शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2019

थल्लम-थल्ली


सुवंश...! सुवंश...! क्या कर रहा है! वहाँ कहाँ जाकर बैठ गया...! वो देख, बॉल निकल गई,” गगन चिल्लाते हुए बोला। उधर दूसरी ओर कुछ बच्चे बॉल निकल जाने के कारण ज़ोर से चिल्ला कर बोले, “वाव! फेंटेस्टिक शॉट!”
शहर में बढ़ती हुई कॉलोनियों ने बच्चों से उनके खेलने के मैदान छीन लिए। कॉलोनी से सटे इक्के-दुक्के बगीचों में ही बच्चे खेलने की जगह पाते थे। यह कृष्णा नगर कॉलोनी के पास बने हनुमान मंदिर का बगीचा है, जहाँ कॉलोनी के बच्चे रोज शाम क्रिकेट खेलने आ जुटते हैं।
गगन दौड़ कर सुवंश के पास गया और बोला, “क्या हुआ, बैठ क्यों गया था!”
“एक घंटे से तो खड़े खड़े बोर हो रहा हूँ, बॉल तो आती नहीं, अब थोड़ा-सा बैठा तो बॉल निकाल गई,” सुवंश ने पलट कर जवाब दिया। सारे बच्चे गगन और सुवंश को घेर कर खड़े हो गए। सभी का यही मानना था कि इस खेल में तो ज़्यादातर खिलाड़ी बोर ही होते हैं।
“करें तो क्या करें, ये तो खेल ही ऐसा है,” दीपक बोला। तभी रघु का ध्यान बगीचे के कोने में बनी पत्थर की बैंच पर गया। वहाँ एक सफ़ेद बालों और चमकदार आँखों वाला लंबा-सा आदमी बैठा था। उसने ढीला-ढाला सफ़ेद कुर्ता पायजामा और पैरों में पी-टी शूज पहन रखे थे। वह बच्चों को इशारा करके अपनी ओर बुला रहा था। रघु ने सबको चुप करते हुए उधर देखने को कहा। बच्चों के लिए ये नई बात नहीं थी। कॉलोनी के बुजुर्ग सुबह-शाम बगीचे में घूमने के लिए आते रहते थे। हाँ, इधर जहाँ बच्चे खेलते थे वहाँ वे नहीं आते थे। वे पार्क के दूसरे हिस्से में घूमा करते थे। गगन ने सभी से पूछा कि क्या कोई उन्हें जानता है, पर सभी ने ना में ही जवाब दिया। वह आदमी मुस्करा रहा था और अभी भी बच्चों को इशारा करके बुला रहा था। सभी कुछ संकोच और कुछ कौतूहल के साथ उस आदमी तक पहुँचे। पहल रघु को ही करनी पड़ी।
“आप ने हमें बुलाया अंकल!”
“हाँ-हाँ,” गर्दन हिलाते हुए वह आदमी कहने लगा, “मैं इतनी देर से देख रहा हूँ कि खेलने को तो आप सब लोग खड़े हो पर खेलने का मज़ा दो-तीन लोग ही ले पा रहे हैं... मैं सही कह रहा हूँ ना!” बच्चों को हैरानी-सी हुई।
गगन बोला, “हाँ अंकल, है तो कुछ ऐसा ही।”
“तो तुम लोग कोई ऐसे खेल क्यों नहीं खेलते जिसमें सब लोग पूरा मज़ा ले सकें,” उस आदमी ने अपनी चमकदार आँखें बच्चों की ओर घुमाते हुए कहा। अब बच्चे खुलने लगे। वे आपस में खुसर-फुसर करने लगे। शायद जानना चाह रहे थे कि उनका कोई साथी कोई दूसरा खेल भी जानता है क्या!   हार कर दीपक बोला, “अंकल हमें तो बस यही खेल आता है। घर में तो वीडियो गेम्स टैम्पल रन, कार रेस, टॅाकिंग टॉम, पबजी खेल लेते हैं और बाहर क्रिकेट।” इस पर अंकल ठहाका लगा कर हँस पड़े। पीछे-पीछे सब बच्चे भी हँस दिए। “चलो मैं तुम्हें कुछ खेल सिखाता हूँ,” अंकल ने खड़े होते हुए कहा।
तुम लोगों ने कभी थल्लम-थल्ली खेला है?”
बच्चे चुप... एक-दूसरे को हैरानी भरी आँखों से देखते हुए बोले, नहीं, पर इसे खेलते कैसे हैं!”
“देखो, इसमें एक बच्चे को डम्मा दी जाएगी, मतलब वह सबको पकड़ेगा। बाकी बच्चे दूर खड़े रहेंगे। डम्मा वाला बच्चा ज़ोर से बोलेगा- थल्लम थल्ली!, इस पर सारे बच्चे एक साथ ज़ोर से बोलेंगे- कौनसी थल्ली! अब डम्मा वाला बच्चा कोई भी आसपास की जगह का नाम बताते हुए बोलेगा- उस जगह की थल्ली! सारे बच्चे उस बताई हुई जगह को छूने के लिए दौड़ेंगे। डम्मा वाला बच्चा उन सभी को पकड़ेगा। बताई हुई जगह यानि थल्ली को छू लेने वाले बच्चे तो बच जाएँगे लेकिन इससे पहले अगर किसी बच्चे को डम्मा वाले ने पकड़ लिया तो अब डम्मा उस पर आ जाएगी और इसी तरह खेल आगे बढ़ता रहेगा।”
बच्चों को खेल अच्छा लगा। उन्होने अपने बैट, बॉल एक ओर रख दिए और थल्लम थल्ली खेलना शुरू किया। बगीचे में किनारे किनारे रंग-बिरंगे फूलों के पौधे लगे हुए थे, बस इन्हीं फूलों को थल्ली के रूप में चुना जाना तय हुआ। सबसे पहले डम्मा ली गगन ने। गगन ज़ोर से चिल्ला कर बोला- थल्लम थल्ली!
जवाब में सब बच्चे दुगुने स्वर में चिल्लाए- कौनसी थल्ली!
गुलाब के फूल की थल्ली,” गगन बोला। और फिर हँसते-चीखते-किलकारियाँ मारते बच्चों का झुंड फूलों की क्यारियों की ओर लपका। कुछ ने गुलाब के पौधे को छू दिया, कुछ इधर-उधर भागते रहे। रघु पकड़ा गया। अंकल धीमे-धीमे कदमों से चलते हुए फिर से उसी बैंच पर जा बैठे। वे बच्चों को हँसते-खेलते देख कर मुस्करा रहे थे। अब रघु डम्मा दे रहा था। रघु ने थल्ली बताई- पीले फूल की थल्ली! कई बच्चे पीले फूल की ओर भागे पर शरारती बिट्टू अड़ गया, “नाम बताओ फूल का, खाली पीला फूल कह देने से काम नहीं चलेगा।” खेल रुक गया। सब बच्चे इकट्ठा हो गए। ऐसी परेशानी भी आ सकती है यह तो किसी ने सोचा भी नहीं था। एक गुलाब के फूल को छोड़ कर किसी ओर फूल का नाम कोई बच्चा नहीं जानता था। मामला बीच में ही लटक गया। सबने बिट्टू को समझाने की बहुत कोशिश की पर वह तो जैसे अड़ ही गया। बच्चों का खेल रुका हुआ देखकर अंकल उठे और बच्चों के पास आ गए। “क्या हो गया, खेल बंद क्यों कर दिया...! अच्छा नहीं लगा क्या...!, अंकल ने पूछा।
“खेल तो बहुत अच्छा चल रहा था अंकल, पर यह बिट्टू कह रहा है कि थल्ली बताते समय फूल का नाम भी बताना पड़ेगा, पर हम लोगों को तो एक गुलाब के फूल का नाम पता है, बाकी किसी का नाम तो हम जानते ही नहीं,” दीपक उखड़ता हुआ बोला। उसे बिट्टू पर बहुत गुस्सा आ रहा था। उसकी ज़िद ने अच्छे-खासे खेल का मज़ा बिगाड़ दिया था।
“तुम लोग रोज़ इन फूलों के बीच में खेलते हो, तुम्हें इनका नाम भी पता नहीं है!” अंकल ने आश्चर्य से पूछा। ये तो वही बात हुई कि हमें हमारी गली में रहने वाले पड़ौसियों के नाम  भी पता नहीं,” अंकल ने मुस्कराते हुए कहा। “आओ मेरे साथ, मैं बताता हूँ तुम्हें इन फूलों के नाम,” कहकर अंकल आगे-आगे चल दिए और सभी बच्चे उनके पीछे हो लिए।
“देखो, ये जो पीले और केसरिया रंग के छोटे और एकदम भरे हुए फूल हैं, ये दोनों ही हजारे के फूल हैं। इन्हें गेंदे के फूल भी कहते हैं। इन सफ़ेद वाले फूलों को चमेली के फूल कहते हैं,” अंकल ने फूलों कि ओर इशारा करके बताया।
रघु ने दूसरी ओर लगे पीले फूलों की ओर देखते हुए पूछा, अंकल, ये भी हजारे के फूल हैं क्या, है तो पीला पर कुछ अलग-सा दिख रहा है।”
“नहीं-नहीं, यह हजारे के फूल से बड़ा और फैला हुआ है। इसे सूरजमुखी का फूल कहते हैं। इसके बारे में कहा जाता है कि जिधर सूरज होगा, उधर ही यह अपना मुँह घुमा लेता है,” अंकल ने समझाया। बिट्टू बोला, “तब तो मिस्टर सूरजमुखी को संडे के दिन पूरा दिन देखेंगे, कि वे अपना मुँह सूरज की ओर घुमाते हैं या नहीं। दिलीप भड़क कर बोला, हाँ-हाँ, तू संडे को भी अपनी ज़िद पकड़ कर बैठ जाना। इस पर सारे बच्चे खिलखिला कर हँस पड़े। बच्चों को बड़ा मज़ा आ रहा था। अब अंकल दूसरी तरफ के फूलों की ओर बढ़े। यह देखो, इसे कहते हैं गुड़हल का फूल। लाल रंग के इस फूल में बीच में कलंगी निकली हुई है। देख रहे हो ना सब लोग!” अंकल ने पूछा। सभी बच्चे एक-दूसरे पर झुक कर फूलों को देख रहे थे। “अरे वाह, यह तो बहुत सुंदर है,” सुवंश बोला। दूसरे बच्चे भी गुड़हल के फूल की तारीफ करने लगे।
“फूल तो सभी सुंदर ही होते हैं। ये भी तुम बच्चों के जैसे ही हैं, हँसते-खिलखिलाते खूबसूरत लगते हैं,” अंकल बोले। तभी दिलीप दौड़ कर एक पेड़ के पास पहुँच गया और लगभग चिल्लाते हुए बोला, “अरे देखो अंकल, इस पेड़ पर कितने सारे फूल खिले हुए हैं!” अब तो सारे बच्चे उस पेड़ की ओर दौड़ पड़े। सबने पेड़ पर लगे फूलों को देखा। लाल और केसरिया रंग दोनों मिलकर उन फूलों को एक नई चमक दे रहे थे। फूलों के बीच में लगी खूब सारी लाल-लाल कलंगियाँ उनकी सुंदरता को बढ़ा रही थी। पूरा पेड़ फूलों से जगमगा रहा था।
“ये गुलमोहर के फूल हैं बच्चो,” अंकल ने पास आते हुए कहा। बच्चे आज एक नए संसार से परिचित हो रहे थे।
“ये पास में ही जो हल्के लाल रंग के फूल देख रहे हो ना, जिसमें बीच में सफ़ेद फूलों की कलंगी लगी है, इन्हें ब्यूगनवेलिया कहते हैं,” अंकल ने पास ही लगे फूलों की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा। बच्चे इस अटपटे नाम पर खिलखिला उठे। कई कई बार गलत उच्चारण करते हुए आखिरकार सही बोल पाए- ब्यूगनवेलिया। रघु बोला, इसे पहचानना सबसे सरल है। हल्के लाल रंग का फूल और उसमें कलंगी पर सफ़ेद फूल, यानि फूल के अंदर फूल, तो वो है ब्यूगनवेलिया का फूल।
शाबास! इस तरह तुम सभी फूलों की पहचान बना सकते हो। और हाँ, अब तो तुम यहाँ के सारे फूलों के नाम भी जान गए हो, अब खेलो आराम से,” कहते हुए अंकल फिर उसी बैंच पर जाकर बैठ गए। बच्चे एक एक करके सभी फूलों के पास गए और याद कर करके उनके नाम दोहराए। फिर क्या था, रुका हुआ खेल फिर से शुरू हो गया। बगीचे में बच्चों की आवाज़ गूँजने लगी-
थल्लम-थल्ली!...
कौनसी थल्ली!...
गुलमोहर की थल्ली!...
हजारे की थल्ली!...
गुड़हल की थल्ली!...
चमेली की थल्ली!...
शाम का अँधेरा घिर आया। बच्चे घर लौटने को हुए। एक बार सभी अंकल के पास पहुँचे। अंकल आँखें बंद किए हुए बैठे थे और मुस्करा रहे थे, मानो कोई अच्छी-सी फिल्म देख रहे हों। रघु बोला, “अंकल अब हम घर जा रहे हैं। आप कल भी आओगे ना!” अंकल भी उठ खड़े हुए। रघु के सिर पर प्यार से हाथ रखते हुए बोले, “हाँ-हाँ, ज़रूर आऊँगा, अभी तो और भी कई खेल सिखाने बाकी हैं। सब बच्चे खुशी से एक साथ बोल उठे, “अरे वाह, मज़ा आएगा, हम और नए खेल सीखेंगे। बिट्टू ने पूछा, “अंकल कौनसे खेल सिखाओगे, हमें नाम बता दो।”
ठहाका लगाते हुए अंकल बोले, “नहीं-नहीं, आज नहीं बताऊँगा। कल जब सीखेंगे नया खेल, तभी नाम भी पता चलेगा।
ठीक है अंकल, कल ही सही, पर आप आना ज़रूर,” दिलीप ने कहा। सभी बच्चे बाय-बाय अंकल कहते हुए घरों की ओर रवाना हुए। अंकल बगीचे से निकल कर दाहिनी ओर वाली सड़क पर बढ़ गए। वे मन ही मन शायद बुदबुदा रहे थे कि कल आइस-पाइस सिखाऊँ या घोड़ा-कबड्डी या सतोलिया या फिर शेर-बकरी
इधर बच्चों की टोली मस्ती में झूमती हुई कॉलोनी की ओर बढ़ रही थी। एक ही आवाज़ चारों ओर गूँज रही थी- थल्लम-थल्ली...!   

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