रविवार, 27 मई 2018

प्रेम, अवनि और वातायन

पुस्तक-चर्चा
**********
कविता-संग्रह- प्रेम, अवनि और वातायन (मूल्य : 150 रु.)
रचनाकार- सुनीता गोदारा
**********
अगर कविता खुद की तलाश है तो...
----------------------------------------
सुनीता के इस काव्य-संग्रह में कविताओं का दूसरा खण्ड है- अवनि अम्बर बीच। आईए आज इसी खण्ड की कविताओं पर चर्चा करते हैं। इस खण्ड में छोटी-बड़ी 26 कविताएँ हैं। सुनीता राजस्थान के सीमावर्ती जिले बाड़मेर के सुदूर ग्रामीण अंचल से आती हैं। यहीं वो सब कुछ था जो इनके मानस में समाया और संवेदना की तपन से शनै-शनै कविता में ढलता गया। और वो सब कुछ था वहाँ का प्राकृतिक व साँस्कृतिक परिवेश, जिसमें बालुई रेत के मखमली धोरे, गाँव की भोर, दोपहर, धूल भरी आँधियाँ, रहस्यमयी सुनसान शाम, ठंडी और साफ चमकदार रातें, त्योहारों की रौनक, परंपराओं की सौगात, बारिश के बाद की माटी की सौंधी खुशबु, बावड़ियाँ, खेजड़ी के दरख्त, कँटीली झाड़ियाँ, बकरियों के रेवड़ और समूची मरुधरा की अनबुझ प्यास थी।
अगर कविता इस संसार में खुद की तलाश है तो सुनीता बार-बार, या यूँ कह लें कि हर बार, खुद की तलाश में अपने मानस में बसे इसी प्राकृतिक सौन्दर्य तक चली आती हैं और 'अवनि अम्बर बीच' बसे जगत के इस भू-भाग को अपनी कविता से अभिव्यक्त करती हैं-
कौन कहता है कि
गाँव गाँव नहीं रहे
अभी भी गाँव की मिट्टी
सुगंध से भरपूर है।
रातों में जुगनुओं की चमचमाहट
फागुन में फाग के गीतों की गूँज
त्योहारों में रैवणो का आनंद।
इसी प्राकृतिक सौन्दर्य से उभरता है एक अद्भुत आनंद जो इस तरह कविता में रूपायित होता है-
दुनिया का सबसे मधुर संगीत
बज रहा वृक्ष से
शाखाओं का
सूखी पत्तियों का
डाल पर बैठे पंछियों का।
यह अनुभूति आज के इस भागदौड़ वाले जीवन में मनुष्य का ध्यान उस मधुर संगीत की ओर आकृष्ट करती है जो दया, करुणा और प्रेम का अजस्र स्रोत है। ऐसी कविता इस बात की साक्षी बनती है कि सुनीता मरु अंचल की उस प्राकृतिक-साँस्कृतिक सम्पदा में कितनी गहराई तक घुली-मिली हैं और उसकी प्रतीति को कविता में उतारने में किस हद तक सफल हुई हैं। एक बानगी और देखिए-
धूप ने चुपके से आ
कहा कानों में
आ मेरे साथ बैठ
जिन्दगी निखर जाएगी।
गाँव से शहर में आना जिन्दगी को एक झटके से बदल देता है। लंबी-चौड़ी सड़कें, भीड़ की चिल्ल-पौं, पसरे हुए बाजार, दिखावटी मुस्कराहटें, रिश्तों का बदलता अंदाज उनके मन को विचलित कर देता है और तब वे स्वयं को असहाय पाती हैं और सड़क किनारे खड़े पेड़ से खुद को अभिव्यक्त करती हैं-
सड़क किनारे खड़ा पेड़
रात के सन्नाटे में
बड़े ट्रकों की कर्कश आवाज से
मायूस हो उठता
सोचता कि मेरे भी पहिये लगे होते
तो सड़क से कहीं दूर जाकर
मैं भी चैन की साँस लेता।
इस खण्ड की कविताओं को पढ़कर ऐसा लगता है कि यही सुनीता का मूल स्वर है। इन तपते रेत के धोरों ने इन्हें तोहफे में दी है अपनी अनबुझ प्यास और दूर चमकती मृग-तृष्णा।
यहीं से चली है, यहीं लौट आती है सुनीता की कविता-
छाया है आलम उदासी का
दरख्तों के सीने में।
कुछ पहर
दूर शहर
खामोशी से
खुद को
पहचान लिया जाए।
केटी
*****
इस खण्ड की कविताओं पर आपके विचारों की प्रतीक्षा है।
शीघ्र ही इस पुस्तक के तीसरे कविता-खण्ड 'तीसरा वातायन' पर चर्चा करेंगे।
*******************

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें