शनिवार, 25 मई 2019

कलुआ की क्रान्ति-कविता(दूसरा भाग- क्रान्ति की राह)

डाल ही दो गर पैर किसी राह में
चलना तो आ ही जाता है
होता है रास्तों का भी
कुछ अपना फर्ज।
क्रान्ति की भट्टी में तपता
गलता पिघलता
नित नए रूप धरता
बन गया कलुआ कालीदास 'क्रान्ति'।
शब्दों की गिज़ा से भरपूर
शब्द खाना, शब्द पीना
ओढ़ना बिछाना भी शब्द
शब्दों के खोल में जा बसना।
उसकी हर गति, यति करने लगी आचरण
किसी शब्द की भाँति
कभी अभिधा, कभी लक्षणा तो कभी व्यंजना।
डकारें भी आती
तो सुनाई देता
मार्क्स और लेनिन का उदघोष।
शब्दों की जुगाली करता
चल पड़ा वो क्रान्तिवीर
सब कुछ बदलने को।
हैरान हुआ कलुआ देखकर
राह खचाखच भरी थी क्रान्ति की
कई थे हमसफर।
कुछ चल रहे थे
कुछ दौड़ रहे थे
कुछ बूढ़े क्रान्तिकारी
थे जवानों के कन्धों पर सवार
मगर वाह रे क्रान्ति का जज्बा
फिर भी बढ़ रहे थे।
भीड़ बहुत थी
आगे बढ़ने के लिए जरूरी था
कुछ को हटाना।
सोच में डूब गया कलुआ
नहीं लौट सकता पीछे
आगे तो बढ़ना ही है
क्रान्ति पुकार रही है।

केटी
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