शनिवार, 18 दिसंबर 2021

प्रेम

इस भरे-पूरे जगत में

अकेलेपन की पीड़ा वो जानता है

जो बेबस है इस क़दर

कि काश पूछ पाता एक बार किसी से

कि "तू ठीक तो है!"

हार जाता जब दुनिया का विज्ञान

तब कुदरत देती अनमोल उपहार

और अकेलेपन में डूबा

यकायक महसूस करने लगता वो

उसके कदमों की आवाज़।

ये बात अलग है 

कि  बढ़ जाता इससे और भी

उसका अकेलापन, उसकी अपनी पीड़ा।

प्रेम गली अति साॅंकरी, या में दो न समाय...

केटी
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मंगलवार, 30 नवंबर 2021

फ़र्क

सुबह की सैर

स्टेडियम ग्राउंड,

आनंद लेता हुआ मैं

चलता जाता।

मेरे साथ साथ समान गति से

चलता एक बच्चा,

नन्हे कदम, मगर गज़ब की तेज़ी।

बीच-बीच में दाएं-बाएं झुकता मैं,

झुकता इसी तरह बच्चा भी,

मैं झुकता व्यायाम के लिए

वो... पाॅलिथिन की थैलियां और प्लास्टिक की खाली बोतलें बीनने;

हम दोनों में बस इतना-सा फर्क था।

केटी
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शनिवार, 7 अगस्त 2021

धुंधली रेखाएं

पुरानी-सी एक उधड़ी हुई काॅपी, 

काॅपी का एक बहुत पुराना पन्ना,

पन्ने पर बहुत धुंधला-सा एक रेखाचित्र।

रेखाचित्र तो वो सिर्फ उसे दिखता था

लोगों के लिए थीं कुछ आधी-अधूरी रेखाएं,

रेखाएं, जो कि खो चुकी थीं अपना मूल आकार।

जाने कितनी बार उन्हें मिटा कर साफ़ कर देने की कोशिश की,

हर बार जितना ज़्यादा ज़ोर लगाया 

दर्ज हो गई उतनी ही बार अगले पन्ने पर।

हो गई कुछ और ज्यादा धुंधली, कुछ और ज्यादा आकारहीन,

किन्तु मिटी नहीं, मिटती ही नहीं।

लगता है काॅपी फट जाने पर भी बनी रहेंगी ये,

जैसे कामनाएं पीले जंगली फूल बन उग आती हैं कब्र पर।

केटी
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बुधवार, 28 जुलाई 2021

चिन्ता

गांव का पुराना घर नया हो गया

देसावर में पैसा कमा बरसों बाद बेटा घर आया

मिट्टी के कैलूड़े वाले छपरे की जगह चमचमाता टिन-शेड पड़ा

गारे और गोबर से लिपा आंगन खोद सफेद झक मार्बल की टाइलें लगीं

मूंज के माचे के पास चार सफेद प्लास्टिक की कुर्सियां,

ऐसे ही जाने और क्या क्या हुआ

घर बदल गया पूरा का पूरा।

बेटा गर्व से तणका हो कभी बाहर से निहारे कभी भीतर से

जागण दिलवाया, भैरूजी को पूजा और जीमण किया।

बींदणी, टाबर-टोली, यार-दोस्त सब राजी

पर डोकरा उदास, अबोला खिसियाता बार बार एक ही बात सोचे

"आंगणा में टाइलाॅं तो बिड़ाय दी पण डोकरी ने चेतो रेवे कोनी,

कदेई पड़ जाई तो कोजी होई!"

केटी
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मंगलवार, 20 जुलाई 2021

भुलाना

कोई कभी किसी को भला भुला पाता है!! 

वो जिसे हम कहते हैं भुलाना,

दरअसल होता है खुद से छलावा,

जबकि भुलाने की कोशिश में,

 हम उसे अपनी यादों में कहीं और गहरा कर रहे होते हैं।

केटी
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मंगलवार, 13 जुलाई 2021

छोटे दुख

छोटे दुखों का बयां 

अक्सर छोटी कविताओं में नहीं हो पाता।

छोटे दुख बड़े अजीब होते हैं,

जैसे, "सुबह से उसने बात ही नहीं की!"

या कि, "मैं आया तब तक उसने खाना खा लिया!" 

या , "वो मेरी तरह क्यों नहीं सोचती!"

या फिर, "मैं उसे फ़ोन करना भूल क्यों गया!"

ऐसे जाने कितने छोटे दुख 'क्यों','क्यों नहीं', में लिपटे रहते हैं।

उतरने को होते हैं जब ये कविता में

पसर जाती हैं पंक्तियां, फैल जाते हैं वाक्य,

जैसे कोई पक्के रागों का गायक देर तक लेता रहता है आलाप

बिखेरता रहता है 'मा पा धा नी सा' की आवृत्तियां,

तब कहीं शुरू कर पाता है राग के बोल।

छोटे दुखों का बयां 

कविता में बड़ा ही दुरूह है मेरे दोस्त!

पंक्तियां उलझती जाती हैं एक दूजे में

और वो बित्ता-सा दुख

दूर छिटका खड़ा मुस्कुराता रहता है

किसी शरारती बच्चे की तरह।

केटी
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अधूरा वाक्य

किसी विदा की वेला में

कोई अधूरा छूट गया वाक्य

दुनिया का सबसे खूबसूरत वाक्य है,

क्योंकि दोस्त मेरे!

अधूरे वाक्य में छुपी होती है संभावनाएं

तमाम खूबसूरत शब्दों की।

केटी
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गुरुवार, 17 जून 2021

भेड़िया मुझे नहीं खाएगा

वो एक खड़ा है डट कर 

भेड़िए के सामने।

एक छुपा है अपने घरौंदे में,

एक बेफिक्र है कि भेड़िए का मुंह उसकी तरफ नहीं है,

एक चाहता है भेड़िया भाग जाए, पर वो मशाल नहीं जलाता,

पेंटिंग बनाता है मशाल की, अग्नि-चित्रों की,

एक कविताएं लिख बाहर फैंक देता है अपनी आरामगाह से,

चाहता है कि लोग पढ़ें, जगें और भेड़िए से भिड़ें,

वो एक जो खड़ा है डट कर

भेड़िए के सामने

जान लगा कर लड़ेगा और मरेगा,

भेड़िया उसका खून पीएगा, नोचेगा गोश्त,

फिर मुड़ेगा

उस दूसरे, तीसरे और चौथे आदमी की ओर,

जंगल का राज जानते नहीं वे

कि भेड़िया पहले एक को पचाता है

फिर दूसरी ओर मुंह करता है।

केटी
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प्यासे पीर-2

अक्सर जो पुकारते हैं बादलों को 

वे देखते हैं बादलों को बरसता

दूर, बहुत दूर कहीं।

प्यास होती जाती सघन

सूखता कंठ, उतरती ऑंखों में नमी।

दिन, महीने, बरस बीतते

अनबुझ प्यास लिए नम ऑंखों से देखते जिस ओर

उसी पल, ठीक वहीं बरस जाता बादल का कोई नन्हा टुकड़ा,

आशिकों की बिरुदावली में वे कहलाते प्यासे पीर।

केटी
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बुधवार, 21 अप्रैल 2021

कैसे कहूॅं बतियाॅं...

कैसे कहूँ बतियाँ
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भेज दिया है खाली लिफाफा

लिख लेना प्यार की कलम

चाहतों की स्याही में डुबो कर

जो दिल कहे,

समझ लेना वही है मेरा पैगाम।

केटी
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सोमवार, 8 मार्च 2021

रात पछै परभात

 

पुस्तक चर्चा

राजस्थानी उपन्यास- रात पछै परभात

लेखक- श्रीमती संतोष चौधरी

प्रकाशन- राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति, श्रीडूंगरगढ़

 

राजस्थानी उपन्यास की यात्रा का आरंभ 1956 में श्रीलाल नथमल जोशी के लिखे उपन्यास आभै पटकी से माना जाता है। 1970 के पश्चात राजस्थानी उपन्यासों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने का काम पारस अरोड़ा, सत्येन जोशी, सीताराम महर्षि, रामनिवास शर्मा, प्रेमजी प्रेम और बी.एल. माली ने किया। यादवेन्द्र शर्मा चंद्र ने अपनी लंबी कहानी चांदा सेठाणी लिखने के 4 वर्ष बाद इसे इसी नाम से उपन्यास के रूप में लिख कर राजस्थानी उपन्यासों को एक बड़े आयाम पर पहुंचा दिया। 

अपने वरिष्ठ लेखकों और अपनी परम्परा-परिवेश से प्रेरणा ग्रहण कर संतोष चौधरी ने राजस्थानी उपन्यास लेखन में कदम रखा। वैसे तो हम इक्कीसवीं सदी में वैज्ञानिक और तकनीकी विकास के युग में खड़े हैं और पुरानी कुरीतियों व दोषपूर्ण सामाजिक ढांचे पर दिन प्रतिदिन पुनर्विचार कर उसे बदलने की सतत प्रगतिशील कवायद कर रहे हैं, किन्तु अपेक्षित मात्रात्मक परिवर्तन अभी भी दूर की कौड़ी लगता है।

किसी भी परिवार की धुरी है स्त्री। बढ़ते हुए स्त्री-विमर्श और स्त्री-संघर्ष के बीच एक नन्हा प्रयास संतोष चौधरी का उपन्यास है- रात पछै परभात। गाँव की रहने वाली एक मध्यम वर्ग के परिवार की बेटी कृष्णा, जो कि पढ़ाई में होशियार है, आगे पढ़ने के लिए घर वालों की सहायता से शहर आती है। मन में उत्साह है, उमंगें हैं और है एक दिन खुद अपने पैरों पर खड़े होने की चाह, जिससे आत्मनिर्भर होने के साथ-साथ अपने परिवार की आर्थिक सहायता भी कर सके। कुछ दिन ठीकठाक चलने के बाद कृष्णा के जीवन में अचानक एक झंझावात ने प्रवेश किया जो कि एक बिगड़े रईस नौजवान के रूप में आया था। उच्च सरकारी पद पर आसीन वह नवयुवक कृष्णा के मासूम रूप पर मोहित हो गया और किसी भी तरह उसे अपना बना लेने की ज़िद में पागल हो उसके पीछे पड़ गया। जोड़तोड़ कर उसने कृष्णा से शादी भी करली। शादी के बाद पति सुरेश और उसके परिवार वालों का असली रूप खुलकर सामने आने लगा। ससुराल में लगातार ननद, सास और पति के तानों और मारपीट को सहन करके भी कृष्णा अपमान के घूँट पीकर इस उम्मीद में दिन गुजारती रही कि शायद किसी दिन हालात बदल जाएंगे। पर हालात बदले नहीं, बद से बदतर होते चले गए। अपने दो छोटे-छोटे बच्चों को लेकर उसे दर दर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर होना पड़ा। अच्छे और सुलझे हुए विचारों वाले अजय सिंह जो कि कृष्णा के पति सुरेश के मित्र थे, के सहयोग और प्रोत्साहन से कृष्णा सार्वजनिक परीक्षा उत्तीर्ण कर न केवल सरकारी नौकरी पा सकने में कामयाब हुई बल्कि कॉलेज के दिनों में लिखी डायरियों में बंद अपने साहित्यिक रचनाकर्म जिसे कि वह जीवन की आपाधापी में कहीं पीछे छोड़ आई थी, फिर से खोल कर देख सकी और साहित्य-सृजन में भी आगे बढ़ सकी।

आज भी हमारे समाज में न जाने कितनी लड़कियाँ हैं जो कृष्णा के जीवन की तरह पुरुष प्रधान समाज में पुरुष के दुर्व्यवहार की शिकार हैं। उनकी डायरियों में भी उनकी बेबसी और मूक रुदन की दास्तान दर्ज हैं, पर वे डायरियाँ अपनी छाती में ही दफ्न किए वे लड़कियाँ, वे औरतें इस दुनिया से एक दिन चल देती हैं और किसी जगह उस कोलाहल की खबर दर्ज नहीं होती। संतोष चौधरी अपने उपन्यास के माध्यम से उन दबी हुई पीड़ाओं को स्वर देती हैं।

संतोष चौधरी का यह पहला राजस्थानी उपन्यास है। घटनाओं के ताने-बाने को बुनने में उन्होंने क्रिएटिव डिटेल्स का बहुत सुंदर उपयोग किया है। स्वयं ग्रामीण राजस्थानी परिवेश से होने के कारण वे अपनी कहानी में परम्पराओं, पारिवारिक माहौल में रिश्ते-नातों के बीच कृत्रिमता और सच्चाई के दोमुंहेपन और समाज की सोच को बहुत करीने से उकेरती हैं। अपने जीवन के पंद्रह साल राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्र में सेवारत होने तथा वहाँ के समाज को बहुत निकट से देखने के बाद मैं संतोष चौधरी के उपन्यास से बहुत हद तक सहमत हूँ, किन्तु कुछ प्रश्न खड़े हैं जिनके उत्तर मुझे नहीं मिल पाए या कि कुछ ऐसा जो मैं एक पाठक के तौर पर ढूंढ रहा था और मुझे नहीं मिला।

- कुछ वर्ष पहले प्रेम भारद्वाज (तत्कालीन संपादक- पाखी) जोधपुर आए थे तब उनसे आज के उपन्यास पर काफी बातचीत हुई जिसमें उन्होंने कहा था कि उपन्यास केवल एक लंबी कहानी नहीं है, बल्कि कहानी के माध्यम से एक विचार का चित्रण है। संतोष चौधरी का उपन्यास रात पछै परभात एक ऐसी कहानी है जो अपने पात्रों और घटनाक्रम के चित्रण से खुद को पढ़ा ले जाती है। पठनीयता निस्संदेह बहुत सुंदर है पर विचार को खोजते समय मुझे यह खयाल आया कि उपन्यास की नायिका के कृष्णा के जीवन में अगर एक दोस्त के रूप में अजय सिंह न आते तो क्या वो अपने बलबूते कुछ कर पाती!!

- अजय सिंह के प्रति आत्मिक प्रेम को महसूस करने और स्वयं उसे स्वीकारने के बाद भी उन्हें अपने जीवन साथी के रूप में न चुनने के पीछे कृष्णा की क्या सोच रही होगी!!

- यह उपन्यास 2019 में प्रकाशित हुआ है। जाहिर है कुछ वर्षों से इसकी कहानी लेखक के मन को उद्वेलित कर रही होगी। ऐसे में वे कौनसी बातें हैं जो लेखक अपने उपन्यास के माध्यम से आज के और भावी युवाओं, खास तौर पर लड़कियों को बताना चाहती हैं!!


राजस्थानी भाषा में इतने सुंदर उपन्यास लेखन के लिए संतोष चौधरी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ। अभी हाल ही में उनका राजस्थानी कहानी संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है। एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में उभरने के लिए राजस्थानी साहित्यिक जगत संतोष चौधरी के लेखन के प्रति आश्वस्त है। पुनश्च बहुत बधाई और शुभकामनाएँ। 


कमलेश तिवारी

 


 

  

रविवार, 10 जनवरी 2021

मुक्तक

 जब दूर पहाड़ों पे कोहरा-सा छा जाता है

पेड़ों की फुनगियों में कोई मीठे सुर में गाता है

पवन जब बसंत की मीठी बयार लाता है

तब मुझे चुपके से तू याद आ जाता है


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भ्रमर का गुंजन समर्पित पुष्प के आह्वान पर

स्वाति की बूंदे समर्पित सीप के आह्वान पर

जब बढ़ाता हाथ कोई थामता है दूसरा

प्रीत तो पूरी समर्पित मीत के आह्वान पर


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मैं किसी से नहीं अपने आप से नाराज़ हूँ

शायद इसलिए इस हाल में आज हूँ

कितने जतन करो कुछ न निकलेगा मुँह से

मैं जिंदगी से रूठा एक बिगड़ा हुआ साज हूँ


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बच्चे पतंग हैं और उनके मन में है उड़ान

भोली शरारतों में बरसता मधुर है गान

मंदिर ओ मस्जिदों में जाएँ क्यूँ हम भला

बच्चे में ज्ञान गीता का, बच्चे में है कुरान


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