शुक्रवार, 31 मई 2019

कलुआ की क्रांति-कविता (तीसरा भाग- चक्रव्यूह भेदन)

आसान होता है समंदर में उतर जाना
तब तक, जब तक कि ना हो सामना तूफान से।
ढोल, नगाड़े, शंख, तुरही के स्वर
करते आकर्षित सहज ही
किसी को भी रणभूमि में।
क्रांति के इस समर में कूद तो गया था कलुआ
पर अब था भयभीत
सामने खड़े थे चक्रव्यूह
सपनों का अंत निकट था।
कितना अद्भुत था वो दृश्य
क्रांति-योद्धा दिखा रहे थे जौहर
अलग-अलग दल बनाकर।
ये 'अ-वादी', ये 'ब-वादी', ये 'स-वादी', ये 'द-वादी'
कोई प्रति-वादी तो कोई निर्वादी
क्रांति भी थी खाँचों में बँटी हुई।
कलुए ने भरी हुंकार
सहम गई दिशाएँ
बिखर गए चारों ओर शब्द ही शब्द।
कुछ दलों ने किए आघात
कुछ ने अपनाया, कुछ ने सहलाया
जम रहे थे अब कलुआ के कदम।
लड़ने चलते हैं जो शोषण से
जाने कब लड़ने लग जाते हैं आपस में
बन जाते हैं खुद शोषण के यंत्र।
कविता से झरते हैं जिनके प्रेम के फूल
मन की बगिया उनकी
होती जर्जर नफरत से।

केटी
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सोमवार, 27 मई 2019

छोटू का पेड़


सुनो बच्चो कहानी!
एक थी चिड़िया। उसके थे चार बच्चे। सुबह-सुबह बच्चे लगे चिल्लाने।
"समझ गई, समझ गई, तुम्हें भूख लगी है। थोड़ा सब्र करो, मैं अभी तुम्हारे खाने के लिए कुछ लाती हूँ," चिड़िया ने कहा। चिड़िया फुर्र से उड़ कर गई और कहीं से कुछ बेर ले आई। दो-दो बेर उसने सब बच्चों को बाँट दिए। सभी ने मीठे-मीठे बेरों का मज़ा लिया। चिड़िया का सबसे छोटा बच्चा सोचने लगा कि क्यों न कोई ऐसी तरकीब की जाए कि रोज़ मीठे-मीठे बेर खाने को मिलें। अचानक उसके मन में आया... अच्छा क्या आया होगा बताओ तो ज़रा... चलो मैं ही बताता हूँ। उसके मन में आया कि एक बेर का पेड़ लगाना चाहिए। उसने अपने हिस्से का एक बेर बचा लिया। अपनी नन्ही-सी चौंच में उसे पकड़ जंगल के एक कोने में मिट्टी के नीचे ले जाकर उसे दबा दिया। आकर अपने भाइयों से कहने लगा, “सुनो-सुनो मैंने बेर का पेड़ लगाया है। रात को बरसात होगी और मेरा पेड़ बहुत बड़ा हो जाएगा। फिर हम उस पर खेलेंगे। खूब जी भर के बेर खाएँगे।तीनों बड़े भाई ज़ोर से हँसेकहने लगे, “अरे छोटू, तू तो मूर्ख है। ऐसे ही कोई पेड़ उगता है! उसके लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है।ऐसा कहकर सारे भाई उसका मज़ाक उड़ाने लगे। छोटा बच्चा बहुत उदास हो गया। पर फिर उसने मन ही मन पक्का निश्चय कर लिया कि चाहे जो कुछ हो जाए वह पेड़ लगाएगा ज़रूर।
रात बीत गईपर बरसात तो हुई ही नहीं। अब क्या किया जाए! पेड़ उगेगा कैसे!,” यह सोच कर चिड़िया का बच्चा चिंतित हो गया। उड़ते-उड़ते नदी पर पहुंचा। उसने देखा नदी में डमडम हाथी नहा रहा था। बस बन गई बात! उसने प्यार से डमडम को पुकारा, “डमडम दादा! मेरी एक मदद करोगे?” डमडम बोला, “बताओ क्या करना है।छोटू ने जब सारी कहानी सुनाई तो डमडम हाथी अपनी लंबी-सी सूँड में पानी भर कर चल पड़ा और उस जगह पर बरसा दिया , जहाँ मिट्टी में बेर दबा था। पानी का पड़ना था कि मिट्टी तो बह गई और बेर ऊपर आ गया। अब क्या किया जाए! यह तो गड़बड़ हो गई। छोटू रूआँसा हो गया। तभी उसे लक्की चिड़िया की आवाज़ सुनाई दी। "क्या बात है प्यारे बच्चे! तुम उदास क्यों बैठे हो!" छोटू ने लक्की चिड़िया को बेर के बारे में बताया। लक्की ने कहा, बेटे! तुम्हें पहले एक गड्ढा खोदना चाहिए, उसमें बेर को दबाना चाहिए, तब पानी देना चाहिए।" छोटू बोला, "लक्की आंटी मैं गड्ढा कैसे खोदूंगा?" "चलो मैं तुम्हारी मदद करती हूँ," लक्की ने कहा। और फिर लक्की ने अपनी तीखी चौंच से एक गड्ढा खोद दिया। फिर क्या था, अपना छोटू तो खुश हो गया। लक्की ने बेर को उसमें डाल कर उसके ऊपर खूब सारी मिट्टी डाल दी। दोनों मिलकर फिर डमडम के पास गए। डमडम ने कहा, "अरे बाबा, मैं रोज़ थोड़ा थोड़ा पानी उस जगह पर डाल दूंगा।” छोटू खुशी से चहकने लगा। लक्की भी छोटू को प्यार कर अपने रास्ते चल पड़ी। 
अब तो सुबह होते ही छोटू लपक कर उस जगह पहुँच जाता जहाँ उसने बेर दबाया था। उसे लगता आज पेड़ लग गया होगा। पर कुछ नहीं देख कर कुछ पल उदास होता तो दूसरे ही पल खुद को हिम्मत बँधाता। और फिर करते करते वो सुहानी सुबह भी आई। उस रोज़ छोटू आँखेँ मसलता हुआ, कुछ नींद में और कुछ जागा हुआ उसी जगह पर पहुँचा तो खुशी के मारे चीख उठा। वहाँ एक प्यारा-सा, नन्हा-सा कोमल पौधा उग आया था। उसने अपने सारे दोस्तों को बुलाया और उन्हें अपना पेड़ दिखाया। “ये मेरा पेड़ है,” कहते हुए छोटू खुशी से फूला नहीं समाता था। दिन बीतते चले गए। पौधा बड़ा होता गया। छोटू दिन भर अपने दोस्तों के साथ उसी पौधे के पास खेलता रहता था। डमडम हाथी को याद दिलाना भी नहीं भूलता था। “डमडम दादा, याद है ना, मेरे पेड़ को पानी देना है।” डमडम हँसता हुआ कहता, “ये भी कोई भूलने की बात है छोटू!” कभी-कभार लक्की चिड़िया उधर से गुजरते हुए पूछ लेती, “क्यों छोटू बेटे, तुम्हारा पेड़ अब कितना बड़ा हो गया है?” छोटू गर्व से बताता, “अरे लक्की आंटी, अब तो खूब बड़ा हो गया है।” हवाएँ बदलीं, गर्मियाँ गईं, बरसात आई, बरसात की फुहारें बीतीं और कड़कता जाड़ा आया... एक के बाद एक मौसम बदलने लगे। देखते ही देखते कल का छोटू भी बड़ा हो गया। अब तो वो अकेला ही दूर दूर तक उड़ने चला जाता था। जंगलों, पहाड़ों, नदियों के आसपास खूब डोलता। पर अपने पेड़ से वो उतना ही प्यार करता था। घर आते ही सबसे पहले अपने पेड़ को संभालता था। एक दिन खूब बारिश हुई। छोटू दोपहर तक घर से बाहर नहीं निकल पाया। दोपहर बाद जैसे ही बारिश थमी, वो घर से निकल अपने पेड़ के पास पहुँचा। उसने देखा पेड़ पर लाल लाल मोतियों के झुंड लगे थे। छोटू तो नाचने लगा। भाग कर अपने सारे दोस्तों को बुला लाया और कहने लगा, “देखो दोस्तो, अपने पेड़ पर बेर लगे हैं-खूब सारे बेर।” सबने मिलकर मीठे-मीठे बेर खाए। तभी छोटू के तीनों भाई हाँफते हुए वहाँ आए और बोले, “छोटू, तू तो हमारा प्यारा भैया है, क्या हमको अपने पेड़ से बेर नहीं खिलाएगा!” तीनों भाई छोटू की खुशामद करने लगे। छोटू ने कहा, “जाओ यहाँ से, एक बेर भी नहीं मिलेगा... याद है उस दिन तुम लोगों ने क्या कहा था!... तब तो सब मिलकर मेरा मज़ाक उड़ा रहे थे, अब आए हैं बेर खाने।”तीनों भाइयों ने छोटू से अपने किए की माफी मांगी। डमडम हाथी ने कहा, “छोटू ने कितनी मेहनत से यह पेड़ लगाया है। हम सब इसके बेर खा रहे हैं। हमें छोटू से सीख लेनी चाहिए। हम सब खूब सारे पेड़ लगाएंगे।” सारे जानवरों ने छोटू को खूब प्यार किया और उसे शाबासी दी।
तो ये थी कहानी। पर हाँ, एक बात तो मैं बताना भूल ही गया कि आज भी जंगल में उस बेर के पेड़ को सब जानवर छोटू का पेड़ कहते हैं।  
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शनिवार, 25 मई 2019

कलुआ की क्रान्ति-कविता(दूसरा भाग- क्रान्ति की राह)

डाल ही दो गर पैर किसी राह में
चलना तो आ ही जाता है
होता है रास्तों का भी
कुछ अपना फर्ज।
क्रान्ति की भट्टी में तपता
गलता पिघलता
नित नए रूप धरता
बन गया कलुआ कालीदास 'क्रान्ति'।
शब्दों की गिज़ा से भरपूर
शब्द खाना, शब्द पीना
ओढ़ना बिछाना भी शब्द
शब्दों के खोल में जा बसना।
उसकी हर गति, यति करने लगी आचरण
किसी शब्द की भाँति
कभी अभिधा, कभी लक्षणा तो कभी व्यंजना।
डकारें भी आती
तो सुनाई देता
मार्क्स और लेनिन का उदघोष।
शब्दों की जुगाली करता
चल पड़ा वो क्रान्तिवीर
सब कुछ बदलने को।
हैरान हुआ कलुआ देखकर
राह खचाखच भरी थी क्रान्ति की
कई थे हमसफर।
कुछ चल रहे थे
कुछ दौड़ रहे थे
कुछ बूढ़े क्रान्तिकारी
थे जवानों के कन्धों पर सवार
मगर वाह रे क्रान्ति का जज्बा
फिर भी बढ़ रहे थे।
भीड़ बहुत थी
आगे बढ़ने के लिए जरूरी था
कुछ को हटाना।
सोच में डूब गया कलुआ
नहीं लौट सकता पीछे
आगे तो बढ़ना ही है
क्रान्ति पुकार रही है।

केटी
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कलुआ की क्रान्ति-कविता(पहला भाग- एक कवि का जन्म)

रात भर खाँसती बीमार माँ को
नहीं ले जा सका अस्पताल
चौथे दिन भी।
जवान होती सुशीला के
फटे-उधड़े कपड़ों से झाँकते शरीर को
नहीं ढक पाया नए कपड़े लाकर
महीना बीत जाने तक भी।
जगह-जगह से जंग खाए
टीन के छप्पर को
नहीं बदल पाया
इस बरसात के आने तक भी।
नजर चुराने लगा
जब घर के चूल्हे-चौके से,
कतराने लगा जब
बीवी की आँखों में उगे प्रश्नों से;
उसी रात हीरा के ठेके पर
चढ़ा कर देशी दारू का अद्धा
लात मार कर सामने पड़े स्टूल को
लाल हुई आँखों को मसल
कलुआ जोर से चिल्लाया
अब नहीं चलेगा ये
बदल डालूंगा सब कुछ।
दनदनाता हुआ डोलने लगा गलियों में
दूर....बहुत दूर फैंक डाले छैनी-हथौड़े
डूब गया क्रान्ति में
उसी रात कलवा कवि हो गया।

केटी
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रविवार, 12 मई 2019

इश्क़ निराला

हर किसी का अपना अलग ही होता है इश्क़ का ककहरा

हर कोई रचता है अपने इश्क़ का नया सरगम

हर किसी के इश्क़ का इन्द्रधनुष चमचमाता नहीं सात रंगों में

कि शून्य से अनंत रंग रच लेता है हर कोई अपने इश्क़ में।

सर्दियों की ठिठुरन या कि गर्मी का ताप

बारिश की रिमझिम से उठता आलाप

हर किसी का इश्क़ देता हर मौसम को अलग अर्थ,

बादल, नदी, पहाड़, दूर तक फैला घना जंगल

या कि अलगोजे की तान-सा पसरा मीलों लंबा रेगिस्तान

हर किसी के इश्क़ में रहते नहीं एक से।

रंग, रूप, ध्वनि, गंध, स्वाद बदल जाते हैं इश्क़ में

अपनी ही दुनिया रचता है हर किसी का इश्क़ निराला।

केटी
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