रविवार, 27 मई 2018

प्रेम, अवनि और वातायन

पुस्तक-चर्चा
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कविता-संग्रह- प्रेम, अवनि और वातायन (मूल्य : 150 रु.)
रचनाकार- सुनीता गोदारा
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अगर कविता खुद की तलाश है तो...
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सुनीता के इस काव्य-संग्रह में कविताओं का दूसरा खण्ड है- अवनि अम्बर बीच। आईए आज इसी खण्ड की कविताओं पर चर्चा करते हैं। इस खण्ड में छोटी-बड़ी 26 कविताएँ हैं। सुनीता राजस्थान के सीमावर्ती जिले बाड़मेर के सुदूर ग्रामीण अंचल से आती हैं। यहीं वो सब कुछ था जो इनके मानस में समाया और संवेदना की तपन से शनै-शनै कविता में ढलता गया। और वो सब कुछ था वहाँ का प्राकृतिक व साँस्कृतिक परिवेश, जिसमें बालुई रेत के मखमली धोरे, गाँव की भोर, दोपहर, धूल भरी आँधियाँ, रहस्यमयी सुनसान शाम, ठंडी और साफ चमकदार रातें, त्योहारों की रौनक, परंपराओं की सौगात, बारिश के बाद की माटी की सौंधी खुशबु, बावड़ियाँ, खेजड़ी के दरख्त, कँटीली झाड़ियाँ, बकरियों के रेवड़ और समूची मरुधरा की अनबुझ प्यास थी।
अगर कविता इस संसार में खुद की तलाश है तो सुनीता बार-बार, या यूँ कह लें कि हर बार, खुद की तलाश में अपने मानस में बसे इसी प्राकृतिक सौन्दर्य तक चली आती हैं और 'अवनि अम्बर बीच' बसे जगत के इस भू-भाग को अपनी कविता से अभिव्यक्त करती हैं-
कौन कहता है कि
गाँव गाँव नहीं रहे
अभी भी गाँव की मिट्टी
सुगंध से भरपूर है।
रातों में जुगनुओं की चमचमाहट
फागुन में फाग के गीतों की गूँज
त्योहारों में रैवणो का आनंद।
इसी प्राकृतिक सौन्दर्य से उभरता है एक अद्भुत आनंद जो इस तरह कविता में रूपायित होता है-
दुनिया का सबसे मधुर संगीत
बज रहा वृक्ष से
शाखाओं का
सूखी पत्तियों का
डाल पर बैठे पंछियों का।
यह अनुभूति आज के इस भागदौड़ वाले जीवन में मनुष्य का ध्यान उस मधुर संगीत की ओर आकृष्ट करती है जो दया, करुणा और प्रेम का अजस्र स्रोत है। ऐसी कविता इस बात की साक्षी बनती है कि सुनीता मरु अंचल की उस प्राकृतिक-साँस्कृतिक सम्पदा में कितनी गहराई तक घुली-मिली हैं और उसकी प्रतीति को कविता में उतारने में किस हद तक सफल हुई हैं। एक बानगी और देखिए-
धूप ने चुपके से आ
कहा कानों में
आ मेरे साथ बैठ
जिन्दगी निखर जाएगी।
गाँव से शहर में आना जिन्दगी को एक झटके से बदल देता है। लंबी-चौड़ी सड़कें, भीड़ की चिल्ल-पौं, पसरे हुए बाजार, दिखावटी मुस्कराहटें, रिश्तों का बदलता अंदाज उनके मन को विचलित कर देता है और तब वे स्वयं को असहाय पाती हैं और सड़क किनारे खड़े पेड़ से खुद को अभिव्यक्त करती हैं-
सड़क किनारे खड़ा पेड़
रात के सन्नाटे में
बड़े ट्रकों की कर्कश आवाज से
मायूस हो उठता
सोचता कि मेरे भी पहिये लगे होते
तो सड़क से कहीं दूर जाकर
मैं भी चैन की साँस लेता।
इस खण्ड की कविताओं को पढ़कर ऐसा लगता है कि यही सुनीता का मूल स्वर है। इन तपते रेत के धोरों ने इन्हें तोहफे में दी है अपनी अनबुझ प्यास और दूर चमकती मृग-तृष्णा।
यहीं से चली है, यहीं लौट आती है सुनीता की कविता-
छाया है आलम उदासी का
दरख्तों के सीने में।
कुछ पहर
दूर शहर
खामोशी से
खुद को
पहचान लिया जाए।
केटी
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इस खण्ड की कविताओं पर आपके विचारों की प्रतीक्षा है।
शीघ्र ही इस पुस्तक के तीसरे कविता-खण्ड 'तीसरा वातायन' पर चर्चा करेंगे।
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शुक्रवार, 25 मई 2018

प्रेम, अवनि और वातायन

(पुस्तक-चर्चा : भाग-1)
तपते धोरों में एक टुकड़ा छाँव की तलाश- प्रेम, अवनि और वातायन
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सुनीता गोदारा के प्रथम प्रकाशित काव्य-संग्रह को पढ़ते हुए उनकी कविताओं का आनंद लेने के साथ-साथ मन में एक जिज्ञासा उठी कि रेगिस्तानी धोरों में बकरियाँ चराती, ठेठ ग्रामीण अंचल में पली-बढ़ी इस रचनाकार की रचना-प्रक्रिया क्या रही होगी, कौनसे तत्व होंगे जो इसके भावों को शब्दों में बदलकर कविता का इन्द्रधनुष रचते होंगे!
सुनीता इस पुस्तक में अपनी कविताओं को तीन खंडों में विभाजित करती हैं। पहला खंड है- प्रेम में आकंठ।
आईए आज इसी खंड की कविताओं पर बात करते हैं।
इस खंड में 27 कविताएँ हैं। नवंबर 2012 से इनके कविता लिखने का आरंभ कदाचित इन्हीं कविताओं से हुआ होगा। इस खंड की सभी कविताएँ प्रेम की सघनता का अहसास है। वह प्रेम जो प्रतीक्षा के क्षणों में कभी यह कहलवाता है कि-
पर वह बावरी अपने चाँद के
इंतजार में खड़ी है
अपने घर की बालकनी में।
कभी वही प्रेम यादों के रूप में चारों ओर बिखर जाता है जिसे समेटते हुए कविता उभरती है कि-
सिर्फ तुम्हारी यादों को ही
अपने इर्द-गिर्द बिखेर रखा है
कविताओं में ढाल रही हूँ तुम्हें।
कभी इसी प्रेम के सतरंगी सपनों की थाह पाने मन उमड़ पड़ता है और तब सुनीता की कविता कहने लगती है कि-
लहरों की तरह
कभी शान्त
कभी तूफान से
अपने ख्वाबों में
प्रिय प्रेम का रंग भर दूँ।
प्रतीक्षा, मिलन, विरह, अपेक्षा और समर्पण जैसे विविध भावों में विस्तार पाता यह कविता खंड प्रेम की भीनी-भीनी सुगंध से सुवासित एक पुष्प-गुच्छ की भाँति है।
सुनीता की कुछ कविताओं में वैयक्तिकता का प्रभाव अधिक है जो कि कविता के प्रभाव को कमजोर करता है। यह मानते हुए कि कविता नितान्त व्यक्तिगत क्षण में व्यक्तिगत अनुभूति है, इस बात को भी समझना होगा कि अपने पाठक तक जाकर उसे 'व्यष्टि से समष्टि' में रूपांतरित होना ही चाहिए। रचनाकार का अनुभव पाठक के अनुभव से तादात्म्य बैठा ले तो वह रचना पाठक को अपनी-सी लगने लगती है और वही उसकी सार्थकता भी है।
एक नवोदित कवयित्री के रूप में सुनीता अपनी कविताओं से हमें आश्वस्त करती हैं कि वे विपुल संभावनाएँ रखती हैं। रेगिस्तान में बेरे (कूए) बहुत ऊंडे (गहरे) होते हैं और राजस्थानी में कहावत है- 'बेरा बरोबर मिनख ऊंडा'।
सुनीता अपनी कविताओं में वो गहराई रखती हैं और प्रेम में आकंठ डूब कविता लिखती हैं।
तलाशते रहते हैं
कुछ सवालों के जवाब
बरसों-बरस बेवजह
बजाए इसके
क्यों नहीं रच देते
बिन सवालों की
एक प्यार भरी दुनिया।
बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।
अगले भाग में चर्चा करेंगे इसी पुस्तक के दूसरे खंड की जिसका नाम है- अवनि अम्बर बीच।
केटी
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सभी मित्रों से आग्रह है कि इस पुस्तक की कविताओं को पढ़कर एक सार्थक विमर्श करें। आप सबके विचारों और प्रतिक्रियाओं का स्वागत और प्रतीक्षा है।
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