हर रोज़ उसके करीब से गुजरता
देखता उसे, होता उदास
अब वो ज्यादा दिन नहीं रहेगा।
हैरान था हर रोज बढ़ती जाती उसकी अकड़
जाने किस बात का घमंड है इसे
सोचता रहता, परेशान होता मैं।
और फिर आखिरी पल भी आ गया
उसकी अकड़ कुछ और बढ़ गई
खिन्न मन से, किंचित उपेक्षा से बोल उठा मैं-
ऐ अदने-से पेड़ के झरते हुए पत्ते!
किस बात पर अकड़ रहा है,
जबकि तू मर रहा है!
जर्जर पीला पत्ता कुछ और ऐंठता बोला-
जा रे मिट्टी के ढेर!
छोटी-सी ज़िन्दगी में
मैंने दी हरियाली, नमी और बख्शी प्राणवायु,
अब झर जाऊंगा, मर जाऊंगा
फिर मिट्टी में मिल खाद बन
करूंगा अपनी जड़ों को कुछ और मजबूत, कुछ और गहरा।
फिर जन्मेंगे मुझ जैसे अनेकों पत्ते
पेड़ लहलहाएगा।
और तू!
मरेगा, खाक बन बिखरेगा
करेगा हवा को कुछ और जहरीला।
सोच मिट्टी के ढेर!
तू अपनी जड़ों के लिए क्या करेगा!
शर्म से सर झुका मैं चुप हो गया
देखते ही देखते शान से पत्ता झर गया।
केटी
****