गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

कवि का जन्म

पीड़ा जब छूती अपने चरम को

चीख भी कंठ के तंतुओं में उलझ

बदल जाती अश्रु झरती उच्छ्वास में

तैरती रहती पृथ्वी के सभी ऊपरी मंडलों पर

पाने को ठौर, रहने को ठिकाना।

युगों युगों की चिर प्रतीक्षा

वरदान बन देती उस चीख को चेतना का अंश

या कि अभिशप्त कर छोड़ देती उसे

पीड़ा के मर्म को गाने के लिए

चीख का इकतारा बजाने के लिए।

दोस्त मेरे!

यूॅं ही नहीं जन्म लेता है कवि कोई

पीड़ा चरम पर पहुंच

स्वयं होती रूपांतरित मनुज रूप में।


केटी
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विदा का पल

वो विदा का पल नहीं था

क्या हुआ जो तुम्हारी ऑंख नम थी

या कंठ था भरा हुआ

या कंपकंपाते होंठ कह रहे थे अनकही

या कि थम-से ग‌ए थे वे मुहुर्त

विदा इस तरह तो नहीं आती होगी

फिर क्या हुआ ऐसा कि हम-तुम

साॅंस रोके चल पड़े थे उस घड़ी!

जानती हो आ ग‌ए हैं दूर कितने

पल-प्रतिपल बढ़ रहा है फासला

देर तक सूरज निकलता ही नहीं

भोर रूठी छुप ग‌ई किस ठौर जाने

काश हम फिर लौट पाएं उन पलों में

बदल डालें उस विदा के श्राप को

गर जो होता सहज इतना लौटना

लौट कर तुमको किसी दिन मैं दिखाता

वो विदा का पल नहीं था

था नहीं, बिल्कुल नहीं था

वो विदा का पल नहीं था।

केटी
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शनिवार, 26 दिसंबर 2020

स्मृतियों के गवाक्ष

पुस्तक-समीक्षा:- ‘स्मृतियों के गवाक्ष’ (संस्मरण)
लेखक:- डॉ. आईदान सिंह भाटी
प्रकाशक:- रॉयल पब्लिकेशन, जोधपुर

यह तो तय है कि मनुष्य हर पल हर घड़ी नए अनुभवों से गुजरता है। ये अनुभव उसे न्यूनाधिक बदलते हैं, उसमें कुछ नया गढ़ते हैं, उसे परिष्कृत करते हैं। दैनंदिन जीवन में मिलने वाले लोग, घटने वाली घटनाएँ, खुशियाँ और हादसे ही अनुभवों के पल सँजोते हैं। वैसे तो रोज़मर्रा की जिंदगी और उसकी आपाधापी में हमें हमारे जीवन में आए उन विशिष्ट व्यक्तित्वों का खयाल नहीं आता किन्तु जब उम्र का एक लंबा सफर तय कर, एक पड़ाव पर आकर हम थोड़ा-सा ठहरते हैं तो मन पीछे पलट कर जीवन-यात्रा को देखने लगता है और तब खुलते हैं ‘स्मृतियों के गवाक्ष’, उनमें से दिखाई देने लगते हैं कुछ चेहरे, सुनाई देने लगती हैं कुछ स्वर-लहरियाँ, छन छन के आने लगते हैं जानी-पहचानी हवाओं के झौंके; और मन कुछ विस्मित-सा उन्हीं बीते हुए पलों को जीने लग जाता है। इन स्मृतियों का लेखन ही साहित्य में संस्मरण विधा के रूप में स्थापित है। हिन्दी साहित्य में बालमुकुन्द गुप्त द्वारा सन् 1907 में प्रताप नारायण मिश्र पर लिखे संस्मरण को हिन्दी का प्रथम संस्मरण माना जाता है। उसके बाद से द्विवेदी युग, छायावादोत्तर युग, स्वातंत्र्योत्तर युग से लेकर आज तक साहित्यकारों द्वारा निरंतर संस्मरण लिखे जाते रहे हैं। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा नामवर सिंह पर लिखित संस्मरण ‘हक अदा न हुआ’ ने इस विधा को एक नई ताजगी से भर दिया।    
 
डॉ. आईदान सिंह भाटी राजस्थानी के लब्ध-प्रतिष्ठित कवि, आलोचक और कथाकार हैं। इनकी सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘स्मृतियों के गवाक्ष’ में उन्होंने अपने जीवन में आए 17 विशिष्ट व्यक्तित्वों से जुड़े संस्मरण लिखे हैं। पुस्तक में सबसे पहले वे याद करते हैं बाबा नागार्जुन को। अपने प्रिय जनकवि बाबा नागार्जुन से मिलने की उनकी ललक, अपनी सुनाई हुई कविता पर मिला बाबा का स्नेहिल आशीष किस तरह उनकी चेतना में समा उनकी भाव भूमि का हिस्सा बन गया, ये संस्मरण हमें बताता है। इसी तरह अपने गुरूदेव आलोचना पुरुष नामवर सिंह जी और जोधपुर विश्वविद्यालय से जुड़ी घटनाएँ भी एक संस्मरण में आती हैं। ऐसे ही उनके जीवन में आए रामसिंह राठौड़ ‘डांवरा’, शिवमूर्ति, हरीश भादानी, रघुनंदन त्रिवेदी, दीनदयाल ओझा, शिवरतन थानवी, विजयदान देथा (विज्जी), ठा. नाहर सिंह जसोल, डॉ. सत्यनारायण, विभूतिनारायण राय, डॉ. शाहिद मीर, प्रो. नईम, शैलेंद्र चौहान, नेमीचन्द जैन ‘भावुक’ और डॉ. विमल से जुड़ी हुई यादें इस संस्मरण पुस्तक में दर्ज हैं। 
ये संस्मरण लगभग पंद्रह से तीस साल पुराने हैं। पश्चिमी राजस्थान के एक कोने, अपनी ढाणी ठाकरबा गाँव नोख (पंचायत समिति जैसलमेर) से एक अबूझे मुहूर्त में निकल, जेब में चंद उधार के रूपए रखे, जोधपुर शहर पहुँचने वाले उस नवयुवक को पढ़ने-लिखने और नौकरी हासिल कर अपने परिवार का आर्थिक संबल बनने के साथ ही साहित्य रचने और उसमें रमने के सपने किस तरह चालित करते गए कि आज वही नवयुवक डॉ. आईदान सिंह भाटी राजस्थानी के ख्यातनाम कवि, आलोचक और कथाकार के रूप में उन जैसे न जाने कितने नवयुवकों के प्रेरणा श्रोत हैं। उनके साथ बैठ कर बतियाना जैसे एक युग से रूबरू होना है। अपनी बातों में वे अक्सर ठेठ देसी भाषा में कहते हैं, “ ऊ टेम पया केथ हा!... ऊ तो गुरुजनां री किरपा ही, अर भइसेणों रो प्रेम हो जो दिन निकळग्या अर थोड़ों घणों पढ़ लियो।” 
इस पुस्तक से गुजरते हुए हम उन आत्मीय पलों, खुशियों, मुस्कानों और आंसुओं को बहुत करीब से महसूस कर पाते हैं जो लेखक की जीवन-यात्रा के अभिन्न अंग बने। एक रचनाकार की संवेदना किस तरह उनमें विकसित हुई, ये भी एक अंतर्धारा  के रूप में इन संस्मरणों में जगह-जगह दृश्यमान होती है। यह पुस्तक संस्मरण विधा के तीनों अंगों आत्मीय एवं श्रद्धापूर्ण अंतरंग संबंध, प्रामाणिकता और वैयक्तिकता को अपने में समेटे हुए है। 
राजस्थान के जिन साहित्यकारों ने इस विधा पर कलम चलाई है उनमें से कुछ चर्चित नाम हैं- कमर मेवाड़ी, डॉ. सत्यनारायण, हेमंत शेष और हेतु भारद्वाज। इसी क्रम में डॉ. आईदान सिंह भाटी की यह संस्मरण पुस्तक ‘स्मृतियों के गवाक्ष’ एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ के रूप में जुड़ गई है। 
एक साहित्यकार का मन जितना नई रचना को रचने में प्रसन्न होता है उतना ही अपने साहित्यिक जीवन में बिताए हुए पलों को याद करते हुए उन्हें अपनी स्मृतियों में पुनः जीने में भी मुदित होता है। आज भी अपने जोधपुर स्थित घर की वाटिका में अपने लगाए हुए हरसिंगार के चौकोर तने वाले पेड़ के नीचे बैठे डॉ. आईदान सिंह भाटी बाबा नागार्जुन से मिले आशीर्वाद को कदाचित अपनी ही कविता के शब्दों में गुनगुनाते रहते हैं-

‘थार धरा के मेरे बेटों!
अपने मन में आज ठान लो
यह धरती है मात तुम्हारी
तुम बेटे हो इस रजकण के। 
खेतों खलिहानों में जिनके
गीत गूँजते हैं घर घर में
नमन करो उस लोक-गंग को
लहराती जो गीत लहर में।’  
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केटी
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