गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

विदा का पल

वो विदा का पल नहीं था

क्या हुआ जो तुम्हारी ऑंख नम थी

या कंठ था भरा हुआ

या कंपकंपाते होंठ कह रहे थे अनकही

या कि थम-से ग‌ए थे वे मुहुर्त

विदा इस तरह तो नहीं आती होगी

फिर क्या हुआ ऐसा कि हम-तुम

साॅंस रोके चल पड़े थे उस घड़ी!

जानती हो आ ग‌ए हैं दूर कितने

पल-प्रतिपल बढ़ रहा है फासला

देर तक सूरज निकलता ही नहीं

भोर रूठी छुप ग‌ई किस ठौर जाने

काश हम फिर लौट पाएं उन पलों में

बदल डालें उस विदा के श्राप को

गर जो होता सहज इतना लौटना

लौट कर तुमको किसी दिन मैं दिखाता

वो विदा का पल नहीं था

था नहीं, बिल्कुल नहीं था

वो विदा का पल नहीं था।

केटी
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