शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

साठ पार का आदमी

(डाॅक्टर सत्यनारायण के कविता-संग्रह 'साठ पार' को पढ़ते हुए...) 

लिख ही नहीं पाता कविता 

साठ पार का आदमी 

जैसे ही लिखने बैठता है

उसके भीतर का आठ पार वाला

अचानक उसकी कलम छीन

रंग जाता है पूरा पन्ना 

और शरारती नजरों से देख

गायब हो जाता है। 

और तब अक्सर खोया-खोया ताकता, 

रात भर जागता रहता है

साठ पार वाला आदमी। 

केटी
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प्यासे पीर-1

जाने क्यों...! 

भीतर जिनके देर तलक

होती रहती है बरसात,

भीगा-सा रहता है मन,

होते वे ही प्यासे-पीर।

प्यास में उनकी होता असर,

असर भी इस कदर

कि भर तन्हाई में डूब

देखते जब बादलों को

घटता चमत्कार

बरस उठते बादल

दूर देस में किसी प्यासे के भीतर।

केटी
****

गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

कुएँ की मेढकी


प्यारे बच्चो! तुम लोगों ने आसमान में उड़ने वाली परी की कहानी सुनी होगी, जंगल में रहने वाले शेर बहादुर और बुद्धिमान खरगोश की भी कहानी सुनी होगी, लालची बनिए और उसे सबक सिखाने वाले रामू की कहानी भी सुनी होगी; पर यह कहानी उन सबसे अलग है। यह कहानी तुम्हें आसमान की ऊँचाईयों में नहीं, पाताल की गहराईयों में ले जाएगी। ...तो तैयार हो ना, चलने के लिए! ...शाबाश!

छोड़ो राजा, छोड़ो रानी
मछली गाए, नाचे पानी
दिनभर होती, खींचा-तानी
आओ सुनलो,  एक कहानी

शहर से कुछ दूरी पर एक गाँव था। गाँव में एक कुआँ था। कुछ साल पहले तक लोग उस कुएँ का पानी पीते थे, पर जब से घरों में नल लग गए तो लोगों ने कुएँ से पानी निकालना बंद कर दिया। गाँव के सबसे बुजुर्ग जैरूप बा अक्सर बताते थे कि वो कुआँ पातालफोड़ गहरा है। मतलब ये हुआ कि उसकी गहराई पाताल तक थी। उस कुएँ में झाँको तो कुछ नज़र नहीं आता था, बस अँधेरा ही अँधेरा भरा हुआ था। उस अँधेरे कुएँ में खूब सारे मेढक रहते थे। दिनभर कुएँ में इधर-उधर डोलते रहते, जो मिला उसे खाते, कुएँ की दीवारों पर लगी काई पर फिसल कर कुएँ के पानी में गोता लगाते, रात को टर्र-टर्र करते हुए पूरे कुएँ को गुँजा देते और आखिर थक-हार कर सो जाते। वो कुएँ का गोल घेरा, उसमें हर समय भरा हुआ घना अँधेरा और वो गंदा, बदबूदार पानी ही उन मेढकों की दुनिया थी। दोपहर में जब सूरज पीपल के पेड़ के ठीक ऊपर आ जाता, तब उसकी रोशनी पीपल के पत्तों से छनती हुई कुएँ के अंदर पहुँच जाती और कुछ समय के लिए सब कुछ साफ-साफ दिखने लगता। पर मेढकों को इसकी आदत नहीं थी। वे सारा समय अँधेरे में रहते थे। रोशनी की चमक से वे डर जाते  और डर कर कुएँ की दीवारों के छेदों में या पानी की गहराई में चले जाते और तब तक वहीं दुबके रहते जब तक अँधेरा फिर से ना आ जाए। उन लोगों की जाने कितनी पीढ़ियाँ इसी तरह इसी कुएँ में बीत गई थीं।

इन्हीं मेढकों के झुंड में एक नन्ही मेढकी भी थी। वह इन सबसे अलग थी। अलग मतलब ये नहीं कि उसके छ: पैर और चार आँखें थी, बस उसका सोचना सबसे अलग ढंग का था। जैसे कि जब दिन में एक बार कुएँ में रौशनी उतरती और पानी चमकने लगता तो वह बहुत खुश हो जाती थी। कभी-कभी वह अपने साथी मेढकों को कहती, “कितना अच्छा हो अगर यही चमक हमेशा बनी रहे।” इस पर दूसरे मेढक डरते हुए कहते, “अरे मरवाएगी क्या मेढकी! वो थोड़ा-सा समय हम कैसे गुजारते हैं, वो हम ही जानते हैं। ... तुझे डर नहीं लगता है!” मुस्कराती मेढकी कहती, “मैं तो सोचती हूँ किसी दिन इस चमक को पकड़ कर ऊपर उठती जाऊँ और देखूँ कि ये आती कहाँ से है!” मेढक और घबरा जाते और तब उनमें से कोई एक उसके धौल जमाता हुए कहता- पागल मेढकी!’


ऐसे ही दिन गुजरते जा रहे थे और ऐसे ही रातें कट रही थीं। एक दिन कहीं से उड़ते हुए कुछ रंगीन कागज़ कुएँ में आ गिरे और पानी पर तैरने लगे। दोपहर के समय जब कुएँ में रोशनी हुई तो हमेशा की तरह बाकी सारे मेढक तो डर के मारे इधर-उधर जा छुपे पर मेढकी खुशी से चहकती हुई रोशनी की लकीर को छूने के लिए पानी के ऊपर आ गई। उसने पानी पर तैरते हुए उन रंगीन कागज़ो को देखा। वह उनके पास गई और हैरत भरी नज़रों से उन्हें उलट-पलट कर बार-बार देखने लगी। “अरे वाह! कितनी सुंदर-सुंदर चीजें बनी हैं! ... क्या सच में कहीं ऐसी चीजें होती होंगी! ... यहाँ तो कुछ भी ऐसा नहीं दिखता! ... कहाँ होती होंगी ये सब चीजें! ... क्या मैं भी वहाँ जा सकती हूँ!” मेढकी मन ही मन सोचने लगी। उस दिन के बाद सभी ने देखा कि वह अक्सर उदास, चिंता में डूबी हुई रहने लगी। कोई कहता, “अरे अपनी छुटकी मेढकी को क्या हो गया! मैंने आज उसे एक तरफ कोने में अकेले कुछ बड़बड़ाते हुए देखा। जाने खुद से ही क्या बातें किए जा रही थी!” कोई नई बात ही लाता और कहता, “इस नन्ही मेढकी पर उस चमकदार लकीर का साया पड़ गया है, इसकी नज़र उतारो वरना किसी काम की नहीं रहेगी।” लोग और भी कई तरह की बातें बनाते रहते। इधर मेढकी पक्का तय कर चुकी थी कि वह यहाँ से बाहर निकल कर उस नई दुनिया को देखेगी।
उसने बार-बार कुएँ की काई भरी दीवार से चिपक कर ऊपर चढ़ने की कोशिश की, पर हर बार फिसल कर गिर पड़ी। उसे गिरता देख उसके साथी मेढक ठहाका लगा कर हँस पड़ते। इतना ही नहीं, वे उसे चिढ़ाते भी थे- “अरे लगा ज़ोर, शाबाश!” मेढकी रुआँसी हो जाती और वहाँ से भाग जाती। बहुत बार उसके मन में आता कि अब ये कोशिश छोड़ देनी चाहिए पर थोड़ा समय बीतता और उसमें फिर से वही हिम्मत भर जाती और वह नया रास्ता तलाशने निकल पड़ती। 

एक दिन उसके कानों में मीठी-मीठी आवाज़ आई। वह समझ गई कि ये उसकी दोस्त चींटियों की आवाज़ है। चींटियाँ जब भी कुएँ की दीवार पर इधर से उधर जाती थीं तो ऐसे ही मीठे सुर में गाना गाते हुए निकलती थीं। चींटियाँ एक लाइन में चलते हुए मस्ती से गा रही थीं-
चले चलो भई चले चलो
चले चलो भई चले चलो
थकना अपना काम नहीं
बढ़े चलो भई बढ़े चलो

मेढकी पानी में तैरती हुई तेज़ी से आगे बढ़ी और दीवार के पास आकर अपनी दोस्तों को आवाज़ देने लगी। चींटियाँ चलते-चलते रुक गईं। रानी चींटी ने मुड़ कर देखा और बोली, “ओह! तो तू है। बोल प्यारी मेढकी, क्या बात है!” मेढकी ने कुछ संकोच के साथ, धीरे-धीरे फुसफुसाते हुए रानी चींटी से कहा, “तुम तो दिन-रात चलती रहती हो, जाने कहाँ-कहाँ जाती हो। मैं भी यहाँ से निकल कर देखना चाहती हूँ कि यहाँ के बाहर क्या-क्या है!” “हाँ तो देखो ना, ये दुनिया तो बहुत बड़ी है, जाने कितनी-कितनी दूर फैली हुई! कई तरह के जीव, कई तरह की चीजें, कई तरह की गंध, कई तरह के स्वाद... और भी जाने क्या-क्या है,” रानी चींटी बोली। मेढकी ने कुछ उदास होते हुए कहा, “मैंने बहुत कोशिश की यहाँ से निकलने की, पर घेरे की दीवार पर इतनी फिसलन है कि हर बार मैं फिसल कर पानी में गिर जाती हूँ। ... क्या तुम कोई और रास्ता बता सकती हो, जिस से मैं बाहर निकल जाऊँ!” रानी ने थोड़ी देर सोचा फिर कहा, “तुम ऐसा करो, यहाँ से घेरे के किनारे-किनारे चलती जाओ। आगे, बहुत आगे एक जगह ऐसी आएगी जहाँ घेरे का पत्थर अभी कुछ रोज़ पहले ही उखड़ा है, वहाँ से ऊपर तक एक दरार आई हुई है। इस दरार में अभी फिसलन नहीं हुई है, तुम उसके सहारे-सहारे घेरे से बाहर निकल जाना।” मेढकी की खुशी का ठिकाना ना रहा। उसने अपनी दोस्त रानी चींटी को धन्यवाद दिया। रानी चींटी ने मुस्करा के उसे देखा और अपने दल के साथ आगे बढ़ गई।


नन्ही मेढकी के तो जैसे पंख निकल आए। उसने कुएँ के घेरे के किनारे-किनारे चलना शुरू कर दिया। थक जाती तो कुछ पल ठहर जाती और थोड़ा सुस्ता कर फिर चल पड़ती। और फिर चलते-चलते वह उस उखड़े हुए पत्थर के पास पहुँच गई। सच में वहाँ फिसलन नहीं थी। वह आराम से दरार के सहारे-सहारे घेरे के ऊपर की ओर बढ़ने लगी। यात्रा इतनी आसान नहीं थी। अँधेरे रास्ते बहुत लंबे थे और कदम-कदम पर गिरने का खतरा था, पर नन्ही मेढकी की आँखों में सपने भरे हुए थे नई दुनिया को देखने के। उसके सपनों ने उसके मन में जोश भर दिया था। वह नाप-तौल कर एक एक कदम बढ़ा रही थी। जाने कितने दिन और कितनी रातें वह इसी तरह चलती रही। और फिर एक पल ऐसा भी आया कि उसे लगा कि उजाले कि वो लकीर पास आती हुई फैलती जा रही है, सब कुछ साफ-साफ दिखाई दे रहा है। इसी तरह चलते हुए वह कुएँ की मुँडेर पर जा पहुँची। उसने आखिरी छलांग लगाई और मुँडेर से बाहर कूद गई। उसे अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हुआ। दूर-दूर तक चारों और उजाला फैला हुआ था। उसने गहरी साँस भरी तब महसूस हुआ कि कुएँ की उस गंदी-बदबूदार हवा में और इस नई दुनिया की हवा में कितना फर्क है। बहुत देर तक वह वहीं बैठी इस नई दुनिया की नई-नई आती-जाती चीजों को, नए-नए जीवों को देखती रही। रह-रह कर तरह-तरह की आवाज़ें उसके कानों में पड़ रही थीं, जो इससे पहले उसने कभी नहीं सुनी थी। कितनी रंग-बिरंगी थी ये दुनिया! उसकी इच्छा हो रही थी कि ज़ोर से चिल्लाए और अपने साथियों को बताए कि देखो जो उसने कहा वो सही था, सच में ये दुनिया केवल कुएँ तक ही नहीं है, कुएँ के बाहर भी बहुत बड़ी दुनिया है।


बहुत देर तक वहीं बैठी रहने के बाद उसने अपने खाने-पीने-रहने का ठिकाना ढूँढना शुरू किया। कुएँ के ठीक पास ही एक छोटे गड्ढे में पानी भरा हुआ था। उसमें भी कुछ मेढक तैर रहे थे। जब उनकी इच्छा होती गड्ढे के बाहर आ जाते, घूमते-फिरते और फिर उसमें चले जाते। मेढकी ने गड्ढे के मेढकों से दोस्ती की और उनके साथ रहने लगी। अब वह कुएँ की उस अंधेरी, गंदी-बदबूदार कैद से आज़ाद थी। दिन गुजरने लगे। रोज़ मेढकी रोशनी में खूब घूमती, आस-पास के पेड़ों, झाड़ियों में रहने वाले पक्षियों से उसकी जान-पहचान बढ़ने लगी। कभी-कभार गाँव के बच्चे उधर खेलने आ जाते। वे खूब हल्ला मचाते, दौड़ते, भागते, पेड़ों पर चढ़ते, ज़ोर-ज़ोर से किलकारियाँ मार कर हँसते और देर तक मस्ती करते रहते थे। मेढकी पहले-पहल तो उनको देख कर डर गई थी, पर धीरे-धीरे उसे समझ आ गया कि वे सभी बहुत प्यारे हैं, वे उसे कोई नुकसान नहीं पहुँचाएंगे। उसने दूर देश से उड़ कर आने वाले सफ़ेद पक्षी भी देखे। उसके साथी मेढकों ने बताया कि हर सर्दी के मौसम में वे अपने घरों से बहुत दूर उड़ कर यहाँ चले आते हैं। वह सोचती कि अगर वह कुएँ से बाहर नहीं आती तो इतनी सुंदर दुनिया को भला कैसे देख पाती!
वैसे तो नन्ही मेढकी बहुत खुश थी पर कभी-कभी एक बात उसके मन को दुखी कर जाती थी। वह सोचती कि वह तो कुएँ से बाहर आ गई पर उसके साथी अभी तक उसी अँधेरे, बदबूदार घेरे में बैठे हैं। वह चाहती थी कि वे भी इस रोशनी और रंगों से सजी दुनिया को देखें और बाहर की खुली हवा में साँस लें। पर उनको बाहर निकालने का कोई रास्ता नहीं था, यही बात उसे उदास कर देती थी। पर फिर भी उसने आशा नहीं छोड़ी थी। 

एक दिन वह कुएँ के पास ही बैठी धूप में सुस्ता रही थी कि उसे कुएँ की मुंडेर के पास से एक जानी-पहचानी गुनगुनाहट सुनाई दी-

चले चलो भई चले चलो
चले चलो भई चले चलो
थकना अपना काम नहीं
बढ़े चलो भई बढ़े चलो

“अरे वाह! ये तो मेरी दोस्त चींटियाँ हैं,” मेढकी खुशी से उछलते हुए बोली। कुछ ही देर में चींटियाँ एक लाइन में धीरे-धीरे आगे बढ़ती हुई दिखाई दीं।
“कहो मेरी प्यारी दोस्तो, कैसी हो!” मेढकी ने पूछा।
चींटियाँ रुक गईं और रानी चींटी बोली, “अरे तुम हो नन्ही मेढकी!... कैसी हो तुम यहाँ!... आखिर तुमने हिम्मत की और कुएँ से बाहर आ ही गई।”
“ये सब तुम्हारे कारण ही हो सका रानी... तुमने रास्ता दिखाया और हिम्मत भी बँधाई... क्या मेरा एक काम और कर दोगी प्यारी दोस्त!” नन्ही मेढकी ने कहा।
“हाँ-हाँ, क्यों नहीं, तू बोल तो सही, तेरी मदद करके मुझे बहुत खुशी होगी,” रानी ने कहा।
“क्या तुम मेरे दूसरे साथियों को उसी रास्ते के बारे में और इस बाहर की सुंदर दुनिया के बारे में बताओगी!... क्या तुम उन्हें मेरे बाहर आने की कहानी सुनाओगी!” मेढकी ने हिचकिचाते हुए कहा।
रानी मुस्कराई और बोली, “हमें तेरेजैसी दोस्त पर गर्व है। तूने ना केवल खुद को उस अँधेरे से बाहर किया बल्कि अपने साथियों को भी वहाँ से बाहर लाने की चिंता कर रही हो। हम इस काम में तेरी पूरी मदद करेंगी।” इतना कहकर रानी अपने चींटी दल के साथ कुएँ के भीतर की ओर बढ़ गईं। “बहुत बहुत धन्यवाद मेरी प्यारी दोस्त,” कहते हुए मेढकी सामने वाले पीपल के पेड़ की ओर चल दी। वहाँ कबूतरों का परिवार कब से उसे बुला रहा था।
और फिर एक दिन वो भी आया जब मेढकी ने कुएँ के बाहर धप्प की आवाज़ सुनी। वह लपक कर गड्ढे से बाहर आई। उसने देखा तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसकी ही एक  साथी मेढकी कुएँ की मुंडेर के नीचे बैठी अचरज भरी नज़रों से चारों ओर एक नई दुनिया को देख रही थी।
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रविवार, 17 नवंबर 2019

एक दोस्त के नोट्स

1. जिन्दगी पर काबू पाना सीखना पड़ता है, वरना जिन्दगी नाक में नकेल डालकर नचाती रहती है और हमारे पास अफसोस के सिवा कुछ नहीं बचता।

2. वक्त सबके पास एक-सा रहता है। ये हम पर निर्भर करता है कि हम उसे कैसे कैसे, कहाँ कहाँ और किसे किसे देते हैं।... पर इस सबका अहसास हमें वक्त गुजर जाने के बाद ही होता है। और लोग इसीलिए वक्त को कोसते रह जाते हैं।

3. हर मोड़ से एक नई राह निकलती है। नई राह का स्वागत सूरज की पहली किरण की तरह करें तो जीवन में प्रकाश भर सकता है, आनंद के पंछी किल्लोल कर सकते हैं।... और सबसे खास बात ये है कि इसके लिए प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं है, मन को मोड़ा और वो मोड़ हाजिर हुआ।

4. बारिश की फुहारों में बेतकल्लुफ होकर भीगना अपने भीतर खोए बचपन को तलाशने जैसा है। और यकीनन बेहद खूबसूरत अहसास है ये।

5. ये आंशिक रूप से सही है। वर्कप्लेस का मेरा लम्बा और बहुआयामी अनुभव मुझे सिखाता है कि वर्कप्लेस पर सबके साथ दोस्ती होनी चाहिए। ये आपको काम में सुविधा और आनंद देती है। दोस्ती के अभाव में वर्कप्लेस दिनोंदिन अरुचिकर, नीरस और धीरे धीरे एक कुढ़न देने वाला बन जाता है।

6. यादें... झिरमिर झिरमिर बूँदाबाँदी वाले मौसम में कार के विंड स्क्रीन पर लटकती, ड्राइवर को शरारत भरी नजरों से तकती महीन बूँदें हैं। एक बार नहीं, दस बार वाइपर चला लो; कुछ पल के लिए ओझल हो जाएँगी, कब वापस आ जाएँगी, पता ही नहीं चलेगा। चोर नजरों से सीधे मन की खिड़की में झाँकने लगेंगी, अहसास करवाएँगी कि जब जब झिरमिर रुत हो तो वे विंड स्क्रीन पर उभरेंगी ही, क्योंकि सच तो ये है वे कभी कहीं जाती ही नहीं, वहीं रहती हैं।

7. अचानक से गायब हो जाना कैसा होता है!!...
यह सच है कि जिन्दगी के सफर में लोग मिलते हैं, बिछड़ते हैं, कभी-कभी फिर मिलते हैं। मन की स्लेट पर कोई हल्की, कोई गहरी तो कोई बहुत गहरी रेखा खींच जाते हैं।... दूर जाता हुआ व्यक्ति बहुत दूरी तक दिखता रहता है... धीरे-धीरे उसका आकार छोटा और धुँधला होता जाता है... फिर भी देर तक दिखता रहता है... और अंत में दृष्टि-रेखा के अंतिम छोर पर वह एक बिन्दु के रूप में बदल जाता है पर वह बिन्दु भी बहुत दूर तक दिखता रहता है। तब कहीं जाकर वह आँखों से ओझल होता है।
... किन्तु, ठीक पास, एकदम करीब, हँसता-बोलता-खिलखिलाता, अपने छोटे-छोटे दुख-सुख बाँटता, कोई व्यक्ति एकदम गायब कैसे हो सकता है!! ठीक वैसे ही जैसे कमरे में बैठे हों, एक पल के लिए लाइट गई और जैसे ही अगले पल रौशनी हुई तो देखा एक व्यक्ति उठकर कहीं चला गया! ऐसे में हर पल, हर घड़ी यही खटका रहता है कि शायद वह फिर लौट आया।... पर जब दिनों, हफ्तों, महीनों तक दरवाजे तक गई हर नजर उदासी और निराशा की प्रतिध्वनि बन लौट आती है तब अचानक यह विचार एक विस्फोट के साथ समूची चेतना पर छा जाता है कि "अरे! वह तो गायब हो गया!"

केटी
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8. कितना कुछ गुजर जाता है पर तब भी घने कोहरे से ढका बहुत कुछ रह जाता है। यही वो कोना बन जाता है जहाँ हम बेसाख्ता उघड़ते चले जाते हैं, दबे हुए जख्म रिसने लगते हैं, दर्द की ठंडी लहर रीढ़ की हड्डी में बजबजाती रहती है, मन पर कटे कबूतर की मानिंद फड़फड़ाता रहता है... देर तक... बहुत देर तक!

कुछ ग़मों का एहतराम ख़ामोशी से करना होता है दोस्त!


केटी

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9. बचपन की खुशियाँ पूरे जीवन की अमूल्य निधि होती है जिसे हर व्यक्ति कंजूस की छुपी हुई पोटली की तरह संभाल कर रखता है, जब तब उसे टटोलता रहता है और खुश होता रहता है।

केटी


गुरुवार, 24 अक्तूबर 2019

लट्टू और डोरी


बच्चो, सुनो कहानी!

ना ही ये परियों की है,
ना इसमें राजा रानी।
ना ही ये जंगल की है,
ना कोई हाथी ज्ञानी।

शेर बहादुर, भालू, चीता,
ना ही है खरगोश।
चाँद पे चरखा काते बुढ़िया,
ना चिड़िया का जोश।

ओ माँ, मुझको बना रहे तुम,
समझे क्या अज्ञानी!
ऐसी भी क्या होती होगी,
कोई भला कहानी!

हाँ बच्चो, ये एकदम निराली कहानी है। ध्यान से सुनना, सुनना और गुनना।  एक था गाँव! और गाँव में, एक था लट्टू, एक थी डोरी। बच्चो, लट्टू देखा है ना आपने!... अरे नहीं नहीं, वो बिजली वाला लट्टू नहीं, मैं बात कर रहा हूँ डोरी से गोल-गोल घूमने वाले लट्टू की। ... तो हाँ, लट्टू अपना पूरा गोल-मटोल था। बदन पर उसके गहरी गहरी धारियाँ बनी हुई थीं। नीचे निकली हुई थी नुकीली कील। डोरी उन धारियों में कस के लिपट जाती और झटके से जैसे ही अलग होती, लट्टू गर्रर्रर्रर्र... से फिरकी लेता हुआ ये जा-वो जा! फिर तो काफी देर तक अपनी नुकीली कील के सहारे लट्टू इतराता हुआ गोल-गोल घूमता रहता और डोरी वहीं पास में बैठी उसका नाच देखकर खुश होती रहती।
लट्टू और डोरी के दोस्त थे गाँव के बच्चे। स्कूल की छुट्टी के बाद गाँव के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे बच्चों का जमघट लग जाता। कुछ बच्चे पकड़ा-पकड़ी खेलने लग जाते, कुछ गिल्ली-डंडा और कुछ बच्चे लट्टू घुमाने लग जाते। कुछ तो पेड़ के ऊपर चढ़ कर डालियों से नीचे को लटक कर झूला झूलने का मज़ा लेने लगते। एक बात पूछूँ!... क्या तुमने कभी किसी पेड़ पर चढ़ने का मज़ा लिया है?... जानता हूँ, ज़्यादातर बच्चे ना में ही उत्तर देंगे। एक बात तो मैं भी कहूँगा कि पेड़ पर चढ़ने के लिए शक्ति, बुद्धि और साहस- तीनों की ज़रूरत होती है। अगर कोई बच्चा पेड़ पर चढ़ने की कोशिश करता है तो उसमें इन तीनों गुणों का विकास होता है।खैर, ज्ञान की बात जाने ज्ञानी, अभी तो सुनो कहानी! लट्टू और डोरी बहुत पक्के दोस्त थे। वे खूब बातें करते रहते थे। लट्टू बड़ी-बड़ी गप्पें मारने में उस्ताद था। वो डोरी से अक्सर कहता, “तू तो निरी आलसी है, एक ही जगह पर पसरी रहती है। मैं तो दूर-दूर तक जाता हूँ, मैंने कई नई-नई चीजें देख रखी हैं।” डोरी पलट कर कहती, “ले जाता तो है नहीं कहीं, बस बातें सुनाता रहता है।” आसपास खेलने वाले बच्चे भी लट्टू और डोरी के दोस्त थे। वे भी उनसे बातें करते थे। सच पूछो तो उनकी भाषा केवल बच्चों के ही समझ में आती थी। ऐसे ही एक दिन डोरी ज़िद पकड़ कर बैठ गई कि उसे भी घूमने जाना है। लट्टू और उनके दोस्त बच्चों ने बहुत समझाया पर वह मानी ही नहीं। हार कर लट्टू बोला, “ठीक है मेरी माँ, ले चलूँगा घुमाने, अब तो खुश!” डोरी तो खुशी से मचलने लगी। दोस्त बच्चों ने उन्हें सीख दी-
एक बोला, “रास्ते के किनारे-किनारे चलना।”
दूसरा बोला, “शहर में गाड़ियों की बड़ी भीड़ रहती है, ध्यान से चलना।”
तीसरा बोला, “ अंजान आदमियों पर भरोसा मत करना, कोई उठा कर ले जाएगा।” इस पर सारे बच्चे खिलखिला कर हँस पड़े। गाँव की बाहरी सीमा तक सभी लट्टू और डोरी को छोडने आए। अब आगे का सफर दोनों को ही तय करना था। सब बच्चों ने हाथ हिला कर उन्हें विदाई दी। “जल्दी लौट कर आना, हम तुम्हारा इंतज़ार करेंगे,” कहते हुए बच्चे गाँव को लौट गए।
डोरी ने लट्टू पर लपेट कसी और ज़ोर से झटके से अलग हो गई। लट्टू नाचता हुआ आगे को बढ़ गया। डोरी चिल्लाई, “अरे मैं तो पीछे ही रह गई, मुझे भी तो साथ लेकर चल।” लट्टू घूमता हुआ पीछे को आया और बोला, “देख, ऐसे तो तू हमेशा पीछे रह जाएगी। तू ऐसे कर कि मुझसे अलग होते समय मेरे कंधों पर बैठ जाया कर, फिर मैं आगे जाऊँगा तो तू भी मेरे साथ ही होगी।” डोरी खुशी से खिल उठी। इस बार डोरी ने लट्टू की गोल-गोल धारियों में खुद को फँसाया और झटके से अलग होकर लट्टू के कंधों पर जा चढ़ी। लट्टू नाचता हुआ आगे बढ़ने लगा। डोरी ज़ोर से चिल्लाई, “वाह! मज़ा आ गया!” इस तरह लट्टू और डोरी अपनी यात्रा पर निकल पड़े। डोरी ने कहा, “कितना अच्छा लग रहा है। मैंने ये जगहें तो देखी ही नहीं थी।... अरे वो देख, कितनी सारी भेड़ें जा रही हैं!” लट्टू बोला, “हाँ-हाँ, भेड़ें घर को लौट रही हैं। शाम हो रही है। थोड़ी देर बाद रात हो जाएगी, फिर अँधेरे में रास्ता भी नहीं दिखेगा।” अँधेरा होने से पहले-पहले लट्टू शहर पहुँच जाना चाहता था। उसने डोरी से थोड़ा तेज़ लपेट फैंकने को कहा। डोरी ने पूरी ताकत लगाकर लपेट फैंकी और फिर से लपक कर लट्टू के कंधों पर सवार हो गई। लट्टू तेज़ी से शहर के रास्ते चल दिया। लट्टू को जोश दिलाने के लिए डोरी गाना गाने लगी-

तेज़ तेज़ तू चल मेरे लट्टू
तेज़ तेज़ ही चलता जा।
दाएँ-बाएँ देख ज़रा ना
आगे-आगे बढ़ता जा।

गाँव के पीपल का तू पोता
धरती माता का तू वीर।
तीखी नोक नुकीली तेरी
हर बाधा को देती चीर।

रात अँधेरी आ पहुँची है
आगे तेज़ निकलता जा।
तेज़ तेज़ तू चल मेरे लट्टू
तेज़ तेज़ ही चलता जा।

तेज़ तेज़ तू चल मेरे लट्टू
तेज़ तेज़ ही चलता जा।

गाना सुनकर सच में लट्टू को भी जोश आ गया। लट्टू ने अपनी गति बढ़ाई और तेज़ी से भागने लगा।
“अरे-अरे ज़्यादा जोश में कहीं मुझे गिरा मत देना,” डोरी बोली।
“अब तू थोड़ी देर चुपचाप बैठी रह, और हाँ मुझे कस के पकड़ लेना,” लट्टू ने कहा। रात का अँधेरा चारों ओर छाने लगा था। तभी लट्टू ने डोरी को दूर चमकती रौशनियाँ दिखाईं। “ये क्या हैं!” डोरी ने आश्चर्य से पूछा। लट्टू ने हँसकर कहा, “ये शहर की रौशनियाँ हैं। रात भर शहर ऐसे ही जगमगाता है। अपने गाँव की तरह नहीं कि शाम होते ही अँधेरा घुप्प!” डोरी की आँखें फटी की फटी रह गईं। “रात भर इतनी रौशनी रहती है शहर में!” डोरी इतना ही बोल पाई। गाँव की रेतीली पगडंडी कब की खत्म हो चुकी थी। उसकी जगह शहर की चौड़ी-चौड़ी सड़कों ने ले ली थी। सड़क के बीचोंबीच थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बिजली के खंभे लगे थे। खंभों पर बहुत बड़ी दूधिया लाइटें जगमगा रहा थीं। लट्टू अब चलते-चलते थक गया था। “आज रात यहीं आराम करेंगे,” लट्टू ने डोरी से कहा और दोनों सड़क से नीचे उतर एक नाले के किनारे टिक गए। सड़क पर तेज़ आवाज़ करते हुए गाडियाँ आ-जा रही थीं। डोरी बोली, “राम जाने शहर के लोग इतने शोर में रहते कैसे होंगे!” लट्टू उबासी लेते हुए बोला, “अरे आदत पड़ गई है यहाँ के लोगों को, अब इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। तू भी सोने की कोशिश कर, कल सुबह आगे चलेंगे। मुझे तो थकान के मारे नींद आ रही है।” “नींद तो मुझे भी आ रही है पर यहाँ बदबू कितनी है! ढंग से साँस भी नहीं ले पा रही हूँ, डोरी ने कहा। लट्टू गुस्से में झुँझलाता हुआ बोला, “अब तू सो जा। और तू नहीं सोती है तो मत सो, कम से कम मुझे तो सोने दे।” थोड़ी देर में दोनों कह-सुन कर जैसे-तैसे सो गए। सुबह की नर्म-नर्म धूप जब आँखों पर पड़ी तो दोनों उठे। पास की सड़क पर गाड़ियों की आवाजाही शुरू हो गई थी। कोई-कोई बड़ी गाडियाँ बच्चों से भरी हुई जा रही थीं। हँसते-खिलखिलाते बच्चों को देख कर लट्टू और डोरी दोनों बहुत खुश हुए। पर इन बच्चों और गाँव के बच्चों में फर्क था। ये ज़्यादा चमकदार और सुंदर कपड़े पहने हुए, सजे-धजे लग रहे थे जबकि गाँव के बच्चे साधारण कपड़े पहनने वाले थे। वहाँ तो कई बच्चे फटे पुराने कपड़े भी पहने रहते थे। आलस मरोड़ते हुए लट्टू बोला, “अब चलते हैं थोड़ा और आगे।” डोरी तो तैयार ही बैठी थी। दोनों फिर उसी तरह आगे बढ़ गए। लट्टू के कंधों पर सवार डोरी शहर को देख रही थी। सड़क के पास से ही कुछ छोटे रास्ते अलग हो रहे थे। वे रास्ते आगे जाकर बड़े-बड़े मकानों की ओर जाते थे। लट्टू धीरे-धीरे ही आगे बढ़ रहा था ताकि वे दोनों शहर को आराम से देख सकें। जहाँ तक नज़र जाती वहाँ तक मकान, दुकान, बाज़ार, गाड़ियों की लाइन, लोगों की भीड़ दिखाई देती थी। डोरी बोली, “बाप रे! इतने शोर-शराबे और भीड़-भाड़ में रहकर तो कोई पागल ही हो जाए! इससे तो अपना गाँव ही भला!” “ऐसी बात भी नहीं है डोरी, नहीं तो गाँव से इतने सारे लोग शहर क्यों आते! याद नहीं, मोहन के पिता जी ने शहर में आकर दुकान खोली और कुछ सालों में ही कितना बड़ा मकान बना लिया है,” लट्टू ने कहा। दोनों इसी तरह बातें करते हुए शहर को देखते हुए आगे जा रहे थे कि तभी डोरी की नज़र सड़क से लगी एक दुकान पर पड़ी। एक होटल के बाहर नल पर खूब सारे गंदे बर्तनों के ढेर के बीच एक बच्चा बैठा उन्हें साफ कर रहा था। “यह तो अपना चंदर है,” डोरी के मुँह से निकला। लट्टू ने नज़र घुमा कर देखा तो सच में वह चंदर ही था। “अरे! चंदर यहाँ क्या कर रहा है,” लट्टू बोला। “क्यों, याद नहीं, पिछले साल पाँचवी पास करने के बाद इसने स्कूल छोड़ दी थी और शहर काम करने आ गया था,” डोरी ने कहा। “अच्छा तो यहाँ काम करता है चंदर! पैसा भी खूब मिलता होगा! याद है ना, जब होली पर गाँव आया था तो सब बच्चों पर कैसा रौब झाड़ रहा था,” लट्टू ने कहा। वे दोनों बातें कर ही रहे थे तभी उन्होने देखा कि एक मोटा और बहुत लंबा आदमी वहाँ आया और एक जोरदार लात चंदर को मार कर चिल्लाया, “रात को बिना बर्तन साफ किए ही सो गया और अब काम करने में मौत आ रही है, जल्दी साफ कर सारे बर्तन।” उसकी लात से चंदर बर्तनों पर ही लुढ़क गया और रोते-रोते बोला, “रात को देर तक तो काम करता रहा, मेरे लिए खाना भी नहीं बचा, बस थोड़ी-सी सब्जी खाई। थकान इतनी हो गई थी कि वहीं नींद आ गई, इसलिए बर्तन साफ करना भूल गया।” वह आदमी गुस्से से लाल-पीला होकर फिर चिल्लाया, “मुझसे ज़ुबान लड़ाता है! ...काम करना है तो ढंग से कर, नहीं तो चलता बन, बहुत आते हैं तेरे जैसे यहाँ।” ऐसा कहकर दाँत पीसता हुआ वह आदमी वहाँ से चला गया। लट्टू ने जब देखा कि आसपास कोई नहीं है तो डोरी से फुसफुसा कर बोला, “एक लपेट देकर घुमा, हम लोग चंदर के पास चलते हैं।” घूमते हुए दोनों चंदर के पास जा पहुँचे। चंदर के हाथ साबुन के झाग में भरे हुए थे और वह रोता-रोता बर्तन धो रहा था। जैसे ही चंदर की नज़र लट्टू और डोरी पर पड़ी, वह रोना छोड़ अचानक बोल पड़ा, “अरे लट्टू और डोरी, तुम लोग यहाँ कैसे पहुँचे!” साबुन भरे हाथों को धोकर उसने लट्टू और डोरी को उठाया और एक ओर चल दिया। लट्टू धीरे-से बोला, “चंदर भैया, तुम्हारे ज़्यादा लगी तो नहीं! ...वह आदमी क्या इसी तरह तुम्हें रोज़ मारता है!” चंदर बोला, “अब क्या बताऊँ, पिताजी के अचानक बीमार हो जाने से घर की हालत बहुत खराब हो गई थी। इसलिए सोचा कि कुछ पैसे कमा कर घर वालों की मदद करूँगा और शहर चला आया। पर यहाँ तो बहुत तकलीफ है। थोड़ा-सा काम गलत हो जाने पर पैसे काट लेते हैं, मारपीट अलग से होती है।” डोरी ने गुस्से में कहा, “तो तुम ये काम छोड़ क्यों नहीं देते! इससे तो अच्छा गाँव में रहकर ही कुछ काम करो। इससे तुम्हारी स्कूल भी नहीं छूटेगी।” तभी उस मोटे आदमी की आवाज़ आई, “अरे ओ छोटू, जल्दी बर्तन साफ कर के ला।” डोरी ज़िद पकड़ कर बैठ गई कि चंदर को अभी ही ये काम छोड़ कर उनके साथ गाँव लौटना होगा। चंदर बोला, “तुम उस राक्षस को जानते नहीं हो, अगर मैंने जाने की बात की तो वह मुझे पीट-पीट कर अधमरा कर देगा।” लट्टू बोला, “तो उसे बताते ही क्यों हो, ऐसे ही भाग चलो!” “पर मेरे पैसे अंदर अलमारी में रखे हैं, उनको कैसे छोड़ दूँ,” चंदर दुखी मन से बोला। ये भी सही है। “चंदर ने बहुत मेहनत से पैसे कमाए हैं, उनको छोड़ना तो ठीक नहीं,” डोरी ने चंदर का साथ देते हुए कहा। लट्टू ने तरकीब सुझाई। तीनों ने एक योजना बनाई। चंदर ने डोरी को तो जेब में डाला और बर्तनों का ढेर उठा कर अंदर की ओर चला। जाते समय उसने जेब से लट्टू को निकाल कर उस मोटे के पैरों के आगे लुढ़का दिया। अंदर जाकर चंदर ने अलमारी खोल कर अपने पैसे निकाले। वही हुआ जिसका डर था। अलमारी की आवाज़ सुनते ही मोटा लपक कर अंदर की ओर बढ़ा और उसका पैर गिरा लट्टू की कील पर। लट्टू की तरकीब काम कर गई। “ओ माँ, मर गया रे, अरे मेरे पैर में ये क्या चुभ गया ...देखो कितना खून निकल रहा है ...अरे कहाँ मर गए सब लोग,” मोटा हाय-हाय करके चिल्लाता हुआ धप्प-से वहीं बैठ गया। इसी भागदौड़ का फायदा उठा कर चंदर भागा हुआ आया और लट्टू को उठा ये जा-वो जा। भागते-भागते उसने सड़क पार की और गाँव की पगडंडी पर पहुँच कर वहीं ज़मीन पर चित्त लेट गया। फिर तीनों खिलखिला कर हँस पड़े। चंदर बोला, “दोस्तो, आज तुम्हारी वजह से मुझे हिम्मत मिली और मैं उस जेल से आज़ाद हो पाया।” लट्टू मुस्कराता हुआ बोला, “खुश तो हम दोनों भी बहुत हैं पर पूरी खुशी तो मुझे नाच कर ही मिलेगी।” चंदर ने डोरी को लट्टू पर लपेट एक झटके से लट्टू को हवा में उछाल अपनी हथेली पर ले लिया। लट्टू चंदर की हथेली पर इतराता हुआ नाच रहा था। तीनों दोस्त गाँव की ओर बढ़ चले। डोरी खुशी में झूमती हुई गाने लगी-

हम हैं कमाल के मेरे भैया, हम हैं कमाल के,
चक्कर को घनचक्कर करदें, रस्ता निकाल के।
हम हैं कमाल के।।

मोटा सेठ बहुत गंदा था, बच्चों को दुख देता था,
अच्छा सबक सिखाया उसको, धरती पे डाल के।
हम हैं कमाल के।।

गाँव हमारा सबसे प्यारा, चलें उसी की ओर,
लट्टू और डोरी की बातें, रखना सँभाल के।
हम हैं कमाल के।।

हम हैं कमाल के मेरे भैया, हम हैं कमाल के,
चक्कर को घनचक्कर करदें, रस्ता निकाल के।
हम हैं कमाल के।।
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शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2019

थल्लम-थल्ली


सुवंश...! सुवंश...! क्या कर रहा है! वहाँ कहाँ जाकर बैठ गया...! वो देख, बॉल निकल गई,” गगन चिल्लाते हुए बोला। उधर दूसरी ओर कुछ बच्चे बॉल निकल जाने के कारण ज़ोर से चिल्ला कर बोले, “वाव! फेंटेस्टिक शॉट!”
शहर में बढ़ती हुई कॉलोनियों ने बच्चों से उनके खेलने के मैदान छीन लिए। कॉलोनी से सटे इक्के-दुक्के बगीचों में ही बच्चे खेलने की जगह पाते थे। यह कृष्णा नगर कॉलोनी के पास बने हनुमान मंदिर का बगीचा है, जहाँ कॉलोनी के बच्चे रोज शाम क्रिकेट खेलने आ जुटते हैं।
गगन दौड़ कर सुवंश के पास गया और बोला, “क्या हुआ, बैठ क्यों गया था!”
“एक घंटे से तो खड़े खड़े बोर हो रहा हूँ, बॉल तो आती नहीं, अब थोड़ा-सा बैठा तो बॉल निकाल गई,” सुवंश ने पलट कर जवाब दिया। सारे बच्चे गगन और सुवंश को घेर कर खड़े हो गए। सभी का यही मानना था कि इस खेल में तो ज़्यादातर खिलाड़ी बोर ही होते हैं।
“करें तो क्या करें, ये तो खेल ही ऐसा है,” दीपक बोला। तभी रघु का ध्यान बगीचे के कोने में बनी पत्थर की बैंच पर गया। वहाँ एक सफ़ेद बालों और चमकदार आँखों वाला लंबा-सा आदमी बैठा था। उसने ढीला-ढाला सफ़ेद कुर्ता पायजामा और पैरों में पी-टी शूज पहन रखे थे। वह बच्चों को इशारा करके अपनी ओर बुला रहा था। रघु ने सबको चुप करते हुए उधर देखने को कहा। बच्चों के लिए ये नई बात नहीं थी। कॉलोनी के बुजुर्ग सुबह-शाम बगीचे में घूमने के लिए आते रहते थे। हाँ, इधर जहाँ बच्चे खेलते थे वहाँ वे नहीं आते थे। वे पार्क के दूसरे हिस्से में घूमा करते थे। गगन ने सभी से पूछा कि क्या कोई उन्हें जानता है, पर सभी ने ना में ही जवाब दिया। वह आदमी मुस्करा रहा था और अभी भी बच्चों को इशारा करके बुला रहा था। सभी कुछ संकोच और कुछ कौतूहल के साथ उस आदमी तक पहुँचे। पहल रघु को ही करनी पड़ी।
“आप ने हमें बुलाया अंकल!”
“हाँ-हाँ,” गर्दन हिलाते हुए वह आदमी कहने लगा, “मैं इतनी देर से देख रहा हूँ कि खेलने को तो आप सब लोग खड़े हो पर खेलने का मज़ा दो-तीन लोग ही ले पा रहे हैं... मैं सही कह रहा हूँ ना!” बच्चों को हैरानी-सी हुई।
गगन बोला, “हाँ अंकल, है तो कुछ ऐसा ही।”
“तो तुम लोग कोई ऐसे खेल क्यों नहीं खेलते जिसमें सब लोग पूरा मज़ा ले सकें,” उस आदमी ने अपनी चमकदार आँखें बच्चों की ओर घुमाते हुए कहा। अब बच्चे खुलने लगे। वे आपस में खुसर-फुसर करने लगे। शायद जानना चाह रहे थे कि उनका कोई साथी कोई दूसरा खेल भी जानता है क्या!   हार कर दीपक बोला, “अंकल हमें तो बस यही खेल आता है। घर में तो वीडियो गेम्स टैम्पल रन, कार रेस, टॅाकिंग टॉम, पबजी खेल लेते हैं और बाहर क्रिकेट।” इस पर अंकल ठहाका लगा कर हँस पड़े। पीछे-पीछे सब बच्चे भी हँस दिए। “चलो मैं तुम्हें कुछ खेल सिखाता हूँ,” अंकल ने खड़े होते हुए कहा।
तुम लोगों ने कभी थल्लम-थल्ली खेला है?”
बच्चे चुप... एक-दूसरे को हैरानी भरी आँखों से देखते हुए बोले, नहीं, पर इसे खेलते कैसे हैं!”
“देखो, इसमें एक बच्चे को डम्मा दी जाएगी, मतलब वह सबको पकड़ेगा। बाकी बच्चे दूर खड़े रहेंगे। डम्मा वाला बच्चा ज़ोर से बोलेगा- थल्लम थल्ली!, इस पर सारे बच्चे एक साथ ज़ोर से बोलेंगे- कौनसी थल्ली! अब डम्मा वाला बच्चा कोई भी आसपास की जगह का नाम बताते हुए बोलेगा- उस जगह की थल्ली! सारे बच्चे उस बताई हुई जगह को छूने के लिए दौड़ेंगे। डम्मा वाला बच्चा उन सभी को पकड़ेगा। बताई हुई जगह यानि थल्ली को छू लेने वाले बच्चे तो बच जाएँगे लेकिन इससे पहले अगर किसी बच्चे को डम्मा वाले ने पकड़ लिया तो अब डम्मा उस पर आ जाएगी और इसी तरह खेल आगे बढ़ता रहेगा।”
बच्चों को खेल अच्छा लगा। उन्होने अपने बैट, बॉल एक ओर रख दिए और थल्लम थल्ली खेलना शुरू किया। बगीचे में किनारे किनारे रंग-बिरंगे फूलों के पौधे लगे हुए थे, बस इन्हीं फूलों को थल्ली के रूप में चुना जाना तय हुआ। सबसे पहले डम्मा ली गगन ने। गगन ज़ोर से चिल्ला कर बोला- थल्लम थल्ली!
जवाब में सब बच्चे दुगुने स्वर में चिल्लाए- कौनसी थल्ली!
गुलाब के फूल की थल्ली,” गगन बोला। और फिर हँसते-चीखते-किलकारियाँ मारते बच्चों का झुंड फूलों की क्यारियों की ओर लपका। कुछ ने गुलाब के पौधे को छू दिया, कुछ इधर-उधर भागते रहे। रघु पकड़ा गया। अंकल धीमे-धीमे कदमों से चलते हुए फिर से उसी बैंच पर जा बैठे। वे बच्चों को हँसते-खेलते देख कर मुस्करा रहे थे। अब रघु डम्मा दे रहा था। रघु ने थल्ली बताई- पीले फूल की थल्ली! कई बच्चे पीले फूल की ओर भागे पर शरारती बिट्टू अड़ गया, “नाम बताओ फूल का, खाली पीला फूल कह देने से काम नहीं चलेगा।” खेल रुक गया। सब बच्चे इकट्ठा हो गए। ऐसी परेशानी भी आ सकती है यह तो किसी ने सोचा भी नहीं था। एक गुलाब के फूल को छोड़ कर किसी ओर फूल का नाम कोई बच्चा नहीं जानता था। मामला बीच में ही लटक गया। सबने बिट्टू को समझाने की बहुत कोशिश की पर वह तो जैसे अड़ ही गया। बच्चों का खेल रुका हुआ देखकर अंकल उठे और बच्चों के पास आ गए। “क्या हो गया, खेल बंद क्यों कर दिया...! अच्छा नहीं लगा क्या...!, अंकल ने पूछा।
“खेल तो बहुत अच्छा चल रहा था अंकल, पर यह बिट्टू कह रहा है कि थल्ली बताते समय फूल का नाम भी बताना पड़ेगा, पर हम लोगों को तो एक गुलाब के फूल का नाम पता है, बाकी किसी का नाम तो हम जानते ही नहीं,” दीपक उखड़ता हुआ बोला। उसे बिट्टू पर बहुत गुस्सा आ रहा था। उसकी ज़िद ने अच्छे-खासे खेल का मज़ा बिगाड़ दिया था।
“तुम लोग रोज़ इन फूलों के बीच में खेलते हो, तुम्हें इनका नाम भी पता नहीं है!” अंकल ने आश्चर्य से पूछा। ये तो वही बात हुई कि हमें हमारी गली में रहने वाले पड़ौसियों के नाम  भी पता नहीं,” अंकल ने मुस्कराते हुए कहा। “आओ मेरे साथ, मैं बताता हूँ तुम्हें इन फूलों के नाम,” कहकर अंकल आगे-आगे चल दिए और सभी बच्चे उनके पीछे हो लिए।
“देखो, ये जो पीले और केसरिया रंग के छोटे और एकदम भरे हुए फूल हैं, ये दोनों ही हजारे के फूल हैं। इन्हें गेंदे के फूल भी कहते हैं। इन सफ़ेद वाले फूलों को चमेली के फूल कहते हैं,” अंकल ने फूलों कि ओर इशारा करके बताया।
रघु ने दूसरी ओर लगे पीले फूलों की ओर देखते हुए पूछा, अंकल, ये भी हजारे के फूल हैं क्या, है तो पीला पर कुछ अलग-सा दिख रहा है।”
“नहीं-नहीं, यह हजारे के फूल से बड़ा और फैला हुआ है। इसे सूरजमुखी का फूल कहते हैं। इसके बारे में कहा जाता है कि जिधर सूरज होगा, उधर ही यह अपना मुँह घुमा लेता है,” अंकल ने समझाया। बिट्टू बोला, “तब तो मिस्टर सूरजमुखी को संडे के दिन पूरा दिन देखेंगे, कि वे अपना मुँह सूरज की ओर घुमाते हैं या नहीं। दिलीप भड़क कर बोला, हाँ-हाँ, तू संडे को भी अपनी ज़िद पकड़ कर बैठ जाना। इस पर सारे बच्चे खिलखिला कर हँस पड़े। बच्चों को बड़ा मज़ा आ रहा था। अब अंकल दूसरी तरफ के फूलों की ओर बढ़े। यह देखो, इसे कहते हैं गुड़हल का फूल। लाल रंग के इस फूल में बीच में कलंगी निकली हुई है। देख रहे हो ना सब लोग!” अंकल ने पूछा। सभी बच्चे एक-दूसरे पर झुक कर फूलों को देख रहे थे। “अरे वाह, यह तो बहुत सुंदर है,” सुवंश बोला। दूसरे बच्चे भी गुड़हल के फूल की तारीफ करने लगे।
“फूल तो सभी सुंदर ही होते हैं। ये भी तुम बच्चों के जैसे ही हैं, हँसते-खिलखिलाते खूबसूरत लगते हैं,” अंकल बोले। तभी दिलीप दौड़ कर एक पेड़ के पास पहुँच गया और लगभग चिल्लाते हुए बोला, “अरे देखो अंकल, इस पेड़ पर कितने सारे फूल खिले हुए हैं!” अब तो सारे बच्चे उस पेड़ की ओर दौड़ पड़े। सबने पेड़ पर लगे फूलों को देखा। लाल और केसरिया रंग दोनों मिलकर उन फूलों को एक नई चमक दे रहे थे। फूलों के बीच में लगी खूब सारी लाल-लाल कलंगियाँ उनकी सुंदरता को बढ़ा रही थी। पूरा पेड़ फूलों से जगमगा रहा था।
“ये गुलमोहर के फूल हैं बच्चो,” अंकल ने पास आते हुए कहा। बच्चे आज एक नए संसार से परिचित हो रहे थे।
“ये पास में ही जो हल्के लाल रंग के फूल देख रहे हो ना, जिसमें बीच में सफ़ेद फूलों की कलंगी लगी है, इन्हें ब्यूगनवेलिया कहते हैं,” अंकल ने पास ही लगे फूलों की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा। बच्चे इस अटपटे नाम पर खिलखिला उठे। कई कई बार गलत उच्चारण करते हुए आखिरकार सही बोल पाए- ब्यूगनवेलिया। रघु बोला, इसे पहचानना सबसे सरल है। हल्के लाल रंग का फूल और उसमें कलंगी पर सफ़ेद फूल, यानि फूल के अंदर फूल, तो वो है ब्यूगनवेलिया का फूल।
शाबास! इस तरह तुम सभी फूलों की पहचान बना सकते हो। और हाँ, अब तो तुम यहाँ के सारे फूलों के नाम भी जान गए हो, अब खेलो आराम से,” कहते हुए अंकल फिर उसी बैंच पर जाकर बैठ गए। बच्चे एक एक करके सभी फूलों के पास गए और याद कर करके उनके नाम दोहराए। फिर क्या था, रुका हुआ खेल फिर से शुरू हो गया। बगीचे में बच्चों की आवाज़ गूँजने लगी-
थल्लम-थल्ली!...
कौनसी थल्ली!...
गुलमोहर की थल्ली!...
हजारे की थल्ली!...
गुड़हल की थल्ली!...
चमेली की थल्ली!...
शाम का अँधेरा घिर आया। बच्चे घर लौटने को हुए। एक बार सभी अंकल के पास पहुँचे। अंकल आँखें बंद किए हुए बैठे थे और मुस्करा रहे थे, मानो कोई अच्छी-सी फिल्म देख रहे हों। रघु बोला, “अंकल अब हम घर जा रहे हैं। आप कल भी आओगे ना!” अंकल भी उठ खड़े हुए। रघु के सिर पर प्यार से हाथ रखते हुए बोले, “हाँ-हाँ, ज़रूर आऊँगा, अभी तो और भी कई खेल सिखाने बाकी हैं। सब बच्चे खुशी से एक साथ बोल उठे, “अरे वाह, मज़ा आएगा, हम और नए खेल सीखेंगे। बिट्टू ने पूछा, “अंकल कौनसे खेल सिखाओगे, हमें नाम बता दो।”
ठहाका लगाते हुए अंकल बोले, “नहीं-नहीं, आज नहीं बताऊँगा। कल जब सीखेंगे नया खेल, तभी नाम भी पता चलेगा।
ठीक है अंकल, कल ही सही, पर आप आना ज़रूर,” दिलीप ने कहा। सभी बच्चे बाय-बाय अंकल कहते हुए घरों की ओर रवाना हुए। अंकल बगीचे से निकल कर दाहिनी ओर वाली सड़क पर बढ़ गए। वे मन ही मन शायद बुदबुदा रहे थे कि कल आइस-पाइस सिखाऊँ या घोड़ा-कबड्डी या सतोलिया या फिर शेर-बकरी
इधर बच्चों की टोली मस्ती में झूमती हुई कॉलोनी की ओर बढ़ रही थी। एक ही आवाज़ चारों ओर गूँज रही थी- थल्लम-थल्ली...!   

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शुक्रवार, 13 सितंबर 2019

वो कविता रचना मेरे कवि!

वो कविता रचना मेरे कवि!
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धन्यवाद मेरे कवि!

कि तूने अहसास करवाया मुझे

मेरी रगों तक पैठ चुके अँधेरे का,

अँधेरे के खौफ का,

स्याह काली पड़ती मेरी रूह का।

पर मेरे प्रिय कवि!

एक संकेत-भर कर देता,

कुछ शब्द दे देता

कर लेता जिससे मैं उजाले का संधान।

प्रतीक्षा करूँगा मैं प्रिय कवि!

कल और एक कविता की

चाँद की, उजाले की, भविष्य की।

केटी
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मंगलवार, 10 सितंबर 2019

संकल्प

संकल्प
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प्रेम गीत रचा जाएगा

किन्तु उससे पहले सुननी होगी

युद्ध की दास्तान

झेलने होंगे अनेकों घाव।

युद्ध के लिए

करने होंगे पार न जाने कितने बीहड़

क्रान्ति के आखर माँडते हुए

रंगने होंगे न जाने कितने आँगन

कितने नुक्कड़ों पर गुँजाने होंगे आह्वान के गीत

बजाते हुए डफ, मिलाते हुए ताल।

हर चीज मिट जाए

पर यह संकल्प जिन्दा रहेगा

कि कुछ भी हो जाए ऐ दोस्त!

ये सफर तय किया जाएगा

और आखिर एक दिन

प्रेम गीत रचा जाएगा।

केटी
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शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

जिज्ञासा

बच्चा जब घुटनों पर चलता है

सरकता, किलकता, मचलता रहता है

अचानक ठहर कर घुमाता है गर्दन

लक्ष्य करता किसी चीज को

अपलक ताकता रहता है।

वो चाहे खुद की परछाई हो

बूढ़ी दादी या मैं-मैं करती बकरी

या कोई टूटा हुआ खिलोना।

अपलक ताकते बच्चे की आँख

हो जाती फैल कर अंडाकार,

पुतलियाँ बदल जाती एक प्रश्नवाचक चिह्न में

वहीं से शुरू होता सफर

जिज्ञासा के 'जि' का।

केटी
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गुरुवार, 22 अगस्त 2019

उजाला

उजाला तैयार था

मुझ तक आने को

रुका रहा तब तक

जब तक मैंने बाँहें ना फैलाईं

अँधेरे के स्वागत में।

केटी
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गुरुवार, 11 जुलाई 2019

मन मेरा

एक घर है मन

आते हैं, जाते हैं मेहमान- विचार हैं।

कुछ मेहमान रहते लम्बे समय तक घर में

कुछ लौट जाते कुछ समय रहकर

कुछ केवल रखते पैर अंदर

और चल देते तुरंत उल्टे मुँह।

मेहमानों से होती घर में चहल-पहल

शान्त घर लगता अशान्त।

मैं देखता रहता हूँ आते जाते मेहमानों को

या कभी कभार खाली घर को भी

शायद देखना ही मेरी नियति है।

मेहमानों से ठुँसा पड़ा है घर

घर का मालिक मैं, दूर खड़ा हूँ घर से

जाऊँ कैसे भीतर।

केटी
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स्पर्श

कण-कण कर बदलता

बदलता जाता निरंतर

और एक वो क्षण ऐसा भी आता

कि बदल जाता समूचा मैं एक भीनी सुगंध में।

होता यह तब

जब साँसों के एकदम करीब आ

छू लेता वो मुझे।

केटी
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मंगलवार, 9 जुलाई 2019

पीड़ा

पेड़ जब उखड़ता है तेज अंधड़ में

गिर जाता धरती पर

अस्थमा के बलगम भरी छाती-सा हाँफता

लेता गहरी गहरी साँस

आखिरी साँस की इंतजार में।

किसी अदृश्य जड़ की बाल से भी बारीक कली

रह जाती जुड़ी धरती से

ठेठ गहरे पाताल में।

वो अदृश्य जड़ जो करती महसूस

खुद से बहुत दूर पड़े पेड़ का दुख

पर दिखती नहीं किसी को

कहती नहीं कुछ भी

दुख में बनती चिर सहभागिनी

वो... पीड़ा है।

केटी
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