्शनिक तो नहीं शैलेन्द्र ढड्डा?

सोमवार, 24 सितंबर 2018

मार्क्स में मनु ढूँढती


आसपास के मासूम पलों पर रची कहानियाँ- मार्क्स में मनु ढूँढती

रोज़मर्रा की ज़िंदगी में कितना कुछ आसपास से गुज़र जाता है और हम उसमें से निकलने के बाद भी उसे महसूस नहीं कर पाते। हमसे टकरा कर जीवन की आपाधापी में खो जाने वाली उन ध्वनियोंचित्रोंआकारों और मनोस्थितियों को रुक कर देख पाने का तो समय ही कहाँ है! ऐसे ही निर्मम समय में युवा कहानीकार माधव राठौड़ एक आस जगाते हुए अपनी कहानियाँ उन आसपास के पलों पर रचते हैं।
उनका सद्य प्रकाशित कहानी-संग्रह ‘मार्क्स में मनु ढूँढती’ इसी तरह की 20 कहानियों से सजा हुआ है।
आज का समय अपने आप में एक बिखरन, टूटन और मदहोशी लिए हुआ है। एक दूसरे के प्रति सरोकार, ज़िम्मेदारी और प्यार लगभग समाप्त होकर एक अंधे स्वार्थ से जीवन परिचालित होने लगा है। इस चुनौती को स्वीकार करते हुए वर्तमान हिन्दी साहित्य में युवा कहानीकारों ने सार्थक हस्तक्षेप किया है। अपने समय को मूर्त छवियों में रचा है। माधव राठौड़ राजस्थान की मरुभूमि से आते हैं। गाँव से शहर में आना ही व्यक्ति को चकाचौंध से भर देता है। किन्तु जब उनका संवेदनशील मन इस भीड़ और कोलाहल को सर्जक-दृष्टि से देखता है तो यहाँ सब एकदम अकेले, बेबस और भयग्रस्त दिखाई पड़ते हैं।
इस दौर ने हर किसी को नितांत एकाकीनीरस और स्व-केन्द्रित बना दिया है। ऐसे में हर व्यक्ति अपने सुख और दुख को अकेले झेलने के लिए अभिशप्त है। माधव अपनी कहानियों में इन एकाकी ज़िंदगियों की पड़ताल करते हैं और पाठक को तुरंत अपने जान-पहचान केकुछ देखे-अनदेखे चेहरे याद आने लगते हैं। एकाकीपन का भय रीढ़ की हड्डी में जैसे सिहरन पैदा करने लगता है और तब लेखक पाठक के मन की बात को होले से टाँक देता है। कहानी ‘क्वाटर नंबर-73’ की कुछ पंक्तियाँ देखिये-
रात के गहराने के साथ वह डर से भर गया कि अगर वो मर गया तो उसके आसपास तो कोई नहीं आएगाजब शव गंध मारेगा तब शायद कुछ करेंगे। वो देर तक खुद की मौत को लेकर सोचता रहा।
जीवन में आए इस एकाकीपन और नीरसता के विविध रूप माधव की लगभग सभी कहानियों में रिफ्लेक्ट होते हैं। उकताया हुआ एक दिन’, खालीपन कहानियाँ इसी तरह की हैं।
स्त्री-पुरुष संबंध...! यह एक ऐसा विषय है जिसे हर दौर में साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं का केंद्र बनाया है और कहानीकारों ने तो जमकर इस पर कलम चलाई है। बदलते समय ने इस संबंध को सर्वाधिक प्रभावित किया और कहानियाँ भी साथ-साथ बदलती चली गईं। अस्सी और नब्बे के दशक में जब हमारे शहर में हसन जमाल साहब, हबीब कैफी साहब, डॉ॰ सत्यनारायण, रघुनंदन त्रिवेदी, डॉ॰ हरीदास व्यास, योगेन्द्र दवे मुरलीधर जी वैष्णव कहानियाँ लिख रहे थे तो वे कहानियाँ स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में प्रेम, त्याग और समर्पण को बयाँ कर रही थीं। किन्तु आज के फास्ट फूड के जमाने में जब तकनीक और कैरियर की रेस ने मनुष्य से उसकी संवेदना छीन ली है तो स्त्री-पुरुष संबंध प्यार के उथलेपन, केवल दैहिक खालीपन को भरने की लालसा और घोर निराशा के दस्तावेज़ बन कर रह गए हैं। आज हमारे समकालीन युवा कहानीकार किशोर चौधरी, संजय व्यास, तसनीम, दिव्या विजय, डॉ॰ शालिनी गोयल राजवंशी, उपासना, नवनीत नीरव, डॉ॰ फतेह सिंह भाटी इस संबंध में आए बदलाव की कहानियाँ लिख रहे हैं। माधव राठौड़ के इस कहानी संग्रह में मार्क्स में मनु ढूँढती’, उदास यादें’, अभिशप्त वरदान’, शुक्रवार को शुरू किया काम ज़रूर पूरा होता है’, तयशुदा दूरियों के साथ जीना’, अधूरा वजूद’, ढलती साँझ की धुन्ध’, कहानियों में इसी के विविध रूप साकार हुए हैं।    
दोहरे मापदंड हमारे समाज की कड़वी सच्चाई है। एक ओर उच्च वर्ग है जहाँ हर बुराईहर दोष को आवरणों में छुपा कर उसे शालीन बना लिया जाता है तो दूसरी ओर निम्न वर्ग है जो कि अपनी अच्छाईबुराईगुणदोष सभी को खुलेपन से स्वीकारते हुए जीवन से संघर्ष करता है। दोनों वर्गों में किसी लड़के और लड़की के प्यार की यात्रा किन-किन मोड़ों से गुजरते हुए कहाँ तक पहुँचती हैइसमें भी वर्गभेद किस तरह निर्णायक कारक की भूमिका निभाता हैइसका सहज चित्रांकन माधव की कहानियों में मिलता है। मासूम प्यारलिव-इन रिलेशनशिप और इसकी विसंगतियों जैसे अति सूक्ष्म किन्तु ज्वलंत विषयों को छूती हुई कहानी ‘मँगती’ में स्त्री-पीड़ा का छुपा हुआ स्वर कैनवास पर फैले मटमैले रंग की तरह पूरे कथा-चित्र को एक विशिष्टता देता है। कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
गमदू उसे सपने दिखाता है उसे फिल्म दिखाएगाशहर घुमाएगाहमारी शादी में भी बैंड बजाएँगे। पर वो अब मँगती नहीं रहीदीवानी नहीं रही।
शीर्षक कथा ‘मार्क्स में मनु ढूँढती’ को इस कहानी-संग्रह की प्रतिनिधि कहानी तो नहीं कहा जा सकता किन्तु विचारधाराओं के अंत के इस दौर में जीवन के उस बिन्दु को उकेरने की कोशिश अवश्य कहा जाएगा जहाँ कहानी के अंत में लेखक नायिका के लिए कहता है-
उसे समाधान मिल गया। वो न मार्क्स के लिए न मनु के लिए न समाज के लिए जिएगी। वो सिर्फ खुद के लिए जिएगी। खुद में उतर खुद को खोजेगी और खुद को ही पाएगी।
वैसे तो कमोबेश सभी कहानियों में माधव कहानी कहते हुए से प्रतीत होते हैं पर एक कहानी ऐसी भी है जिसमें इनकी किस्सागोई खुलकर सामने आती है और वो कहानी है- ‘इमली फाटक के उस पार।
इस कहानी में माधव एक खिलंदड़ बातपोश की तरह कहानी के दृश्यों में पाठकों को बांधते चलते हैं। पाठक पूरी कहानी में कथा-नायक बाबू भाई के परवान चढ़ते इश्क़ और आसपास की नित बदलती छटा में सराबोर होकर मस्ती लेता रहता है पर कहानी के अंत में जैसे खुद को ठगा-सा महसूस करने लगता है। अचानक दुख का सघन भाव पाठक को बाबू भाई की लाश के इर्दगिर्द खड़ी भीड़ का हिस्सा बना देते हैं। कहानी विधा के प्रख्यात आलोचक और देश के वरिष्ठ साहित्यकार विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं- पाठक चमत्कार का स्वागत करता है किन्तु वह रचना से चमत्कृत नहीं भावित होने की आशा करता है। इसके लिए दृश्यताअनिवार्य कथनपात्रों की अनुभाव चेष्टाएँ- जिनमें सर्वाधिक मार्मिकतोत्पादक मौन होता हैकाम आती हैं। ये शिल्प के रूप हैं जो रचना की निर्मिति करते हैं।माधव अपनी कहानियों में शिल्प के इन सभी रूपों को संजोए हुए हैं।
समय की आपाधापी ने हमारे गांवों को भी बदला है। इस सबके बाद भी बहुत कुछ ऐसा है जो जस का तस है। सुदूर रेगिस्तान की गाँव-ढाणियों के जीवन के माधव आई-विटनेस रहे हैं। उनकी कहानियाँ उधड़े ख्वाब’, बेजुबाँ दर्द और लाज उसी ग्रामीण जीवन के रंगों को ठेठ उनके तेवर में पेश करती है। कहानी लाज में लोक तत्वों का प्रचुर आस्वाद है। लोक गीत, परम्पराएँ सब देखते ही बनते हैं। दृश्यों की विविधता इसे एक फिल्म का कैनवास देती है।
कुछ कहानियाँ ऐसी भी हैं जो पूरी बन नहीं पाईं या उनका स्वरूप उपन्यास विधा के अधिक निकट था। रेड सर्किल कहानी एक ट्रांसजेंडर की कहानी है जो किसी एनजीओ द्वारा एड्स आवेयरनेस सेमिनार में भाग लेने जा रही है। साथ के साथ वो ट्रेन में तालियाँ बजाकर यात्रियों से पैसा भी मांग रही है। उसने अपनी जवानी एक वेश्या के कोठे पर बिताई है। उसका प्रेमी भी है, उसकी गोद ली हुई बेटी भी है। एक निश्चित समय अंतराल, बहुत सारे चरित्रों और घटनाओं के साथ अगर ये कहानी बढ़े तभी मुकम्मल हो सकती है। ऐसे में प्रख्यात कहानी समीक्षक-आलोचक संजीव कुमार की बात याद आती है कि कभी-कभी कोई कहानी लेखक के मन में बहुत तेज़ी से प्रवेश कर जाती है और लेखक उसे संभालने और कथा-रूप देने में कहानी से एक्ज़िट को तय नहीं कर पाता और कहानी अपने क्लाइमेक्स को नहीं छू पाती। इसी तरह साँझ की धूसरता एक कहानी है। प्राइवेट  हास्पिटल्स में रोगियों और उनके परिजनों से होने वाली लूट और शोषण  को दर्शाती इस कहानी का फ़लक भी उपन्यास का है।
माधव बहुत अध्ययनशील साहित्यकर्मी हैं। इन्होंने भारतीय साहित्य, दर्शन, अध्यात्म और राजनीति की पुस्तकों के साथ-साथ विश्व साहित्य का भी खूब अध्ययन किया है। जगह-जगह पर उनकी कहानियों में उनके रिफ़्लेक्शन्स मिलते हैं।   
पाठक को पढ़ते हुए अक्सर यह लगता है कि शायद ये अंत नहीं हैया इसे कुछ और होना चाहिए थापर माधव की कहानियाँ अंत तक न ले जाकर उन पात्रोंउन घटनाओंउन संवेदनाओं की भूलभुलैयाँ के बीच हमें धकेलती हैं जहाँ हम छटपटाते रहते हैं और जीवन को तलाशने की कोशिश करते रहते हैं।
पुस्तक बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित हुई है। पुस्तक का आवरण चित्र कहानियों के मनोभाव को प्रकट करता है। इस कहानी-संग्रह के माध्यम से वर्तमान के युवा कहानीकारों में माधव राठौड़ अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज़ करवाते हैं।
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कमलेश तिवारी
169-दिलीप नगर
लाल सागर
जोधपुर
संपर्क: 9829493913
ई-मेल : kamalesh.tewari.65@gmail.com

बुधवार, 22 अगस्त 2018

प्रेम, अवनि और वातायन

पुस्तक-चर्चा
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कविता-संग्रह- प्रेम, अवनि और वातायन (मूल्य : 150 रु.)
रचनाकार- सुनीता गोदारा
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मन की यायावरी खोलती है तीसरा वातायन...
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हर संवेदनशील मन पहले पहल प्रेम और फिर प्रेम के ज़रिए प्रकृति को पकड़ता है, गहरे में महसूसता है और उसके विचलनों को सृजनशीलता के बहुविध आयामों से अभिव्यक्त करता है। प्रेम वैयक्तिक रिश्तों से होता हुआ परिवार और परिवेश तक फैलता है और शनै शनै उसकी छाया प्रकृति के हर रंग में प्रतिबिम्बित होती दिखाई देती है। अभिव्यक्ति प्रेम से प्रकृति तक प्रकृति से प्रेम तक वर्तुलाकार पथ में चलती रहती है। 
किन्तु मन की यायावरी और आसपास घट रहे पलों के प्रति गहरी सजगता संवेदनशील मन को इस वर्तुल से बाहर धकेलती है और ठीक उसी ठौर से वह जीवन के बहुष्कोणीय प्रिज्म को देखने समझने का प्रयत्न करने लगता है। यही प्रयत्न एक तीसरा वातायन खोलता है जहाँ से वह घट रहे हर पल की निगरानी करने लगता है और उन्हें पकड़ते हुए अभिव्यक्ति भी देता है। 
सुनीता गोदारा के काव्य-संग्रह 'प्रेम, अवनि और वातायन' का तीसरा और अंतिम खंड है- 'तीसरा वातायन'। इसमें छोटी-बड़ी 48 कविताएँ हैं। इस संग्रह में संग्रहीत कविताओं में सुनीता ने जीवन के फलसफे और क्रियाकलापों के मनोवैज्ञानिक आधार को पकड़ने की कोशिश की है-

उजाले में भी अँधेरे की
इक लकीर होती है
कोई बूझ नहीं पाता
उस अँधेरे का राज़
कोई ढूँढ़ नहीं पाता
अँधेरे की उस प्यारी-सी लकीर को
पहचान नहीं पाता। 

इसी तरह दृश्य और अदृश्य, परिचित और अंजान के बीच पड़ने की छटपटाहट है इन कविताओं में। कभी उदासी घेरती है, तो कभी खुद ही दिलासा देते हुए कहती हैं-

एक उम्मीद ही काफी है
ज़िंदादिली के लिए
मुश्किलों भरा दौर है यह
अगर वो वक़्त ना रहा
तो ये वक़्त भी बीत जाएगा। 

इस खंड की कविताओं में विषय-वैविध्य देखने को मिलता है। तीसरे वातायन से सुनीता एक समग्र दृष्टि से स्त्री को बेटी, पत्नी और माँ तीनों भूमिकाओं में देखते हुए हर एक को उसके वैशिष्ट्य में अभिव्यक्त करती हैं-

समझती हूँ मैं मेरी बिटिया रानी
गुज़र रही हो
आज तुम उसी दौर से 
मैं भी जिससे रूबरू हुई थी
पच्चीस साल पहले। 

इसी तरह माँ पर लिखी एक लंबी कविता में सुनीता माँ के माध्यम से स्त्री के उन प्रश्नों के उत्तर खोजती हैं जिन्हें स्त्री कभी पूछ ही नहीं पाती और वे अबोले प्रश्न उसके व्यक्तित्व का रहस्यमयी अबोलापन बन के रह जाते हैं-

माँ
क्या देख रही हो
सूनी पगडंडियों पर!
दूर तक दौड़ाती
अपनी निगाहों से 
धोरों में अपनी पहचान 
खोज रही हो ना... माँ!

इस खंड की कविताओं में प्रेम की निरी भावुकता से ऊपर उठते हुए जीवन के ठोस व पथरीले यथार्थ से टकराने की कोशिश हुई है। इसी से जीवन-अनुभव के काव्य-अनुभव में बदलने का सिलसिला शुरू होता है। एक कविता में सुनीता स्वीकार करती हैं-

अनुभव
उम्र की शाखों पर लगा फल नहीं
अपितु
जिंदगी में खाई ठोकरों से मिला सबक
जीवन का तजुर्बा भी हो सकता है
और समझने का नजरिया भी। 

कुछ कविताओं में ऐसा लगता है कि कविता के मूल बिन्दु ने सुनीता को बहुत तेज़ी से अपनी और खींचा और उन्होंने उसे पूरा हृदयंगम करने से पहले ही कविता रच दी। फलत: बहुत कुछ छूट गया। यह ठीक ऐसा ही है जैसे कोई नयनाभिराम दृश्य देखते ही हमने तुरंत उसका फोटो खींच लिया पर जल्दबाज़ी में कैमरा हिल गया और फोटो कुछ अस्पष्ठ (blur) हो गया। पर इसे भी रचना-प्रक्रिया का एक अंग मानते हुए आने वाली कविताओं में सुनीता अपने पाठकों को और भी समृद्ध अनुभव दे पाएँगी, ऐसा मुझे विश्वास है। 
बालुई रेत के धोरों में उठते हुए 'बंतुलिए' (रेत के तूफान) जैसे सुनीता के मन का अनिवार्य अंग बन गए हैं। उन्हीं के साथ उड़ती रहती हैं उनकी संवेदनाएँ और रचती हैं कविताएँ-

बीहड़ में भी विचरण कर लेता
तो कभी
रेगिस्तान की लू भरी
आँधियों के साथ भी तपता
रे मन, तू भी कैसा यायावर है...!

केटी
***




























सोमवार, 9 जुलाई 2018

प्रतीक्षा

प्रतीक्षा के पल

भीगे अहसासों के बादल

जीवन मौन का महारास

पीड़ा लहराती आँचल।

मंगलवार, 12 जून 2018

जानवरों की जीत


शहर की भीड़-भाड़ से दूर एक बहुत घना जंगल था। जंगल में बड़े-बड़े पेड़, कंटीली झाड़ियाँ और गहरा लसलसा दलदल था। शहर के लोग अक्सर इससे दूर ही रहते थे। उस जंगल में बहुत सारे जानवर, पशु-पक्षी रहते थे। हाथी, बंदर, चिड़िया, खरगोश, हिरण, जिराफ और भी कई सारे जानवर आपस में मिलजुल कर रहते थे। ये जंगल उनका घर था और अपने घर में वे सब चहकते रहते थे।
एक दिन शाम को गौरैया चिड़ियों का एक झुंड कहीं से उड़ता हुआ आया और जंगल के बीचों-बीच खड़े सागवान के पेड़ों की बड़ी-बड़ी डालियों पर उतर कर आराम करने लगा। सबसे पहले ये खबर लगी घुमक्कड़ी बंदर को। दिन भर इधर-उधर घूमते रहने के कारण ही सब जानवरों ने उसका नाम घुमक्कड़ी रख दिया था। जानवरों में एक वो ही था जो शहर में भी जाने कहाँ-कहाँ घूम आया था। घुमक्कड़ी की एक खास आदत थी कि वो जब भी कोई नई जगह घूम कर आता तो जंगल के सारे साथियों को वहाँ के बारे में सारी बातें बताता। एक दिन तो हाथियों के मुखिया ने हँसते हुए कह भी दिया था, “हम तो सारी उम्र इसी जंगल में रह गए, अगर ये घुमक्कड़ी न होता तो हमें तो इस जंगल के बाहर की कोई खबर ही नहीं मिलती।” इस पर ननकू गिलहरी ने मुँह बनाते हुए कहा, “आया बड़ा दुनिया घूमने वाला! हमने भी कई बार शहर देखा है, बस ये है कि हमें इस घुमक्कड़ी की तरह बातें बनाना नहीं आता।” इस पर सारे जानवर ठठा कर हँस पड़े थे।
उस दिन सारे जानवर दिन का खाना खाकर सुस्ता रहे थे कि घुमक्कड़ी पहुँच गया। “अरे सब लोग सुनो, अभी-अभी बहुत सारी चिड़ियों का झुंड सागवान के पेड़ों पर उतरा है। जाने कौन हैं, कहाँ से आई हैं, कुछ पता नहीं,” घुमक्कड़ी बोला। सारे जानवर उठ खड़े हुए। पेड़ों के नीचे जाकर हाथियों के मुखिया ने पूछा, “अरे ओ चिड़ियों! कौन हो, कहाँ से आई हो?” हाथी की गरजदार आवाज़ सुनकर चिड़ियों के झुंड में सन्नाटा छा गया। चिड़ियों के छोटे-छोटे बच्चे तो डर के मारे पेड़ के बड़े-बड़े पत्तों में दुबक गए।

तभी पेड़ की कोठर से चिड़ियों की रानी निकल कर आई और बोली, “क्या हुआ हाथी दादा, पहचाना मुझे…, मैं सोन चिरैया..., नीलवन वाली।” हाथियों का मुखिया बोला, “अरे सोन चिरैया...! इतने समय बाद...! चार-पाँच बरसातें निकल गई होंगी..., कहाँ रही अब तक?” चिड़ियों के झुंड को जैसे ही पता चला कि ये तो हमारी रानी के जान-पहचान वाले ही हैं तो उनका डर दूर हो गया और वो फिर से डालियों पर फुदकने लगा।
“क्या बताऊँ हाथी दादा, बड़े खराब दिन देखे हैं,” सोन चिरैया ने पेड़ से नीचे आकर कहा। “हाँ ये तो है, आजकल पीने के पानी की भी बहुत कमी हो रही है। एक नदी थी जो हमेशा बहती रहती थी, उसमें भी अब कभी-कभी ही पानी देखने को मिलता है,” हाथी दादा ने गहरी साँस लेकर कहा। सोन चिरैया रुआसी होकर बोली, “इतना भी होता तो कैसे ना कैसे समय निकल ही जाता दादा, पर हमारा तो पूरा घर ही उजड़ गया।” जंगल के सारे जानवर इन दोनों की बातें सुन रहे थे। मिचमिची आँखों वाले हिरण ने पूछा, “क्या हुआ सोन चिरैया, किसने तुम्हारा घर उजाड़ दिया?” सोन चिरैया ने कहा, “भैया क्या बताऊँ, मेरे तो भाग ही फूटे हैं, वरना पूरा कुनबा लेकर दर-दर क्यों भटकती फिरती।” हाथी दादा ने उसे तसल्ली दी, “चिंता मत करो बहन, हम सब तुम्हारे अपने ही हैं। हमें तुम सारी बात बता दो, शायद इससे तुम्हारा दुख कुछ हल्का हो जाए।”
गहरी साँस लेकर सोन चिरैया बोली, “हमारा परिवार नीलवन में रहता था। बहुत सुंदर घर था हमारा। सभी लोग बड़े प्यार से रहते थे। दाना, पानी, हवा किसी चीज की कमी नहीं थी। क्या पता किसकी नज़र लगी कि सब कुछ खत्म हो गया। एक दिन शहर से खूब सारे लोग बड़ी-बड़ी मशीनें लेकर आए और पेड़ों को काटने लगे। तीखे-तीखे दाँतों वाली धारदार मशीनें जब पेड़ों पर चली तो एक के बाद एक सारे पेड़ गिरने लगे। हमारे बहुत सारे साथी उनके नीचे दब कर घायल हो गए, कुछ तो बच भी नहीं पाए। मेरे खुद के परिवार के नन्हे-नन्हे बच्चे जो अभी उड़ना भी नहीं जानते थे, भारी-भारी पेड़ों के तले दब कर मर गए,” बोलते-बोलते सोन चिरैया की आँखों से आँसू बहने लगे। हाथी दादा ने उसे दिलासा देते हुए कहा, “तुम्हारे साथ बहुत बुरा हुआ सोन चिरैया। जाने क्यों लोग दूसरों के घरों को उजाड़ते हैं!... पर अब तुम चिंता मत करो और आराम से अपने परिवार के साथ यहाँ रहो।” सारे जानवरों ने एक स्वर में कहा, “हाँ-हाँ सोन चिरैया, आज से तुम सब हमारे परिवार के सदस्य हो।” रोती हुई सोन चिरैया को खुशी हुई और उसने सबको धन्यवाद दिया। हाथी दादा ने कहा, “अब तुम सब लोग कुछ खा-पी लो, फिर दिन में गपशप करेंगे।” सभी जानवर जाने लगे। अंत में रह गया घुमक्कड़ी। उसने सोन चिरैया से कहा, “मैं तो शहर में कई जगह घूम आया हूँ, तुम सब लोगों को वहाँ की बातें बताऊंगा।” सोन चिरैया मुस्कराते हुए बोली, “ अरे वाह! तब तो हमारी दोस्ती खूब जमेगी।” जल्दी ही मिलने का वादा कर घुमक्कड़ी पेड़ों की डालियों पर कूदता-फलांगता चल दिया। इसी तरह दिन गुजरने लगे। सोन चिरैया को सहारा मिला और वो भी सबके साथ घुलमिल गई। एक दिन खूब बरसात हुई। दिन भर सारे जानवर अपने-अपने घरों में दुबके रहे। पेड़ों की डालियाँ पानी में भीगकर हवा में लहरा रही थीं। जंगल की मिट्टी महक रही थी। शाम के समय बरसात थमी तो सब के सब नदी किनारे आ जुटे। नदी में थोड़ा-थोड़ा पानी चल रहा था। कुछ जानवर नदी में नहा रहे थे तो कुछ किनारे की ठंडी रेत में लोटपोट हो रहे थे। तभी घुमक्कड़ी वहाँ पहुँचा। ननकू गिलहरी ने मुँह टेढ़ा करते हुए कहा, “लो, आ गए गप्पीराम, अब सुनो इनकी बातें।” सभी जानवर हँस पड़े। घुमक्कड़ी ने बताया कि आज वो शहर में बड़े साहब के बंगले पर गया था। वहाँ बातें चल रही थीं कि साहब के नए घर के लिए लकड़ी चाहिए और उन्होंने ठेकेदार को कल ही जंगल से सागवान के पेड़ काट कर लाने के लिए कहा है। हाथी दादा ने घुमक्कड़ी से कहा, “ठीक-ठीक बता, ऐसे ही अपने मन से इधर-उधर की तो नहीं सुना रहा है?” घुमक्कड़ी तमक कर बोला, “अपने मन की क्यों सुनाऊँगा! जो सुना है वही बता रहा हूँ।” हाथी दादा ने कहा, “फिर तो गजब हो जाएगा! सोन चिरैया के परिवार में कुछ दिन पहले ही तो नन्हे-नन्हे बच्चे हुए हैं। दुख के दिनों को भुलाकर पूरे परिवार में खुशियाँ आई हैं। ऐसे में उस बेचारी पर तो दुखों का पहाड़ टूट पड़ेगा।”
लंबू जिराफ बोला, “क्यों ना हम सोन चिरैया से कहदें कि वो अपने बच्चों को लेकर दूसरे पेड़ों पर चली जाए।” सभी को ये बात जच गई। घुमक्कड़ी सोन चिरैया को बुला लाया। हाथी दादा ने उसे सारी बात बताई। वो तो फूट-फूट कर रोने लगी।
“नहीं-नहीं दादा, ये बच्चे तो अभी बहुत छोटे हैं, इन्हें दूसरी जगह नहीं ले जाया जा सकता है। लगता है मेरा दुर्भाग्य मेरा पीछा करते-करते यहाँ भी पहुँच गया।” सोन चिरैया के साथ-साथ उसके परिवार कि सभी चिड़ियाएँ रोने लगीं। आसपास सारे जानवर मुँह उतारे हुए खड़े थे। घुमक्कड़ी बोला, “इस तरह रोने से क्या होगा! हम सबको मिलकर इस मुसीबत का सामना करना चाहिए, कोई उपाय खोजना चाहिए।” सोन चिरैया बोली, “नहीं भैया, मेरे परिवार के लिए आप सबके जीवन को खतरे में मत डालो।” हाथी दादा ने डांठते हुए कहा, “क्या कह रही हो सोन चिरैया, क्या तुम सब हमारे अपने नहीं हो? घुमक्कड़ी ठीक कहता है, हमें मिलकर कोई उपाय खोजना चाहिए।” सभी लोग सोच-विचार करने लग गए। हाथी दादा ने कहा, “अब मेरी बात ध्यान से सुनो। कल सुबह ही घुमक्कड़ी और ननकू अपने साथियों के साथ शहर वाले रास्ते पर जा बैठेंगे। जैसे ही शहर से लोगों को जंगल की ओर आते हुए देखेंगे तो ये लोग शोर करते हुए जंगल की ओर दौड़ेंगे। इससे हमें पता चल जाएगा कि वो लोग आ रहे हैं। इधर पेड़ों पर सभी बंदर और दूसरी तरफ हाथी और जिराफ अपने पूरे परिवार के साथ तैयार रहेंगे। घुमक्कड़ी और ननकू की आवाज़ सुनते ही सब के सब ज़ोर से चिल्लाते हुए जंगल में घुसने वाले लोगों की ओर भागेंगे।... सब को समझ में आ गया कि क्या करना है...?” सभी ने एक स्वर में कहा कि चाहे जो हो जाए इस बार सोन चिरैया का घर नहीं उजड़ने देंगे। सुबह सूरज उगने के साथ ही ननकू और घुमक्कड़ी अपने कुछ साथियों को लेकर शहर से जंगल की ओर आने वाले रास्ते पर डट गए। उनकी नज़रें दूर तक देख रही थीं। इधर पेड़ों और कंटीली झाड़ियों के पीछे हाथियों का पूरा दल छुपकर बैठ गया। दूसरी तरफ लंबू जिराफ अपने परिवार के साथ तैयार था। पेड़ों की ऊँची डालियों पर बंदरों की टोली सबसे पहले कूदने को तैयार थी। सब खामोशी से संकेत का इंतज़ार कर रहे थे। जंगल में ऐसा सन्नाटा कभी न छाया था। उधर सोन चिरैया बार-बार अपने बच्चों से चुप रहने को कह रही थी। मन ही मन डरी हुई वन-देवता से प्रार्थना कर रही थी। सूरज सामने वाले टीले के ऊपर चमकने लगा। तभी घुमक्कड़ी की नज़र दूर उड़ते हुए धूल के बादल की ओर गई। उसने फुसफुसा कर ननकू से कहा, “देख रही हो उधर, लगता है बहुत सारी गाडियाँ आ रही हैं।” ननकू लपक कर पेड़ की सबसे ऊँची डाली पर पहुँची और देखा तो सच में शहर की ओर से एक के पीछे एक कई सारी गाडियाँ जंगल की ओर बढ़ रही थी। जैसे ही वो ज़रा करीब आए और वैसे ही घुमक्कड़ी और ननकू ने अपने साथियों के साथ ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ करनी शुरू करदी। बस इशारा मिलने की देर थी, हाथियों का झुंड चिंघाड़ता हुआ आगे बढ़ा, उधर जिराफ दौड़ने लगे और पेड़ों की डालियों से लटकते हुए बंदर कूद पड़े। जानवर गुस्से में हुंकार मचा रहे थे। और फिर जानवरों का ये दल शहर से आने वाली गाड़ियों पर टूट पड़ा। अचानक हुए ऐसे हमले से शहर से आए लोग चौंक गए और डर के मारे गाड़ियों से कूद-कूद कर भागने लगे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर इन जानवरों को हो क्या गया है! जान बचाने के लिए उन्होंने गाडियाँ शहर की ओर मोड़ी और भाग छूटे। जानवरों ने उन्हें खदेड़ते हुए दूर तक भगाया जिससे वो फिर ना लौट आएँ। फिर हाथी दादा ने सबको रुक जाने के लिए कहा। सबके चेहरे पर जीत की खुशी झलक रही थी। नाचते-गाते-चिल्लाते वे जंगल में पहुँचे। हाथी दादा ने सोन चिरैया को बुलाया और कहा, “अब तुम्हें कोई डर नहीं है, आराम से रहो यहाँ। हमने उन लोगों को भगा दिया है। जब तक हम सब एक हैं, हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।” सोन चिरैया का चेहरा खिल उठा। उसने सभी को धन्यवाद दिया। घुमक्कड़ी बोला, “वैसे सबसे पहले खबर तो मैं ही लाया था।” ननकू बोली, “लो! ये फिर शुरू हो गया।” इस पर सभी जानवर ठहाका लगाकर हँस पड़े।
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शनिवार, 2 जून 2018

ओ तेरे नैना हैं जरा बेईमान से

यह कहानी है बाजा बाबू की। बाजा बाबू...उर्फ रंगलाल। रंगलाल कस्बे के इकलौते बैंडमास्टर प्रभुलाल का बेटा था। उस जमाने में शादियों में बैंड पार्टी को बुलाना बड़े रौब की बात मानी जाती थी, और फिर प्रभुलाल की बैंड पार्टी तो दूर-दूर तक मशहूर थी। बारात जब बैंड बाजे के साथ सज-धज कर निकलती तो गली-मोहल्लों में घरों से निकल कर औरतें-बच्चे-बूढ़े कौतूहल भरी नजर से बारात को देखते और बैंड बाजे की मधुर ध्वनि का आनंद लेते।
उन दिनों रंगलाल कस्बे की सरकारी स्कूल में ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता था। रोज शाम को उसके पिता अपनी बैंड पार्टी के साथ नए-नए गानों को बजाने का अभ्यास करते थे। अपने अभ्यास में वो अक्सर रंगलाल को भी शामिल करते थे। उनका मानना था कि बड़ा होकर उसे ही तो उनकी बैंड पार्टी को सँभालना है। रंगलाल को भी बाजा बजाने में बड़ा मजा आता था। गाने के सुर पीतल के बाजे से निकल कर उस पर सम्मोहन-सा करने लगते थे-
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
आज मेरे यार की शादी है
लगता है जैसे सारे संसार की शादी है
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
बजाते-बजाते रंगलाल की आँखें मुँद जाती और उसके पैर थिरकने लगते। प्रभुलाल इस बात पर अक्सर उसे डाँठते थे-
"बैंडमास्टर का काम गीत बजाने का है। इतना सुरीला बजाओ कि लोग झूमने लगें, नाचने लगें। ये नहीं कि खुद ही नाचने लगो।"
रंगलाल खिसियाकर हँसने लगता।
रंगलाल की कक्षा में ही कस्बे के माने हुए वकील धनपतराज जी की बेटी ललिता भी पढ़ती थी। रंगलाल उसे देखकर सोचता, "यह कितनी गोरी गट्ट है... ऐसा लगता है जैसे किसी ने धीरे-से प्लेट में एक रुपए वाली माखणिया आइसक्रीम सरका दी हो... हाथ से छुआ नहीं कि पिघली... बोलती कितना धीरे है...पास वाले को भी न सुनाई दे...।" कक्षा में रंगलाल का सारा ध्यान ललिता पर ही लगा रहता। स्कूल में कुछ ही बच्चे साइकिल लाते थे। ये सम्पन्न घरों के या नौकरीपेशा परिवार वालों के बच्चे होते थे। ललिता भी साइकिल से ही स्कूल आती थी। एक रोज़ छुट्टी होने पर ललिता ने जैसे ही साइकिल उठाई तो देखा पिछला पहिया एकदम नीचे बैठा हुआ था। साइकिल की यह हालत देख ललिता परेशान हो गई। कुछ लड़के-लड़कियों ने देखा भी, दो पल रुके भी, पर फिर धीरे-धीरे सब सरक लिए। ललिता के पड़ौस में रहने वाले ठेकेदार साहब का लड़का भँवर साइकिल से गुज़रा तो रुक गया। भँवर रंगलाल का पक्का दोस्त था। वह रोज़ उसे साइकिल पर बैठा कर अपने साथ लाता-ले जाता था। भँवर ने पूछा, “क्या हुआ ललिता, खड़ी कैसे है?” “... साइकिल,” बस इतना ही बोल पाई वह और उसका गला भर आया। रंगलाल ने आगे बढ़कर कहा, “ला अपनी साइकिल मुझे दे, मैं पंक्चर ठीक करवाके ले आऊँगा। तू भँवर के साथ चली जा।” ललिता भँवर की साइकिल पर बैठ कर चली गई। जाते-जाते उसने पीछे मुड़कर रंगलाल को और फिर अपनी साइकिल को देखा। पैदल-पैदल पंक्चर साइकिल को घसीटते हुए रंगलाल स्कूल से बाज़ार आया। रफीक चाचा की दुकान से पंक्चर बनवा कर वह ललिता के घर पहुँचा। पूरे दो घंटे धूप में चलते हुए उसका गला सूख गया था। ललिता का घर इतना बड़ा था कि उसे अंदाज ही नहीं आया कि वह कहाँ से उसे पुकारे। तभी एक नौकर ने उसे इधर-उधर झाँकते हुए देखा तो पूछा, “किस से काम है, यहाँ क्या कर रहा है?” नौकर ने थोड़ा डाँठते हुए पूछा था इसलिए कुछ पल को तो वह झिझका फिर बोला, “ललिता की साइकिल पंक्चर हो गई थी, ठीक करवाके लाया हूँ।” तभी अंदर का पर्दा हिला और ललिता बाहर आई। “हाँ-हाँ मेरी ही साइकिल है, अंदर रख दो इसे,” ललिता ने नौकर से कहा। नौकर साइकिल रखने लगा। रंगलाल ने मुस्करा के ललिता से कहा, “तू तो ऐसे ही परेशान हो गई थी, देखा! ठीक करवादी ना मैंने!” ललिता कुछ न बोली, सिर्फ थोड़ा-सा हँसी। सफ़ेद झक्क मोती बिखर गए। रंगलाल सोचने लगा कि हँसने से इसके गाल लाल हो गए या पहले से लाल ही थे। कब घर पहुँचा, पता नहीं। शाम को प्रभुलाल ने अपनी बैंड-पार्टी के साथ एक नए गाने का अभ्यास किया-
ओ फिरकी वाली, तू कल फिर आना
नहीं फिर जाना, तू अपनी ज़ुबान से
ओ तेरे नैना हैं ज़रा बेईमान से...

रंगलाल भी सुर पकड़ने लगा।

पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
ओ तेरे नैना हैं ज़रा बेईमान से...

इस बार रंगलाल को दूसरे बाजों की घनघनाहट की जगह सफ़ेद झक्क मोतियों के बिखरने की झंकार सुनाई दी और फिर उसके पैर थिरकने लगे-
ओ तेरे नैना हैं ज़रा बेईमान से...
“क्या कर रहा है?... सही सुर लगा ना... कितनी बार कहा है नाचने की जगह बजाने पर ध्यान दे,” प्रभुलाल ने बेसुरे होते रंगलाल को डाँठा। रंगलाल का मन उचट गया। बाजा रखकर वह माँ के पास चला गया। माँ तवे से रोटियाँ उतार रही थी। फूली-फूली रोटियाँ... फूले-फूले गालों जैसी...पर रोटियाँ उन गालों-सी लाल नहीं हैं... रंगलाल जाने क्या-क्या सोच रहा था। इस सुर को वह पकड़ नहीं पा रहा था। खाना खाकर भँवर के यहाँ चल दिया।
कल से गणित पढ़ाने मास्टर जी घर पर आएंगे। ललिता भी पढ़ने आएगी,” भँवर ने बताया। रंगलाल भँवर से गिड़गिड़ाते हुए बोला, “यार मुझे भी बैठा ले ना साथ में।” “नहीं-नहीं, मास्टर जी नाराज़ हो जाएंगे, पापा से कह देंगे,” भँवर बोला। रंगलाल क्या कहता। गुमसुम हो गया। अचानक भँवर ने रंगलाल के दोनों कंधों पर हाथ रखकर कहा, “मुझे सब पता है, तू ललिता से दोस्ती करना चाहता है ना, इसीलिए आना चाहता है नाबोल... सच है ना?” रंगलाल को झटके से हुए इस आक्रमण का अंदाजा न था। उसके टूटे-फूटे जवाब और चेहरे से उड़ते हुए भाव सब कुछ साफ-साफ कह गए। भँवर ने रास्ता निकाला, “मास्टर जी सीधे स्कूल से मेरे घर पर आएंगे। एक घंटा पढ़ाएंगे। उनके निकलते ही तू आ जाना। मैं ललिता को सवाल करने के लिए रोके रखूंगा। रंगलाल को विश्वास नहीं हो रहा था कि बात इतनी आसानी से बन जाएगी। आज उसे अपने दोस्त पर गर्व हुआ। दूसरे दिन स्कूल में उसे लगा कि सारे पीरियड इतने लंबे कैसे हो रहे हैं! छुट्टी क्यों नहीं हो रही है! छुट्टी होते ही रंगलाल भँवर के साथ घर को निकला। घर जाकर बस्ता पटका और खूब छपाछप पानी से मुँह धोया। बार-बार काँच में देखा, बाल ठीक किए। चप्पल डाले और ये जा वो जा। सीधे भँवर कि गली के नुक्कड़ पर गणेश मंदिर की सीढ़ियों पर जा बैठा। भँवर के घर के बाहर मास्टर जी की साइकिल दिख रही थी। साइकिल पर लगी नीले रंग की टोकरी दूर से ही पहचान में आ रही थी। समय बिताने के लिए कई गाने गुनगुनाए... या शायद एक ही गीत कई बार गुनगुनाया... ओ तेरे नैना हैं ज़रा बेईमान से। तभी मास्टर जी को साइकिल उठाते देखा। लपक कर पहुँच गया। मास्टर जी को नमस्ते कर सीधा ऊपर वाले कमरे में। उसको देखते ही भँवर थोड़ा-सा मुस्कराया फिर बोला, “अरे रंगलाल, आजा-आजा।” ललिता ने हल्के से सर उठाया और बोली, “मैं जाऊँ?” “नहीं-नहीं तू बैठ, मैं पानी लेकर आता हूँ,” कहते हुए भँवर कमरे से निकल कर नीचे चला गया। कमरे में ललिता और रंगलाल अकेले। ललिता का मुँह नीचे किताब में गड़ा हुआ, जाने क्या ढूँढ रही थी उसमें। रंगलाल एकटक उसे देख रहा। रंगलाल को बदन में जैसे पानी उबलता हुआ-सा महसूस हो रहा था। कनपटियों पर मानो चींटियाँ रैंग रही हों। मन किया कि कस के भींच ले ललिता को। उसकी साँसे तेज़ होने लगी। सारे अंग बर्फ में जम कर जैसे अकड़ गए हों। तभी भँवर कमरे में आया। भँवर के हाथ से पानी का जग लेकर रंगलाल खूब सारा पानी एक साँस में पी गया। ललिता ने कॉपी किताब उठाए और चलने को हुई। “कल जल्दी आ जाना, सारे सवाल कर लेंगे,” भँवर ने कहा। ललिता ने गर्दन हिलाई और रवाना हो गई। जाते-जाते उसने रंगलाल को देखा और थोड़ा-सा मुस्कराई।  उसके जाते ही दोनों दोस्त किताबें एक तरफ फैंक कर बिस्तर पर लुढ़क गए। भँवर ने रंगलाल की आँखों में झाँकते हुए पूछा, “बता क्या किया?... क्या कहा उससे?... बोल ना।” भँवर को मस्ती सूझ रही थी। रंगलाल ने जब बताया कि उसने तो बात ही नहीं की तो भँवर झल्ला उठा, “चल साले, तेरे लिए इतनी मेहनत की और तूने सब बेकार कर दिया।” और फिर यही रोज़ का क्रम बन गया। रंगलाल और ललिता इसी तरह मिलने लगे। उनकी बातों में ज़्यादा तो रंगलाल ही बोलता था, पर ललिता भी अब बात करने लगी थी उससे। धीरे-धीरे उनकी दोस्ती बढ़ने लगी। 
शीतला-सप्तमी पर सात दिनों का मेला लगता था। मेले में खूब सारे झूले, दुकानें, बड़ी चहल-पहल रहती थी।
“ललिता! मेले चलें!... खूब मज़ा आएगा... झूले खाएँगे... घूमेंगे,” रंगलाल ने पूछा।
“मम्मी भेजेगी नहीं, और फिर वहाँ सारे लड़के देखेंगे... मैं नहीं आऊँगी।”
“दोस्त है ना मेरी, मेरी बात नहीं मानेगी!... तुझे मेरी कसम है।” थोड़ी देर चुप्पी छा गई। रंगलाल मुँह लटकाए बैठा था।
“ठीक है, मैं आ जाऊँगी,” रंगलाल का उतरा मुँह देखकर ललिता बोली, “पर मैं झूले नहीं खाऊँगी।”
“सच्ची, पक्का आएगी?...” रंगलाल चहक कर बोला। तय हो गया कि रविवार को सुबह ग्यारह बजे ललिता मेला मैदान के बाहर वाली प्याऊ के पास पहुँच जाएगी। वहाँ से उसके साथ एक चक्कर मेले का लगा कर वह घर लौट आएगी। रंगलाल ने अतिरेक खुशी में उसके दोनों हाथ पकड़ लिए। हाथ छुड़ाते हुए ललिता बोली, “अच्छा, अब मैं चलती हूँ, बहुत देर हो गई।” रविवार को आने में जैसे बरसों लग गए। बहुत लंबा इंतज़ार। उस रोज़ सुबह-सुबह नहा-धोकर रंगलाल मेले की ओर भागा। पैरों में जैसे पंख लग गए हों। मेला मैदान के बाहर वाली प्याऊ पर आकर साँस ली। कई बार, कई लोगों से टाइम पूछा। साढ़े दस... पौने ग्यारह... ग्यारह...। रंगलाल थोड़ा पीछे को चलता हुआ देखने लगा कि ललिता कहाँ तक पहुँची होगी। फिर प्याऊ तक लौटा। कभी बैठा, कभी उठा। फिर सोचा कहीं आकर निकल तो नहीं गई!... मेले में जाकर देखना चाहिए। हालाँकि मन मानने को तैयार नहीं था पर फिर भी वह मेले में आगे तक गया और देखकर आया। इस बीच उसकी स्कूल के कई लड़के भी निकले।
“रंगलाल! आजा मेले में चलते हैं।”
“नहीं-नहीं, तुम लोग चलो, मैं थोड़ी देर में आता हूँ।”
थोड़ी देर... और देर... बहुत देर! रंगलाल रूँआसा हो उठा। लगा कि गले में कुछ दब-सा रहा है। भारी कदमों से रंगलाल घर की ओर घिसटने लगा। दिन भर ऊपर वाली कोठरी में औंधा मुँह किए पड़ा रहा। शाम को मन लगाने के लिए वह अपने पिता की बैंड-पार्टी के साथ बाजा बजाने का अभ्यास करने गया। प्रभुलाल ने सबको नए गाने का अंतरा गाकर सुनाया-

पहले भी तूने इक रोज़ ये कहा था, आऊँगी तू ना आई
वादा किया था सैयां बन के बदरिया, छाऊंगी तू ना छाई
मेरे प्यासे नैना तरसे, तू निकली ना घर से
कैसे बीती वो रात सुहानी, तू सुनले कहानी, ज़मीं आसमान से
ओ तेरे नैना हैं ज़रा बेईमान से

बैंड-पार्टी के सब लोग लड़खड़ाते हुए सुर पकड़ने लगे। रंगलाल भी बाजे में साँसे उँड़ेल रहा था।          

पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
पहले भी तूने इक रोज़ ये कहा था
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
आऊँगी तू ना आई

रंगलाल की हिचकियाँ बंधने लगीं। आँखों से पानी छलकने लगा। लगा कि वह मेला मैदान के बाहर वाली प्याऊ के ऊपर बीचों-बीच खड़ा ज़ोर-ज़ोर से बाजा बजा रहा है।

मेरे प्यासे नैना तरसे, तू निकली ना घर से
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ

वह अपनी सारी ताकत लगाकर अपने फेफड़ों को फुलाता और बाजे को हवा से भर देता। उसकी साँस चुकती जा रही थी और बाजा बेसुरा होता जा रहा था। “कैसे बजा रहा है!... आराम से सुर को समझते हुए बजा,” प्रभुलाल अपने बेटे पर चिल्लाया। एक झटके से रंगलाल जैसे प्याऊ से नीचे गिर पड़ा। ललिता ऐसा ही करती थी। भँवर के घर पर खूब बातें कर लेती थी पर पर कहीं और मिलने के लिए नहीं आती। पूछो तो सौ बातें! “मम्मी ने आने नहीं दिया... घर पर मामाजी आ गए थे... स्कूल का काम बाकी था... क्या बोल कर घर से निकलूँ... ।” रंगलाल हर बार सोचता कि अब के तो गुस्से से फटकार ही देगा उसको, पर जैसे ही वह सामने आती उसका गुस्सा गायब हो जाता और वह उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में खो जाता। इधर एक बात और होने लगी थी कि रंगलाल जब-तब ललिता को छूने की कोशिश करने लगा था। कभी हाथ पर हाथ रख देना, कभी उसकी ठोड़ी पर हाथ रख कहना कि इधर तो देख, कभी चिपक कर पास बैठना... ऐसा ही बहुत कुछ। ललिता को छूते ही रंगलाल को ऐसा लगता जैसे रुई का बड़ा-सा फाया छू गया हो... रोम-रोम में बिजली दौड़ गई हो। एक ऐसा नशा जो सिर्फ खींचता था, समझ में नहीं आता था। ललिता को यह सब कुछ एकदम नया-सा और कुछ अजीब-सा भी लगता था। कभी-कभी वह झटके से खुद को रंगलाल से दूर कर लेती, पर कभी-कभी उसे यह अच्छा भी लगता था। रात को सोते समय जब वो छूना उसे याद आता तो उसकी छाती में धकधक होने लगती थी और वह तकिये को कस कर भींच आँखें बंद कर पड़ जाती। पल-पल, दिन-दिन दोनों एक अंजान सफर की ओर बढ़ रहे थे। सब कुछ होते हुए भी जैसे ललिता इस रिश्ते का भविष्य जानती थी। इसीलिए बीच-बीच में वह रंगलाल से दूरी बना लेती थी। पर रंगलाल की दीवानगी तो समंदर की तरह ठाठें मारती थी। जब ललिता कई-कई दिनों तक भँवर के यहाँ नहीं आती तो रंगलाल भँवर से मिन्नतें करके उसे ललिता के घर भेजता और उसे बुला कर लाने के लिए कहता, और फिर...! और फिर वही सब शुरू हो जाता।
इधर एक रोज़ प्रभुलाल ने घर में घुसते ही रंगलाल को बुलाया। “आज से तू भी चलेगा हमारे साथ शादी में बैंड बजाने के लिए,” कहते हुए उन्होने दो थैलियाँ रंगलाल को पकड़ाईं जिनमें उसके नाप की बैंड-मास्टर वाली ड्रैस थी। लाल वैलवेट का कोट और पैंट, जिनके किनारे पर सफ़ेद चमकीली गोट लगी हुई थी। वैसे ही रंग की तनी हुई कैप, पीतल का चमचमाता बैल्ट और काले जूते-सफ़ेद जुराब। गोटावत सेठ के बेटे की शादी थी। प्रभुलाल ने अपने बेटे को बैंड-पार्टी में अपने पास ही खड़ा कर रखा था। बारात कस्बे के बाज़ार से होते हुए बारातघर तक पहुँची। विशाल पंडाल सजा हुआ था। बारातघर के बाहर प्रभुलाल ने एक के बाद एक कई गाने बजाए। बाराती नाचने में मग्न थे। आखिर में बजा वो गाना- “ओ फिरकी वाली तू कल फिर आना...।” बजाते-बजाते रंगलाल उन्हीं बेईमान नैनों में डूब गया।

ओ तेरे नैना हैं ज़रा बेईमान से
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ

और फिर वही हुआ। उसके पैर थिरकने लगे। प्रभुलाल को गुस्सा आया। पर वहाँ तो इसे सब लोग एक अजूबे की तरह देखने लगे। और देखते ही देखते नोटों की बरसात शुरू हो गई। घराती-बाराती सब झूम उठे। कुछ बारातियों ने जोश में आकर रंगलाल को बीचों-बीच खड़ा कर दिया। अब बीच में रंगलाल अपनी मस्ती में थिरक रहा था और उसके चारों ओर बाराती। गाना खत्म हुआ।

ढम ढमा ढम ढम ऽऽऽ

बैंड-पार्टी के ड्रम ने सम पर आकर गाने को विराम दिया। गोटावत सेठ ने रंगलाल को इशारे से अपने पास बुलाया, “ओ बाजा बाबू! ज़रा यहाँ आना।” सेठजी ने बीस रूपए का नोट रंगलाल को दिया और खूब शाबासी दी। सेठजी का ऐसा करना था कि चारों ओर से आवाज़ें लगना शुरू हो गईं, “अरे सुनो बाजा बाबू, ये लो अपना ईनाम।” नोटों की बरसात से प्रभुलाल की नाराजगी हवा हो गई। कई लोगों ने प्रभुलाल से भी कहा, “वाह बैंड-मास्टर जी, आपका बाजा बाबू तो कमाल का है।” प्रभुलाल अपने बेटे की पहली व्यावसायिक सफलता पर फूला नहीं समा रहा था। यहीं से रंगलाल को एक नया नाम मिला- बाजा बाबू। बैंड बुक करवाने वाले लोगों में से कई लोग तो कह भी देते थे, “बाजा बाबू को ज़रूर लाना।” रंगलाल को बहुत खुशी होती जब उसे लोग बाजा बाबू कहकर पुकारते। हर बारात में वह एक-दो गाने जमकर बजाता और जब उसे मस्ती चढ़ती तो उसके पैरों का थिरकना शुरू हो जाता और लोगबाग रूपए लुटाने लगते। रंगलाल शादियों में सजे हुए दूल्हा-दुल्हन को बड़े चाव से देखता था। सजी हुई दुल्हन उसे हमेशा बहुत सुंदर लगती। वह सोचता, “ललिता भी किसी दिन दुल्हन बनेगी... ऐसे ही सजेगी... कितनी खूबसूरत लगेगी... वह खूब मस्त बाजा बजाएगा... पर क्यों?... क्या वह ललिता का दूल्हा नहीं बनेगा...?” ऐसी ही ऊटपटाँग बातें उसके मन में चलती रहती थीं। बाजा बाबू की विशेष माँग और उससे बढ़ने वाली आमदनी को ध्यान में रखते हुए प्रभुलाल अपने बेटे को हर शादी-प्रोग्राम में ले जाने लगा।
स्कूल में परीक्षाएँ शुरू हो गई थीं। अब रंगलाल का ललिता से मिलना भी कम हो पाता था। एक बार बाज़ार से निकलते हुए उसने उसे नाहटा क्लोथ स्टोर में देखा था। साथ में बैठी औरत उसकी माँ होगी, उसने अंदाज़ा लगाया था। ललिता की नज़र जैसे ही उस पर पड़ी एक पल के लिए वह मुस्कराई, फिर उसने खुद को संयत कर लिया और नज़र फेर ली। परीक्षा खत्म हुई, छुट्टियाँ लग गईं। एक दिन अचानक भँवर ने बताया कि ललिता तो पूना चली गई है, अपने मामा के यहाँ। रंगलाल क्या कहता। उदास हुआ। सोचा, “मिल के भी नहीं गई... भँवर ने भी पहले नहीं बताया... अब जाने कब आएगी...!” सामने पड़ी ये... लंबी गर्मी की छुट्टियाँ! दिन को जब धूप सड़कों का डामर पिघलाने लगती और गरम लू की लपटें भाँय- भाँय करती किसी चुड़ैल-सी डोलती रहती थी, ऐसे में भी रंगलाल भँवर के घर इसी आस में पहुँच जाता कि शायद आज ललिता के आने की खबर मिलेगी। लेकिन हर बार निराशा भरी खबर बंद कमरे में पंखे के नीचे भी अंदर से उसे इतना जला डालती जितना बाहर चल रही लू की लपटें उसके शरीर को न जला पातीं। ऐसे में एक उसका बाजा ही था जो उसे ललिता के करीब होने का एहसास करवाता था।
यह सब तो रंगलाल जैसे-तैसे झेल जाता पर इधर हुई एक घटना ने उसे भीतर तक तोड़ दिया। एक दिन भरी दोपहर में उसके पिता बाहर से आए तो उनका चेहरा लाल तमतमा रहा था। खाना खाने बैठे और दो कौर ही लिए थे कि जोरदार उल्टी आई। रंगलाल और उसकी माँ तो बुरी तरह घबरा गए क्योंकि उल्टी पूरी खून से सनी हुई थी। चक्कर खाकर प्रभुलाल वहीं गिर पड़ा और बेहोश हो गया। अस्पताल में डॉक्टर ने बताया कि शराब ने उसके शरीर के अंदर घाव कर दिये हैं। कस्बे के छोटे-से अस्पताल में शायद प्रभुलाल को बचा पाने की क्षमता नहीं थी। तीसरे दिन सुबह-सुबह हुई खूनी उल्टी ने प्रभुलाल के जीवन-संगीत पर विराम लगा दिया। रंगलाल पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। जिस दिन भँवर उससे मिलने आया तो उसके गले लगकर वह खूब रोया। दुख जीवन-रूपी रंगमंच पर अचानक से सारे पर्दे बदल डाल देता है जिससे देखते ही देखते सारे किरदार और सारे दृश्य बदल जाते हैं। रिश्तेदार धीरे-धीरे कन्नी काटने लगे। बैंड-पार्टी के भी कुछ लोगों ने मिलकर अपनी नई पार्टी बनाने की गुपचुप शुरुआत करली। कल तक प्रभुलाल के साए में सब एक थे, वे ही आज उसके न रहने पर अपना भविष्य असुरक्षित महसूस करने लगे। कुछ तो कब के भीतर ही भीतर अपना नया ग्रुप बनाने को तैयार बैठे थे, बस किसी अच्छे मौके की तलाश में थे। अपने पिता के कुछ वफादार साथियों के सहारे रंगलाल ने बैंड-पार्टी को फिर से खड़ा किया। वे बहुत संघर्ष के दिन थे। खुद नए गाने सीखना, अपनी टीम के साथ उन्हें बजाने का अभ्यास करना और शादियों में जाकर बजाना; इन सबके अलावा चुपचाप आँसू बहाती माँ को हौसला देना भी उसी के जिम्मे था। बीच-बीच में मौका निकाल कर कभी-कभार वह भँवर के घर भी हो आता। ललिता की कोई खबर न थी। ऐसे ही अपशगुनी दिनों में एक दिन यह खबर भी आई कि ललिता आगे अब अपने मामा के यहाँ रहकर ही पढ़ेगी। वैसे भी कस्बे में हायर-सैकेन्डरी स्कूल के आगे पढ़ाई थी नहीं। भँवर के घर पर भी बातें चल रही थीं उसे शहर के हॉस्टल में रखकर आगे पढ़ाने की। जिस दिन भँवर भी चला गया उस दिन रंगलाल को लगा कि अब उसके लिए ललिता के घर का आखिरी दरवाजा भी बंद हो गया है। बाहर का अकेलापन उसके भीतर पसरने लगा। हर वक़्त चुप्पी उसके चेहरे पर अपना स्थायी निवास बना चुकी थी। बाजा बजाना जहाँ उसके लिए जीवन-यापन की मजबूरी थी वहीं दूसरी ओर अपने भीतर की प्यास बुझाने का जरिया भी थी।
मौसम गुजरते चले गए। पतझड़ों ने पत्ते झाड़कर पेड़ों को डरावना बना दिया पर बहारें कोई भी नई कौंपल उगाने में कामयाब नहीं हुई। दिन-महीने-साल और फिर एक के बाद एक कई सारे सालों के ढेर तले रंगलाल कुचल कर रह गया, जो बच रह गया था, वह था बाजा बाबू।नितांत औपचारिकता से अपनी बैंड-पार्टी को ढोना और सुबह से शाम और शाम से रात तक पहुँचना उसे थका डालता। इसी थकन और भीतर के अकेलेपन ने उसे शराब तक पहुँचाया। और जो भी हो शराब एक काम ज़रूर करती कि बरसों के घने अंधकार को चीरकर बाजा बाबू को रंगलाल बना देती और ललिता को उसके पास बैठा देती। वह कभी हँसता, कभी रोता और कभी आधी रात में बाजा बजाने लगता-

ओ तेरे नैना हैं ज़रा बेईमान से
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ

बजाते-बजाते उसकी आँखें मुँद जाती और उसके पैर थिरकने लग जाते। बाजे में साँसे उँड़ेलते उसके फेफड़े थक जाते, बाजा बेसुरा होने लगता और रंगलाल निढाल होकर पड़ जाता। मीठी नींद उसे घेर लेती।
इसी तरह पाँच बरस बीत गए। इन पाँच सालों में कस्बा भी शहरी होने लगा था। कई नई-नई बैंड-पार्टियाँ बन गईं। शादियाँ भी ठेके पर होने लगी। ठेकेदार ही हर चीज की व्यवस्था करता। टैंट, खाना, रोशनी, सजावट से लेकर दूल्हे के लिए घोड़ी और बैंड-पार्टी भी ठेकेदार ही लाता। अब सीधे कोई बैंड-पार्टी बुक नहीं करता। लोगों के कामकाज की भागदौड़ तो ज़रूर कम हुई मगर इसका सीधा असर बैंड-पार्टियों की कमाई पर हुआ। इन ठेकेदारों के आगे-पीछे डोलो तब कहीं जाकर कोई बुकिंग मिलती थी। ठेकेदार औने-पौने पैसे देकर चलता करता। कई बार तो बारात में बजाते समय लोगों से बख्शीश में मिले रुपए ठेकेदार से मिलने वाले रुपयों से ज़्यादा होते थे।
एक दिन मनोहरलाल का आदमी बुलाने आया। मनोहरलाल कस्बे में शादियों का सबसे बड़ा ठेकेदार था।
“अरे आ भई बाजा बाबू, परसों की एक बुकिंग है, आ जाणा,” मनोहरलाल बोला।
फीकी-सी हँसी हँसते हुए रंगलाल ने कहा, “इस बार तो पैसे बढ़ाओ साहब, इतने में पूरा नहीं पड़ता।”
“तेरे से रोज़ का मामला है इसलिए बुलाता हूँ, वरना अपनी शकल तो देख..., ऐसे ही भूत-पलीत की तरह उठ के आ जाता है,” मनोहरलाल गरजता हुआ बोला। “जोगियों जैसी तो दाढ़ी बढ़ा रखी है, बैंड-पार्टी की ड्रेस देखो तो वही बरसों पुराणी; आजकल शादी-ब्याह में इन सब चीजों का भी ध्यान रखणा पड़ता है,” मनोहरलाल ने कहा।
रंगलाल ने खुशामदी स्वर में कहा, “इस बार में सब ठीक कर लूँगा, बस आप पैसे बढ़ा देना।
“ठीक है, ठीक है, मैं देख लूँगा,” मनोहरलाल ने लापरवाही से जवाब दिया।
चलते-चलते रंगलाल ने पूछा, “किसके यहाँ की बुकिंग है?”
“अरे बहुत बड़ी पार्टी है। मुझे तो बोल रहे थे कि बैंड-पार्टी भी शहर से बुलवालो पर मैंने ही मना किया, वैसे आर्केस्टा पार्टी बुलाई है शहर से,” मनोहरलाल ने बताया। “तूने नाम सुण रखा होगा ना वकील धनपतराज जी का, उन्हीं की बेटी की शादी है; गजब खर्चा कर रहे हैं,” मनोहरलाल उत्साह से बोलता ही जा रहा था। रंगलाल पर तो जैसे बिजली गिर पड़ी हो। कौन क्या बोल रहा है, वह कहाँ से कहाँ को चल रहा है, उसे कुछ होश नहीं रहा। उसी बेहोशी जैसी हालत में जाने क्या बड़बड़ाता वह घर पहुँचा। बिस्तर पर औंधा पड़ गया। माथे को कभी तकिये के बाएँ कोने में दबाया तो कभी दाएँ कोने में, पर दर्द हल्का ना हुआ। “ललिता की शादी हो रही है और उसे पता ही नहीं चला... भँवर ने भी नहीं बताया... पर भँवर कौनसा यहाँ बैठा है जो उसे बताता... ललिता से मिलने का मन हो रहा है... कैसे मिलूँ... उसके घर जाऊँ... वहाँ कौन मिलने देगा...,” विचारों का जंजाल उसके चारों ओर फैल गया और वह एकदम अकेला, असहाय, छटपटा के रह गया। रात का इंतज़ार किए बगैर पीने बैठ गया। शराब अपने असर से बाहर हो चुकी थी। छत पर चढ़ गया। एकटक चाँद को देखने लगा। ये क्या! चाँद सफ़ेद झक्क मोती बिखेरने लगा! दूर... बहुत दूर... चाँद पर बैठी दिखाई दी ललिता। उसने हाथ बढ़ाया पर छू नहीं पाया। ललिता मुस्करा रही है... रंगलाल देख रहा है... देख रहा है... ललिता दुल्हन बनी हुई है... कितनी खूबसूरत लग रही है... वह उसके पास जाना चाहता है... उसे छूना चाहता है... पर बहुत भीड़ है उसके चारों ओर... कैसे जाए...! वह ललिता को पुकारता है... ललिताऽऽऽ!... बहुत शोर है चारों तरफ... ललिता उसकी आवाज़ भी नहीं सुन पा रही... वह इंतज़ार करेगा कि भीड़ हट जाए और वह ललिता से बात कर पाए... और फिर धीरे-धीरे रात की मदहोशी ने उसे अपने में समेट सुला लिया।
आखिर वो रात भी आई। बारातघर से दूल्हे राजा की बारात सजी। चमचमाती गाडियाँ, इधर-उधर चहक रहे सजे-धजे बाराती, जवान, बूढ़े, बच्चे, लड़कियाँ, औरतें। शहर से बड़े-बड़े लाउड स्पीकर वाली मशीन भी आई थी। एक खुली लॉरी में उसे बजाया जा रहा था। कान फोड़ने वाली जोरदार आवाज़ चारों ओर गूँज रही थी। उसके थोड़ा आगे पंजाबी ढ़ोल बज रहा था। ढ़ोल की ताल पर बाराती नाच रहे थे। बीच में सफ़ेद घोड़ी पर दूल्हे राजा सवार थे। उसके आगे बाजा बाबू की बैंड-पार्टी थी। दोनों ओर रंगीन रोशनी वाली गैस बत्तियाँ जल रही थीं। साक्षात इंद्रलोक की रौनक धरती पर उतर आई थी। बाजों की आवाज़ घनघना रही थी।

पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
आज मेरे यार की शादी है
लगता है जैसे सारे संसार की शादी है
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
बाज़ार से होती हुई बारात वकील साहब की कोठी पर पहुँची। कोठी खुद दुल्हन की तरह सजी हुई थी। सामने ही बहुत बड़ा शामियाना लगा था। लाउड स्पीकर, पंजाबी ढोल और बैंड-पार्टी सभी जम के शोर मचा रहे थे। नोटों की बरसात हो रही थी। बाजा बाबू ने नया गाना छेड़ा-
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
ओ फिरकी वाली, तू कल फिर आना
नहीं फिर जाना, तू अपनी ज़ुबान से
ओ तेरे नैना हैं ज़रा बेईमान से...

बारातियों में से कुछ नवयुवकों को यह गीत थोड़ा पुराने फैशन का लगा। या यूँ कहलो कि इसकी धुन पर उनसे नाचा नहीं जा रहा था।
“ए सुनो! कोई दूसरा गाना बजाओ,” एक ने कहा।
“कोई नया गाना बजाओ ना, वो डिस्को डांसर वाला आता है तुम्हें?” दूसरा बोला।
“अरे छोड़ो इसे, ये गाँव का बैंड है, कुछ नहीं आता इन्हें,” तीसरा बोला।
सब लड़के लॉरी के पास चले गए और लाउड स्पीकर से अपनी पसंद का गीत बजवाने लगे। इधर बाजा बाबू तो अपनी ही धुन में बाजा बजा रहा था।

पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
पहले भी तूने इक रोज़ ये कहा था
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ
आऊँगी तू ना आई

बाजा बाबू की आँखें मुँद गई और उसके पैर थिरकने लगे। बीच बारात में वह अकेला नाच रहा था। उसकी साँसें बाजे में समाती और एक चीत्कार बाजे से फूट पड़ता।

मेरे प्यासे नैना तरसे, तू निकली ना घर से
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ

इधर वकील साहब अपने समधियों और बारातियों को गले लगाकर, माला पहनाकर स्वागत कर रहे थे। कोठी के बड़े दरवाजे पर आकर औरतें मंगल-गीत गाने लगी थीं। पंजाबी ढोल और लाउड स्पीकर वाले सब शामियाने के एक कोने में बैठकर सुस्ताने लगे थे। बैंड-पार्टी के सब लोग भी बाजा बाबू की ओर देख रहे थे और सोच रहे थे कि अब बंद हो तो थोड़ा आराम मिले। पर बाजा बाबू तो बेसुध बजा रहा था। पेट से गले तक पहुँचती साँस पसलियों को चीरने लगी थी। बैंड-पार्टी के ड्रम ने कई बार सम पर विराम लगाकर गाने को बंद करने का संकेत दिया।

ढम ढमा ढम ढम ऽऽऽ

पर आज बाजा बाबू संगीत के अनुशासन को तोड़ कर रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था।

ओ तेरे नैना हैं ज़रा बेईमान से
पों पों पों पों पों पों ऽऽऽ

बाजा बाबू ने छाती में उठे दर्द को एक हाथ से दबाया और एक तरफ चल दिया। कुछ मकान छोड़ कर लंबी-सी चबूतरी पर जाकर पसर गया। वकील साहब ने आवाज़ लगाई, “लो भाई बाजा बाबू,” और कोट की जेब से सौ रुपये का नोट निकाला। बैंड-पार्टी के सबसे पुराने सदस्य राधेश्याम ने रंगलाल की ओर देखा और कहा, “जाओ बाजा बाबू, साहब ईनाम के लिए बुला रहे हैं।” जब उसने कोई जवाब नहीं दिया तो राधेश्याम खुद जाकर ईनाम ले आया और सीधे रंगलाल के पास पहुँचा। राधेश्याम ने सौ का नोट बाजा बाबू की तरफ करते हुए कहा, “इतना बड़ा ईनाम तो आज तक नहीं मिला।”

वहाँ उस ठंडी चबूतरी पर एक ओर साँसों की गर्मी से अभी भी दहकता हुआ बाजा पड़ा था और पास ही पड़ा था अपनी सारी साँसें बाजे में उँड़ेलने के बाद, बाजा बाबू का बेजान शरीर।

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