किसी दिन
सूरज की पहली किरण
चाय की चुस्कियों के बीच
अखबार के पहले पन्ने पर
छपी खबर तुम्हें चौंकाएगी
"कल ढलती रात
एक पागल आशिक ने
कत्ल कर डाला
चाँद को"
किसी दिन
सूरज की पहली किरण
चाय की चुस्कियों के बीच
अखबार के पहले पन्ने पर
छपी खबर तुम्हें चौंकाएगी
"कल ढलती रात
एक पागल आशिक ने
कत्ल कर डाला
चाँद को"
जिंदगी साफ़ महीन चादर-सी
धुली धुली हर सुबह
ढक लेती सब कुछ।
सिमटते हुए हर लम्हे को
एक मासूम तबस्सुम देकर
समा लेती खुद में।
अंतहीन तहों में लिपटी
चादर जिंदगी की।
दोहे
******
टूटा तारा कह गया, साथी से इक बात।
जब तक तन में आग है, जीत न पाए रात।।
पन्ना पन्ना पढ़ गए, जीवन एक किताब।
हर पन्ने पे दर्ज है, एक अबूझ हिसाब।।
इक दूजे को निरखलें, बात करे अब कौन।
क्षण के इस मधुमास में, प्रीत सिखाती मौन।।
पानी पी कौवा उड़ा, जगा गया विश्वास।
कंकर कंकर डालकर, बुझा सकोगे प्यास।।
प्यासी धरती मेघ को, ताक़ रही दिन रात।
करुणाकर अब दीजिये, रिमझिम की सौगात।।
जैसा मुझे लगता है
वैसा तुम्हें भी लगता है क्या,
खुद से बोलते बोलते
थक कर मूक हो जाना
या फिर जैसे कि शब्द चुक गए हों।
शून्य में देखना ऐसे
जैसे मेले में खोया बालक
सिसकता हुआ देखता है भीड़ को
बहुत देर रोने के बाद।
जीवन छंदहीन कविता की तरह
रूबरू कराता शब्दों से
जो कभी कभी मजाक जान पड़ते हैं।
अल्ल सुबह से देर रात तक
रक्त में कुछ चलता है
छूता है एक एक धमनी एक एक शिरा को,
सोने जा रही ग्रन्थियों को जगाता है रोकता है
सुनो! देखो मैं यहीं हूँ।
सी-साॅ झूले पर बैठे बच्चे
एक पल के लिए पाते हैं समान तल
वरना एक ऊपर तो एक नीचे,
तब भी जुड़ाव तो रहता ही है सदा।
ये जुड़ाव, रक्त की अनचीह्नी आवाज,
शब्दों का चुक जाना-
तुम्हें भी लगता है क्या
जैसा मुझे लगता है।
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थप-थप थप-थप
सौंधी खुशबू घोल जाता है
हर बारिश में कोई
मेरे स्मृति-जगत में।
रात भर करवटें बदल
झाड़ता हूँ पैरों की अंगुलियों पे चिपकी बालुई रेत
पर जाने क्यों हट नहीं पाती पूरी तरह
और मैं यूँही करवटें बदलता रहता हूँ रात भर,
हर बारिश में।
सूर्य - दो चित्र
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उदय
*****
प्रतिदिन तुम आते
हरते अँधेरा
पथ रौशन कर जाते।
बढ़ जाती आस्था
होता पुष्ट हौसला
तुम्हारे आने से।
जान गया हूँ अब
जब जब भी अँधेरा गहराएगा
तुम आओगे
पथ प्रकाशित कर जाओगे।
हे मेरे जीवन के सूर्य!
मेरा प्रणाम स्वीकार करो। ☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆
अस्त
*****
वो जो फुफकार रहा था सुबह
दहाड़ रहा था दिन में
उबल रहा था अपने ही तेज में।
न जाने क्यों उदास-सा
मुँह लटकाए खड़ा था
दूर क्षितिज के कोने।
आह रे जीवन!
वाह रे जीवन!
☆☆☆☆☆☆☆☆☆
किताब का वो पन्ना
जिसका कोना मुड़ा हुआ हो
केवल पन्ना नहीं होता।
वो होता है एक दस्तावेज
हमारे चलने और किसी मोड़ पर ठहरने का।
मन के भीतर किन किन गलियों से गुज़रे थे
किन किन गंधों को फिर से पाया था
या कि कौनसे नए- एकदम नए सपने ने
पहली दस्तक दी थी दिल पे
कौन कौनसे ज़बरन भुलाये चेहरे
बलात फिर आ बैठे यादों के झरोखे में
समेटे रहता है अपने में
किताब का वो पन्ना
जिसका कोना मुड़ा हुआ हो।
रुक जा ओ मचलती हुई लहर
ज़रा थम जा,
विचार करले।
ठानी है तूने उफनता दरिया पार करने की
तेरी रगों में सिर्फ हिम्मत भरी है
आँखों में सजे हैं सपने।
नाचती, कूदती, किलकारियाँ भरती
बढ़ती जाती है तू
रुकना सीखा ही नहीं तूने।
पर होशियार ए मचलती हुई लहर! ....
किनारे प्यासे हैं।
हो जाएगी तू विलीन
खो देगी अपने आपको
चीख तेरी उठेगी और घुट के रह जाएगी।
इसलिए इससे पहले कि छुए तू किनारा
चल देना फिर एक लम्बी यात्रा पर
तेरी ये उछाल,
रगों में ये हिम्मत
होठों पे ये किलकारियाँ
बनी रहे इस दरिया में
सदा सदा के लिए।
वो सपना
जो सोने नहीं देता था उसको
ढूंढ ही लेगा किसी बच्चे की आँख
पाएगा ठिकाना।
उड़ाएगा उसकी भी नींद
जगाएगा उसे भगाएगा उसे भी।
बनेगा वो भी एक दिन कलाम,
या किसे पता उससे भी बड़ा।
ये कलाम का सपना है दोस्त
माटी में सोया है
अंकुरित तो होगा ही।
तू यहाँ है, तू वहाँ भी।
जीत में तू हार में तू, हार के भी पार है तू,
द्वेष में तू प्यार में तू, प्यार की मनुहार में तू।
रूठ कर तेरी है ना भी, मान कर तेरी है हाँ भी,
दृष्टि जाती है जहाँ भी, तू यहाँ है तू वहाँ भी।
बादलों के पार बैठा, डोर हाथों में लिए तू
डोर पर नाचे पुतलियां, नाचने वाला भी है तू
इस तरफ से बोलता तू, उस तरफ से सुन रहा तू
सृष्टि का नर्तन जहाॅं भी, तू यहाॅं है तू वहाॅं भी।
मीत तू मनमीत भी तू, प्रीत का संगीत भी तू
चल रहा है जगत किन्तु, पथ तू ही है पथिक भी तू
खोजने की प्यास है तू, और बुझाता प्यास भी तू
भाव का बन्धन जहाॅं भी, तू यहाॅं है तू वहाॅं भी।
केटी
*****
जब तक रहती चेतनता
तब तक रहती अहिल्या।
ज्यों-ज्यों चेतनता खोती
जड़ता छाती जाती
बन जाती फिर किसी दिन एक सिला।
तब शुरू होती प्रतीक्षा
लम्बी... बहुत लम्बी प्रतीक्षा
किसी के पावन स्पर्श की।
सुनो सैलानी!
दूर किसी शहर में चलते हुए
पहुँच जाओ जब
किसी झील के किनारे
बस इतना करना
उठाना किनारे से एक कंकर
उछाल देना झील में।
पानी से ज्यादा हिलोरें
मन में उठने लगेंगी
देख लेना।
उन्ही हिलोरों से झांकेगा बचपन
अबोध किलकारियाँ
घड़ी भर की खुशियाँ
अंजुरी भर सपने।
रह जाएगी यात्रा अधूरी इसके बिना
यात्रा- जीवन की...
भूल मत जाना सैलानी
उस झील के किनारे।
ज़िन्दगी की खूबसूरती
छुपी होती है पलों में
स्मृतियों के संदूक में
सहेज कर रखना
खूबसूरत पलों को
परत दर परत
खुलती हैं हथेलियाँ
कहीं घिसी हुई लकीरें
बयाँ करती हैं पहाड़-सी जिंदगी से टकराने का दर्द
कहीं प्रीतम की प्रतीक्षा में
आंसुओं को पोंछ कर नम हुई हथेलियाँ
कहीं हर बार हार जाने के बाद
मन मसोस कर
एक दूसरे को मलती हुई हथेलियाँ
फिर भी उठती हैं जब भी किसी की ओर
देती हैं तसल्ली,
बनती हैं सहारा
हथेलियाँ नहीं
दुआओं की जादुई पोटली हैं ये।
गारे और गोबर से लिपे
सख्त और खरखरे आँगन में
पड़ती है जब बारिश की दूसरी फुहार,
रंग बदल जाता है आँगन का
निकल आते हैं कोमल हरियाले पात
जाने कहाँ से!
चूते हुए छप्पर में
बचाते हुए खुद को फुहार से
देखता रहता हूँ मैं आँगन को,
किलकते, लहराते बूँद बूँद पी जाने को व्याकुल
उन हरियाले शिशुओं को,
बेखबर हैं जो इस बात से
कि निकलते ही धूप उखाड़ फेंकेगी इन्हें सुखिया ताई।
क्षण का आनंद क्षणजीवी ही जाने!
आकंठ आनंद में डूबते हुए देखना किसी को
भर देता है कितना आनंद
कर देता है मन का आँगन हरा
ठुमकने लगता है एक हरियल शिशु
मन के आँगन पर।
बस यूँ ही पुकारते पुकारते
बन गई मैं जाने कब,
जाने कैसे स्वयं एक पुकार।
बचा ही नहीं कुछ
प्राण थे, प्यास थी और थी पुकार।
अब आओ या न आओ
कोई अंतर न पड़ेगा रसिया।
शायद जानती नहीं थी मैं
प्राणों का पुकार बन जाना ही
तुझमें समा जाना है।
मैंने कहा तुम गलत हो
तुमने कहा मैं गलत हूँ
फिर दोनों ने कहा वे गलत हैं
उन्होंने कहा वे सब गलत हैं
एक ही शोर- चहुँ ओर।
खुद को सही कहने में
हो गए हम सब गलत।
इस गोल धरती पर
सीधे खड़े कैसे रहें बाबा...!
अच्छा हो या हो बुरा
पाप हो या हो पुण्य
कोई कैसे जिम्मेदार हो सकता है
अकेला एक।
जबकि होते हैं शामिल इस लेन देन में
लोग अनेक।
सुनो तो,
उस रोज मैं ये कहना भूल गया था
जिस रोज पहना था तुमने वो लाल सूट
कानों में डाले थे काले झुमके
काली ही डायल की घड़ी कलाई पे सजा
सफेद संगमरमर की सीढ़ियों पर बैठ
गहरी आँखों से देखा था मुझे,
उस रोज..... हाँ उस रोज
मैं ये कहना भूल गया था
कि तुम्हारा यूँ देखना गहरी आँखों से
देखने से ज्यादा
कहना लगा था मुझे,
पर मैं कह नहीं पाया उस रोज।
तो लो मैंने करली तैयारी
सजा लिए साज
संगीत बहेगा अब।
ढोलक, तबला, सितार, बाँसुरी, तानपुरा
ठक-ठक, खन-खन, पीं-पीं
सुर मिला रहे हैं सब।
आलाप छेड़ने से पहले
जरूरी है साजों का
एक सुर में होना।
सातवें आसमान से उतर रही हैं राग-रागिनियाँ
घेरे खड़ी हैं मुझे
चाहिए उन्हें मेरा स्वर।
मैं कभी खीजता, कभी होता उदास
करता भरसक कोशिश
साजों को सुर में लाने की।
सदियाँ बीत गई हैं
मेरी कोशिश जारी है
बेसुरे हैं अब तक सारे साज
ढाई सुर से चूक रहे हैं।
वो लड़की
जो दोनों हाथों को गोल कर
कैद कर लेती थी सूरज को,
मचल कर गर्दन घुमा
मुसकराहटों के कई सारे बंद लिफाफे
बिखेर देती थी फिजाँ में,
निचले होठ को लापरवाही से आधा दबा
'च्च' की ध्वनि करते हुए
आँखों की पुतलियों को फैला लेती
आकाश-सा,
अक्सर झाँकते हुए मेरे मन के दरीचों में,
कहकर भाग उठती है कि ढूँढो तो,
मैं कहाँ हूँ।