गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

कवि का जन्म

पीड़ा जब छूती अपने चरम को

चीख भी कंठ के तंतुओं में उलझ

बदल जाती अश्रु झरती उच्छ्वास में

तैरती रहती पृथ्वी के सभी ऊपरी मंडलों पर

पाने को ठौर, रहने को ठिकाना।

युगों युगों की चिर प्रतीक्षा

वरदान बन देती उस चीख को चेतना का अंश

या कि अभिशप्त कर छोड़ देती उसे

पीड़ा के मर्म को गाने के लिए

चीख का इकतारा बजाने के लिए।

दोस्त मेरे!

यूॅं ही नहीं जन्म लेता है कवि कोई

पीड़ा चरम पर पहुंच

स्वयं होती रूपांतरित मनुज रूप में।


केटी
****



विदा का पल

वो विदा का पल नहीं था

क्या हुआ जो तुम्हारी ऑंख नम थी

या कंठ था भरा हुआ

या कंपकंपाते होंठ कह रहे थे अनकही

या कि थम-से ग‌ए थे वे मुहुर्त

विदा इस तरह तो नहीं आती होगी

फिर क्या हुआ ऐसा कि हम-तुम

साॅंस रोके चल पड़े थे उस घड़ी!

जानती हो आ ग‌ए हैं दूर कितने

पल-प्रतिपल बढ़ रहा है फासला

देर तक सूरज निकलता ही नहीं

भोर रूठी छुप ग‌ई किस ठौर जाने

काश हम फिर लौट पाएं उन पलों में

बदल डालें उस विदा के श्राप को

गर जो होता सहज इतना लौटना

लौट कर तुमको किसी दिन मैं दिखाता

वो विदा का पल नहीं था

था नहीं, बिल्कुल नहीं था

वो विदा का पल नहीं था।

केटी
****

शनिवार, 26 दिसंबर 2020

स्मृतियों के गवाक्ष

पुस्तक-समीक्षा:- ‘स्मृतियों के गवाक्ष’ (संस्मरण)
लेखक:- डॉ. आईदान सिंह भाटी
प्रकाशक:- रॉयल पब्लिकेशन, जोधपुर

यह तो तय है कि मनुष्य हर पल हर घड़ी नए अनुभवों से गुजरता है। ये अनुभव उसे न्यूनाधिक बदलते हैं, उसमें कुछ नया गढ़ते हैं, उसे परिष्कृत करते हैं। दैनंदिन जीवन में मिलने वाले लोग, घटने वाली घटनाएँ, खुशियाँ और हादसे ही अनुभवों के पल सँजोते हैं। वैसे तो रोज़मर्रा की जिंदगी और उसकी आपाधापी में हमें हमारे जीवन में आए उन विशिष्ट व्यक्तित्वों का खयाल नहीं आता किन्तु जब उम्र का एक लंबा सफर तय कर, एक पड़ाव पर आकर हम थोड़ा-सा ठहरते हैं तो मन पीछे पलट कर जीवन-यात्रा को देखने लगता है और तब खुलते हैं ‘स्मृतियों के गवाक्ष’, उनमें से दिखाई देने लगते हैं कुछ चेहरे, सुनाई देने लगती हैं कुछ स्वर-लहरियाँ, छन छन के आने लगते हैं जानी-पहचानी हवाओं के झौंके; और मन कुछ विस्मित-सा उन्हीं बीते हुए पलों को जीने लग जाता है। इन स्मृतियों का लेखन ही साहित्य में संस्मरण विधा के रूप में स्थापित है। हिन्दी साहित्य में बालमुकुन्द गुप्त द्वारा सन् 1907 में प्रताप नारायण मिश्र पर लिखे संस्मरण को हिन्दी का प्रथम संस्मरण माना जाता है। उसके बाद से द्विवेदी युग, छायावादोत्तर युग, स्वातंत्र्योत्तर युग से लेकर आज तक साहित्यकारों द्वारा निरंतर संस्मरण लिखे जाते रहे हैं। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा नामवर सिंह पर लिखित संस्मरण ‘हक अदा न हुआ’ ने इस विधा को एक नई ताजगी से भर दिया।    
 
डॉ. आईदान सिंह भाटी राजस्थानी के लब्ध-प्रतिष्ठित कवि, आलोचक और कथाकार हैं। इनकी सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘स्मृतियों के गवाक्ष’ में उन्होंने अपने जीवन में आए 17 विशिष्ट व्यक्तित्वों से जुड़े संस्मरण लिखे हैं। पुस्तक में सबसे पहले वे याद करते हैं बाबा नागार्जुन को। अपने प्रिय जनकवि बाबा नागार्जुन से मिलने की उनकी ललक, अपनी सुनाई हुई कविता पर मिला बाबा का स्नेहिल आशीष किस तरह उनकी चेतना में समा उनकी भाव भूमि का हिस्सा बन गया, ये संस्मरण हमें बताता है। इसी तरह अपने गुरूदेव आलोचना पुरुष नामवर सिंह जी और जोधपुर विश्वविद्यालय से जुड़ी घटनाएँ भी एक संस्मरण में आती हैं। ऐसे ही उनके जीवन में आए रामसिंह राठौड़ ‘डांवरा’, शिवमूर्ति, हरीश भादानी, रघुनंदन त्रिवेदी, दीनदयाल ओझा, शिवरतन थानवी, विजयदान देथा (विज्जी), ठा. नाहर सिंह जसोल, डॉ. सत्यनारायण, विभूतिनारायण राय, डॉ. शाहिद मीर, प्रो. नईम, शैलेंद्र चौहान, नेमीचन्द जैन ‘भावुक’ और डॉ. विमल से जुड़ी हुई यादें इस संस्मरण पुस्तक में दर्ज हैं। 
ये संस्मरण लगभग पंद्रह से तीस साल पुराने हैं। पश्चिमी राजस्थान के एक कोने, अपनी ढाणी ठाकरबा गाँव नोख (पंचायत समिति जैसलमेर) से एक अबूझे मुहूर्त में निकल, जेब में चंद उधार के रूपए रखे, जोधपुर शहर पहुँचने वाले उस नवयुवक को पढ़ने-लिखने और नौकरी हासिल कर अपने परिवार का आर्थिक संबल बनने के साथ ही साहित्य रचने और उसमें रमने के सपने किस तरह चालित करते गए कि आज वही नवयुवक डॉ. आईदान सिंह भाटी राजस्थानी के ख्यातनाम कवि, आलोचक और कथाकार के रूप में उन जैसे न जाने कितने नवयुवकों के प्रेरणा श्रोत हैं। उनके साथ बैठ कर बतियाना जैसे एक युग से रूबरू होना है। अपनी बातों में वे अक्सर ठेठ देसी भाषा में कहते हैं, “ ऊ टेम पया केथ हा!... ऊ तो गुरुजनां री किरपा ही, अर भइसेणों रो प्रेम हो जो दिन निकळग्या अर थोड़ों घणों पढ़ लियो।” 
इस पुस्तक से गुजरते हुए हम उन आत्मीय पलों, खुशियों, मुस्कानों और आंसुओं को बहुत करीब से महसूस कर पाते हैं जो लेखक की जीवन-यात्रा के अभिन्न अंग बने। एक रचनाकार की संवेदना किस तरह उनमें विकसित हुई, ये भी एक अंतर्धारा  के रूप में इन संस्मरणों में जगह-जगह दृश्यमान होती है। यह पुस्तक संस्मरण विधा के तीनों अंगों आत्मीय एवं श्रद्धापूर्ण अंतरंग संबंध, प्रामाणिकता और वैयक्तिकता को अपने में समेटे हुए है। 
राजस्थान के जिन साहित्यकारों ने इस विधा पर कलम चलाई है उनमें से कुछ चर्चित नाम हैं- कमर मेवाड़ी, डॉ. सत्यनारायण, हेमंत शेष और हेतु भारद्वाज। इसी क्रम में डॉ. आईदान सिंह भाटी की यह संस्मरण पुस्तक ‘स्मृतियों के गवाक्ष’ एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ के रूप में जुड़ गई है। 
एक साहित्यकार का मन जितना नई रचना को रचने में प्रसन्न होता है उतना ही अपने साहित्यिक जीवन में बिताए हुए पलों को याद करते हुए उन्हें अपनी स्मृतियों में पुनः जीने में भी मुदित होता है। आज भी अपने जोधपुर स्थित घर की वाटिका में अपने लगाए हुए हरसिंगार के चौकोर तने वाले पेड़ के नीचे बैठे डॉ. आईदान सिंह भाटी बाबा नागार्जुन से मिले आशीर्वाद को कदाचित अपनी ही कविता के शब्दों में गुनगुनाते रहते हैं-

‘थार धरा के मेरे बेटों!
अपने मन में आज ठान लो
यह धरती है मात तुम्हारी
तुम बेटे हो इस रजकण के। 
खेतों खलिहानों में जिनके
गीत गूँजते हैं घर घर में
नमन करो उस लोक-गंग को
लहराती जो गीत लहर में।’  
----------------------------------

केटी
****

शनिवार, 12 सितंबर 2020

यात्रा

अगर ये धरती गोल है

तो पहुँच ही जाऊँगा तुम तक

एक दिन।

चल पड़ा हूँ मैं इस छोर से

बस तुम रुकी रहना ठीक उसी जगह, 

उसी जगह जहाँ बरसों पहले 

रोपा था यादों का बिरवा हमने। 

अक्षांश और देशांतर रेखाओं पर झूलता, खोजता

बढ़ रहा हूँ तेरी ओर,

कि जाने क्यों लोग बजाते हैं तालियाँ

नवाजते हैं उपाधियाँ

कहते हैं इन्हें मेरी उपलब्धियाँ,

जबकि मैं जानता हूँ

ये तो मेरे बढ़ते कदम हैं तेरी ओर,

और मैं पहुँच ही जाऊँगा तुम तक
एक रोज, 

अगर ये धरती हुई गोल

और तुम प्रतीक्षारत रहीं

यादों के बिरवे तले।



केटी
****

रविवार, 12 जुलाई 2020

रास्ते के रंग

वह जा रहा था। रास्ता था, वह था और साथ थे नजारे... सूरज, धूप, हवा, रेत, बबूल, पेड़, पंछी।
रास्ता मुड़ा। अब सूरज ठीक ऊपर चमकने लगा। तीखी धूप आँखें चौंधियाने लगी, बदन जलाने लगी। हवा भी जैसे डर कर धूप का साथ दे रही हो! पहले तन झुलसा फिर मन झुलसना शुरू हो गया। गहरा आघात हमें भीतर झुलसाने लगता है। दुनिया की हर शय का रंग गहरा काला हो जाता है। सन्नाटा काट खाने को दौड़ता है। कुछ कदमों की दूरी मीलों लंबी हो जाती है। हर साँस दुख का भारी दस्तावेज बन जाता है। 

रास्ता फिर मुड़ा। सूरज दाँयी ओर पेड़ों की ओट में आ गया। अरे...! ये क्या...! पेड़ों की घनी डालियों से छन कर आती हुई धूप खुशबू में बदल गई! आहा! कितनी सलोनी धूप!... कभी चोरी से झाँकती और लाज से पीली हुई प्रेमिका पहली बार अपने प्रेमी से मिलने का जतन कर रही है। पेड़ की पत्तियों में सरसराहट जैसे प्रीत का प्रथम बोल बोलने में उसके कंठ में आ गए कलेजे की थरथराहट है।... और वो, बेचैन प्रेमी-सा उसके इंद्रजाल में है। हवाएँ मृदंग बजा रही हैं। रास्ते की रेत लिपटना चाहती है... मुझे भी साथ लेलो, मैं भी साक्षी बनूँगी तुम्हारे प्रणय की। समय धुआँ हो गया है, भागता बादल हो गया है। कितने महीने मुहूर्तों की मानिंद गुजर जाते हैं, साल समय की सबसे छोटी इकाई बन बीत जाते हैं।

रास्ता फिर मुड़ता है... फिर मुड़ता है... फिर मुड़ता है। हर बार सब कुछ बदल जाता है। तब कहीं जाकर समझ में आता है कि समय कुछ नहीं बदलता, बदलने वाला होता है वो मोड़ जो तय करता है कि धूप जलाएगी या प्रेयसी बन गुनगुनाएगी।

केटी
****

रविवार, 7 जून 2020

मौन

भीतर का गहन मौन

सिद्ध होता है हमेशा, हर बार

कहीं अधिक समर्थ

कहे-सुने जाने वाले शब्दों से।

हम गढ़ ही नहीं पाए ऐसा शब्द

मन के दुख को जो करदे ज्यों का त्यों अभिव्यक्त, 

इसीलिए ऐ दोस्त, 

मानना ही पड़ता है हर किसी को, 

"मौनं सर्वश्रेष्ठ साधनम्।"

केटी
****

शुक्रवार, 29 मई 2020

जानना

वो जिसे कहते हैं जानना

वो सदा ही था आधा अधूरा, 

मन की गहन गुफाओं में

छुप कर रहता जाने क्या क्या!

थक कर कहना पड़ता है

वो सब जो जाने थे, 

कितने अंजाने थे।

केटी
****

शुक्रवार, 8 मई 2020

प्रीत बावरी

... प्रीत न करियो कोय!
*******************
प्रीत बावरी....! क्या इस जगत में प्रीत सदा अधूरी रहती है? इसके किरदार तो पूर्णतया  लौकिक हैं, किन्तु अपेक्षाएं, अभीप्साएं पारलौकिक-सी हैं।"तुम सदा मेरे साथ रहना, तुम केवल मेरे हो, ये आत्माओं का मिलन है......," जैसी ही अनेकोंनेक पुकारें प्रेमियों की ह्रदय-धरा पर उठती रहती हैं।जागतिक स्तर पर तो ये आकांक्षाएं अधूरी ही रह जाती हैं, तो क्या प्रीत इस लोक में किसी पारलौकिक शक्ति की खोज है...? या दग्ध ह्रदय को किसी अंजान, अज्ञात प्रदेश से आने वाली या आती हुई महसूस होने वाली किसी रूहानी शीतलता का आभास करवाने का माध्यम है...? कहीं प्रीत का ये अधूरापन ही तो इसे अनूठा नहीं बना देता है, या कहीं ये ही तो इसके किरदारों में एक अद्भुत आग तो नहीं भर देता जो कि उन्हें ज़माने से टकराने की कुव्वत दे देता है...?
...सबसे ऊंची प्रेम सगाई!

केटी
****

मंगलवार, 31 मार्च 2020

अधूरापन

किसी को भी

पूरा पढ़ पाया कौन

पढ़ना अधूरा ही रहता है

जैसे रह जाता प्रेम अधूरा

लाख जतन के बाद भी।

केटी
****

शुक्रवार, 20 मार्च 2020

भीतर जो है

यूँही अपने आप

नहीं उपजता

कुछ भी यहाँ।

गेहूँ, गुलाब, बाजरा या बेर;

और यहाँ तक कि

घृणा, प्यार, करुणा, क्रोध और आध्यात्मिकता भी

नहीं उपजते

कुछ भी यहाँ

यूँही अपने आप।

मिट्टी, पत्थर और अतीत के खड्ड में

दबे होते हैं कुछ बीज

अवसर की अनुकूलता

बनती है कारण

जिनके उपजने का।

इसलिए जो दिखता है बाहर ऐ दोस्त!

वो दबा है बहुत गहरे

भीतर कहीं।

केटी
****

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2020

अंधारे री उधारी अर रीसाणो चाँद (राजस्थानी कविता-संग्रह)

राजस्थानी कविता-संग्रह
अंधारे री उधारी अर रीसाणो चाँद
कवयित्री- मोनिका गौड़ (बीकानेर) 
**********************
संवेदनाओं के ह्रास के इस दौर में व्यक्ति, परिवार और समाज सभी अपने-अपने स्तर पर विसंगतियों व विद्रूपताओं से घिरे दुख, तकलीफ और समस्याओं से छटपटाते रहते हैं। इसी में से गुजरते हुए मोनिका अपनी कविता में न केवल इस पर टिप्पणी करती हैं बल्कि इसकी पड़ताल भी करती हैं।

51 कविताओं के इस संग्रह में मोनिका चहुंदिश फैले अंधेरे को न केवल टटोलती हैं बल्कि उसमें छटपटाते जीवन को शब्द देती हैं, सवाल भी खड़े करती हैं और यहाँ तक कि सवालों की उग्रता और उससे उपजे गहन आक्रोश के चलते पूरे समाज तक को कटघरे में खड़ा कर देती हैं। संग्रह की पहली ही कविता 'मन बेताळ' में ये तेवर नज़र आते हैं जिसमें वे कहती हैं-

बोल विक्रम, बता विक्रम
कै फौलाद सूं जद बण सकती ही हळ री फाळ
तो दुनाळियां कुण घड़ी?
मानखै ने मानखै सूं डरण री जरूरत क्यूँ पड़ी?
कारतूस रै खोळ रा दागीना क्यूँ नी बणवाओ
टैंक सूं टाबरिया नै स्कूल क्यूँ नी पूगाओ?

इसी तरह अंधेरा जब निराशा को गहरा कर देता है तो वे खुशी के राग उकेरने में खुद को असमर्थ पाती हैं और अपनी कविता 'चेतना री चौघट मनभावण राग' के माध्यम से कहती हैं-

उफणती छातियाँ में 
बसबसीजती रूह 
समाजू रीताँ
अर संस्काराँ रो
भारियो ऊंच्यां,
आयठण हुवती जूण
खदबदे चेतना री चौघट,
तद किण ढाळे उगेरूँ राग
कै रचूँ कविता

खेत-स्क्रैप’, जींवतो-जागतो खतरो’, भाजती जूण और ऐसी ही कई कविताओं में मोनिका बढ़ते बाज़ार की चपेट में आए मनुष्य और समाज की दुर्दशा को अलग-अलग कोणों से रेखांकित करती हैं। इनकी कविता पूरी तरह राजस्थानी लोक-रंग में रची-बसी है। लोक प्रचलित खेल और उनसे जुड़े खेल-गीत भी विविध प्रतीक और बिम्ब रचते हुए इनकी अभिव्यक्ति को माटी की सुगंध और सम्प्रेषण-सहजता प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए कविता भाजती जूण में ठोकरां रुळतो जमीर / बण्यो रैवै सतोळियै रो भाटो... या फिर कविता कठै गयो पाणी में खेल-गीत के माध्यम से मनुष्य के भीतर के पानी के सूखने को इंगित करती पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-

सात समंदर गोपी चंदर
बोल म्हारी मछली
कितरो पाणी?
जोव म्हारी मछली
कठै गयो पाणी?
उतरग्यो पाणी
रैयगी कहाणी
कांई बताऊँ
कितरो पाणी
कठै गयो पाणी!

संग्रह दो खंडों में बँटा हुआ है- मन बेता और पड़छियाँ विहूणी जूण। दूसरे खंड में 18 कविताएँ हैं और वे सभी नारी को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं। गांधारी और अहिल्या जैसे पौराणिक पात्रों की पीड़ा को समसामयिक दृष्टि देते हुए मोनिका अपनी कविता में स्त्री को पुरुष सत्ता की अधीनता से मुक्त करने का विचार पूरे दमखम से रखती हैं और तब वे कहती हैं-

नीं जोवूंला बाट किणी राम री
म्हारी मुगती सारू
अहल्या प्रगटसी
मतोमत आपरै भीतर सूं
ज्यूँ चट्टाणां मुळकै पुहुप
मांयले राम पाण।

एक कविता जो भाव के स्तर पर बहुत महीन बुनावट लिए हुए है वो है- प्रेम। प्रेम ऐसी अबूझ पहेली है जिसे हल करने के लिए जाने कितने काव्य रचे गए, पर रहा तब भी वह एक पहेली ही। यह कविता अपने ढंग से प्रेम को परिभाषित करती है और पूरे अधिकार से कहूँगा कि यही मोनिका की कविता का आधार स्वर है-

पण समझलो म्हारा मीत
प्रेम हक, तोल, जाप, मात्रा सूं नीं
सहजता सूं मिलैला
थे हो जाओ स्त्री निछळ,
प्रेम आपो-आप आ जासी
पण सरल नीं है, स्त्री होवणो...।

“स्त्री होना ही प्रेम में होना है,” जैसी उक्ति एक ओर जहाँ प्रेम के रहस्य को उद्घाटित करती है तो वहीं दूसरी ओर स्त्री को बहुत बड़े धरातल पर स्थापित करती है क्योंकि समूची सृष्टि ही प्रेम का अनुनाद है और प्रेम स्त्री का पर्याय। इस तरह यह कविता मोनिका के काव्य सृजन का उत्कृष्ट उदाहरण बन जाती है।

ठीक इसी तरह की एक अन्य कविता है- म्हैं पीपळ हूँ। इस कविता में पीपल के पेड़ से जुड़ी लोक आस्थाओं, अपेक्षाओं और कामनाओं को समाज में स्त्री की बंदी-व्यथा और पुरुष-प्रधान समाज द्वारा स्त्री को पावन, महान और देवी की प्रतिमा बताने के छल की तरह प्रकट किया गया है। प्रतीक-विधान बहुत सुंदर और अपने आप में अनूठा है। कविता बात शुरू करती है पीपल के पेड़ से और अंत में दिखाई पड़ती है स्त्री। पीपल का पेड़ कहता है-

म्हारी खुली बांवां उचक
परसणों चावै आभो
म्हैं बाथां में भरणो चावूँ
पूनम रो चाँद
म्हैं थाकग्यो हूँ जुगाँ सूं
महानता रो बोझो उखण्यां
आजाद करदो म्हनैं
थारी कामनावां, सुपना, आस्थावां अर निष्ठावां सूं
म्हैं पीपल हूँ, स्त्री नीं होवणों चावूँ...।

अपनी कविताओं में मोनिका ने आज के समय को रेखांकित किया है और सोशल मीडिया, टीवी चैनल्स और राजनीति के कुचक्रों में फँसे एक आभासी जीवन जीते समाज को तो दर्शाया ही है साथ ही सागी सियाळिया’, घाणी अर लोक’, पांगळो तंत्र जैसी कविताओं में चित्रण किया है लोकतन्त्र की दुर्दशा का और अपाहिज शासन तंत्र को धिक्कारा भी है। दिल्ली री सड़कां’, रूप बदळतो डर कविताएं उस भय का बयान है जो आज देश के हर कोने में हर रोज हो रहे लड़कियों, औरतों के साथ बलात्कार के कारण चहुं ओर व्यापा हुआ है। बालिका शिक्षा और नारी के समान अधिकारों के झंडे और नारे हर जगह बुलंद होते रहते हैं पर आज देश की आजादी के 72 साल बीत जाने पर भी क्या हम, ये समाज, हमारी कानून व्यवस्था स्त्री-सुरक्षा को लेकर सच में कुछ पुख्ता इंतजाम कर पाई है, यह बहुत बड़ा सवाल है और साथ ही शर्मिंदगी का कारण भी।
मोनिका गौड़ के अब तक 4 कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं- दो हिन्दी के और दो राजस्थानी के। यह तीसरा राजस्थानी कविता-संग्रह है। सन 1995 में इनका पहला हिन्दी कविता-संग्रह प्रकाशित हुआ था। तब से लेकर अब तक मोनिका की कविता निरंतर परिपक्व और सघन संवेदना से परिपूर्ण होती चली गई है। शायद इसी लिए वे कविता में मात्र रूमानियत की पक्षधर नहीं हैं। कविता लोक-चेतना का स्वर बन कर उभरे इसी की कोशिश और इसी की हिमायत इनका सृजन-संसार है। प्रेम और रोमांस के सर्वप्रिय और बहुप्रचलित प्रतीक चंद्रमा को भी ये नाराज कर देती हैं, वो आना चाहता है इनकी कविता में, पर ये कह देती हैं-

म्हारी कविता में आवण सारू
थांने बळणो पड़सी
तपणो-सुळगणो पड़सी
कांई थे हुय सकोला लाल
सुळझाय सकोला भूख रा सवाल?
म्हारी कलम फगत
साच रो रूमान रचै है
इणी सारूँ लोगाँ रै चुभै है।

केटी
***

(पुस्तक ज्योति पब्लिकेशन्स, बीकानेर से प्रकाशित है)








शनिवार, 4 जनवरी 2020

बकरे की अम्मा


बकरे की अम्मा

हमेशा की तरह आज भी अल्लारखी चलते-चलते पीर बाबा की मजार के पास पहुँच कर रुक गई। उसने कनखियों से इधर-उधर देखा और फिर मजार के आगे सर झुका कर मिमियाने लगी। उसे हर वक़्त डर लगा रहता था। उसका बेटा रहमत कब अल्लाह को प्यारा हो जाए, वह नहीं जानती थी। पीर बाबा बड़े दयालु हैं, वे उसके दुख को ज़रूर समझेंगे; बस यही सोच कर वह हर रोज़ अपने बेटे की सलामती की दुआ माँगती थी। उसकी संगी-साथिनें अक्सर उसका मज़ाक उड़ाते हुए कहती थीं, “अरे बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी!” उसका दुख और बढ़ जाता।

अल्लारखी कासिम लोहार की बकरी थी। कासिम सुबह होते ही उसके गले की रस्सी खोल कर उसे बाड़े से बाहर निकाल देता। दिन भर वह गाँव के आसपास खेतों के किनारे चरती रहती और शाम होते होते बाड़े में पहुँच जाती। रहमत के पहले भी उसके दो बड़े भाई हुए, पर एक बकरीद पर कुर्बान हो गया और दूसरा कासिम के बड़े बेटे की सगाई की दावत की भैंट चढ़ गया। दोनों बार अल्लारखी बहुत रोई। दो दिन तक चारे का एक तिनका भी मुँह में नहीं लिया। किसी तरह से दिन कटने लगे। और फिर उसने रहमत को जन्म दिया। रहमत के आने से उसके जीवन में खुशी आ गई। अपने बेटे को प्यार से दुलारते-चाटते वह अपना सारा दुख भूल जाती थी। इधर कासिम के घर के सब लोग भी बहुत खुश थे। कासिम रहमत को गोद में उठा कर अपनी बीवी को आवाज़ देता, “अरी ओ नसीमन! देख तो क्या शानदार बकरा है! इसे खूब अच्छा खिलाया-पिलाया कर। अगली बकरीद तक तगड़ा हो जाएगा।“ ये सुन कर अल्लारखी के दिल पर अंगारे बरसने लग जाते। वह सोचती, “कैसे इंसान है! मेरे दो बच्चों को अपनी खुशी के लिए काट कर खा गए और अब तीसरे को भी खाने की सोच रहे हैं! इतना भी नहीं सोचते कि हमने हमेशा इसका दूध पिया है तो कम से कम इसके एक बच्चे को तो ज़िंदा छोड़ दें!” जब नसीमन रोज़ हरी हरी कच्ची घास रहमत के आगे डालती तो अल्लारखी समझ जाती कि यह सब अपने स्वार्थ के लिए कर रहे हैं। मन ही मन कुढ़ती पर अपना दुख किससे कहे! और फिर आखिर वह कर भी क्या सकती थी! ऐसे में पीर बाबा का ही आसरा था। वे बड़े कारसाज़ हैं। वे ही कोई करिश्मा करें, मेहरबानी करें तो उसके बेटे की जिंदगी बच सकती है। हर वक़्त अपने बेटे की जान की खैर मनाती रहती।

एक दिन वह खेतों की मेड़ के पास मंडरा रही थी कि उसने देखा नीम के बड़े से पेड़ के नीचे एक गधा खड़ा था। वह समझ गई कि ये कहीं बाहर से आया हुआ है, क्योंकि गाँव के सभी जानवरों को तो वह पहचानती थी। पास पहुँच कर जान-पहचान करने की गरज से उसने सलाम-दुआ की। गधे ने बताया कि वह शहर के एक धोबी के यहाँ रहता था। अब वह वहाँ से भाग आया था। अल्लारखी को हैरानी-सी हुई। वह बोली, “भैया एक बात बताओ, तुम अपने मालिक के घर से क्यों भाग आए? मालिक ही तो खाना-पानी देता है, रहने-सोने का ठिकाना देता है।” गधे ने गुस्से में अपने काले-मोटे नथुनों को फड़काया और तमक कर बोला, “मालिक है तो क्या हुआ! कोई बैठे-बैठे नहीं खिलाता। दिन-रात हाड़ तोड़ मेहनत करता था मालिक के लिए, और बदले में मिलता था आधा-अधूरा खाना, कभी-कभी तो शहर की गलियों में कचरे के ढेर में मुँह मारना पड़ता था। आखिर हम भी जीव हैं। कभी थोड़ा-सा सुस्ताने का मन हमारा भी करता है। पर इनको इससे क्या! इनका काम ना करो तो ले लट्ठ पिल पड़ेंगे।” 

गधे की बात ने अल्लारखी के दुख को छू लिया। उसे लगा कि इसका कहना सही है। कहते हैं कि दुख सुनाने से मन हल्का हो जाता है। उसने भी लंबी साँस लेकर अपना दुखड़ा गधे को सुना दिया। बात पूरी करते करते फिर एक बार उसके मुँह से यही निकला कि पीर बाबा का ही आसरा है। गधे ने कहा, “पीर बाबा भी उसी की मदद करेंगे जो अपने दुख से निकलने के लिए खुद कोशिश करेगा।” “मैं भला कर ही क्या सकती हूँ!” अल्लारखी रुआँसी होकर बोली। गधे ने जवाब दिया, “रहने दे, रहने दे, तू अपने बेटे को चाहती ही नहीं। खाली नाटक करती है। गधा हुआ तो क्या हुआ, इतना तो मैं भी समझता हूँ।” अल्लारखी के कानों में जैसे पिघला हुआ सीसा उंडेल दिया हो! वह कुछ बोल नहीं पाई। उसका दुख कई गुना बढ़ गया। उसने सोचा, “देखो, आज यह गधा मुझे कैसे बोल सुना रहा है! ये क्या जाने माँ के मन को!” एक शब्द भी बोले बिना अल्लारखी अपने बाड़े की ओर चल दी। पीछे से गधा फिर चिल्ला कर बोला, “जब बेटे को चाहती ही नहीं तो खाली उसके जाने से क्यों दुखी होती है! कम से कम मालिक के तो काम आ रहा है।"

उस दिन के बाद गधा जब कभी भी अल्लारखी के सामने आता तो उसे चिढ़ाते हुए कुछ ना कुछ बोलता रहता, “अरी ओ नाटकबाज़! ... अब बकरीद में कितने दिन रह गए!” अल्लारखी के मन में आता दो तमाचे रसीद करदे गधे को, पर फिर हार कर रह जाती। उसे गधे से ज़्यादा खुद पर गुस्सा आता कि वह कुछ भी नहीं कर पा रही है।

एक रात की बात है, दिन भर की थकी अल्लारखी बाड़े में अपने खूँटे से बँधी सोई पड़ी थी कि बाड़े में धप्प की आवाज़ आई। उसे खटका हुआ। “कहीं कोई खतरा तो नहीं!” सोच कर तुरंत उठ बैठी। रहमत को संभालने के लिए हल्का-सा मिमियाई। जवाब में नन्हें रहमत ने आंखे बंद किए किए गर्दन को झटकारा। माँ की जान में जान आई। तभी देखा झीनू बिलाव दबे पाँव घर की ओर बढ़ रहा है। “ओह! तो तुम हो,” अल्लारखी मुस्कराते हुए बोली। झीनू शरारत भरी मुस्कान के साथ रसोई की खिड़की से भीतर घुस गया। थोड़ी देर बाद लौटा तो उसके मुँह पर लगे दूध के निशान से पता लग रहा था कि वह क्या करके आया है। अल्लारखी बोली, “आ गया चोरी करके!” अपनी मूँछों को पौंछता हुआ झीनू पास पड़ी पानी की टंकी पर चढ़ा और वहाँ से बाड़े की दीवार को फाँद गया। ज़मीन पर मुँह को टिका अल्लारखी फिर से सोने की कोशिश करने लगी। अचानक उसे क्या सूझा कि झट से उठ खड़ी हुई। इधर-उधर चलने लगी। उसके मन में एक बात आई कि अगर रहमत भी इसी तरह टंकी पर चढ़ कर बाड़े को फाँद जाए और यहाँ से दूर भाग जाए तो उसकी जान बच सकती है। वह सोचने लगी कि वह गधा एकदम सही कहता था कि अपने दुख से निकलने की कोशिश तो हमें खुद को ही करनी होगी। आज झीनू बिलाव को बाड़ा फाँदते देख उसे न जाने क्यों लग रहा था कि उसका रहमत भी ऐसा कर लेगा।

अल्लारखी को रास्ता मिला। अब वह हर रोज़ मौका निकाल कर रहमत को टंकी पर चढ़ना सिखाती, बाड़े में ही कूदना सिखाती। कभी-कभी रहमत परेशान होकर कहता, “बस करो अम्मी, अब मैं थक गया हूँ। इतनी जल्दी भी क्या है, सीख जाऊँगा धीरे-धीरे।” अल्लारखी प्यार से अपने बेटे को पुचकारते हुए कहती, “बस एक बार और करले। इस बार खूब ऊँचा कूदना।”
दिन पर दिन कटते जा रहे थे। रमजान का महीना आया। पूरे तीस रोज़ बाद मीठी ईद मनाई गई। नसीमन ने सिवइयाँ बनाई। घर भर में सारा दिन बच्चों की दौड़-भाग और लोगों की चहल-पहल बनी रही। बच्चों को हँसता-खेलता देख कर अल्लारखी भी बहुत खुश होती थी पर अगले ही पल वो खुशी चिंता में बदल जाती जब उसे खयाल आता कि बकरीद अब सिर्फ चालीस रोज़ दूर है। इस बीच दिन में बाहर घूमते हुए उसे कई बार वह गधा भी मिला। उसने जब अल्लारखी को चिढ़ाना शुरू किया तो इस बार अल्लारखी हमेशा की तरह चिढ़ी नहीं बल्कि मुस्कराई और बोली, “गधे भैया, मैं पूरी कोशिश कर रही हूँ अपने बच्चे को बचाने की। क्या तुम मेरी एक मदद करोगे?” गधे ने कहा, “अरी नेकबख्त! मैं तो इसी लिए तुझे चिढ़ाता रहा ताकि तुम खुद अपने बच्चे को बचाने की कोशिश करो। अब जब तुम इतनी हिम्मत कर रही हो तो मैं ज़रूर तुम्हारा साथ दूँगा, बोलो क्या करना है?” अल्लारखी गधे के करीब आई और उसके कान में फुसफुसा कर कुछ बोली। गधे ने अपने लंबे कान फड़फड़ाए, सिर को दोनों ओर घुमाया और बोला, “ठीक है, तुम्हारा काम हो जाएगा।”

कासिम शाम ढले रहमत के गले में रस्सी डाल रस्सी के दूसरे सिरे को पास लगे खूँटे में फँसा देता था। अब अल्लारखी को जल्दी ही बहुत कुछ करना था। सबसे ज़्यादा दिक्कत तो आई रहमत को समझाने में। वह मानने को तैयार ही नहीं था कि कासिम और उसके परिवार के लोग जो कि उसका इतना खयाल रखते हैं, वे ही उसे कुछ दिनों बाद काट के खा जाने वाले हैं। पर आखिर अल्लारखी उसे समझाने में कामयाब हो गई।

और फिर बकरीद के ठीक तीन रोज़ पहले की रात जब सारा गाँव नींद में सोया पड़ा था, अल्लारखी ने धीरे-धीरे अपने बेटे के पास सरकते हुए उसे आवाज़ दी, “रहमत! बेटा रहमत! उठो! आज मौका अच्छा है, निकल भागो।” रहमत ने कुनमुनाते हुए कहा, “क्या अम्मी, इतनी अच्छी नींद आ रही है... कल दिन में भाग जाऊँगा ना!” अल्लारखी बोली, “बस बेटा, आज की रात नींद खराब करले, फिर हर रात चैन की नींद सोना।” इसके साथ ही उसने अपने सींगों से खूँटे में फँसी रस्सी को ऊपर की ओर सरकाना शुरू किया। जल्दबाज़ी में कई बार उसका सिर भी छिल गया। रस्सी बाहर निकलते ही उसने रहमत को टंकी पर चढ़ने का इशारा किया। रहमत आसानी से टंकी पर चढ़ गया। अल्लारखी फुसफुसाई, “जल्दी कर, कूद जा मेरे बेटे, फाँद जा बाड़ को और भाग जा दूर...बहुत दूर।” रहमत ने अम्मी की आँखों में देखा, वहाँ एक ओर बेटे से हमेशा हमेशा के लिए बिछड़ जाने का दुख आँसुओं की शक्ल में टपक रहा था तो दूसरी ओर बेटे की सलामती की खुशी भी चमक रही थी। पूरी ताकत लगा कर रहमत बाड़ फाँद गया। दूसरी ओर गिरा तो थोड़ी चोट तो आई फिर अगले ही पल खड़ा हो गया। रात के अँधेरे में क्या करूँ, किधर जाऊँ सोच ही रहा था कि एक कोने से आवाज़ आई, “इधर आ जाओ रहमत मियाँ... तुम्हारी अम्मी ने मुझे तुम्हें यहाँ से दूर ले जाने के काम सौंप रखा है। रहमत मुस्कराया, फिर उसे अपनी अम्मी पर नाज़ हुआ।

रात के अँधेरे में दोनों प्राणी गाँव के बाहर की ओर भाग रहे थे। इधर अल्लारखी फिर पीर बाबा से अपने बेटे की सलामती की खैर मना रही थी।

----------------------------------------------------------------------------------------