रविवार, 14 जून 2015

मन के मरुस्थल

 पूरे रास्ते  वो सर खाता रहा। "किरण जी, मैं आपको रियली बता रहा हूँ कि आपके आने से हमारे कार्यक्रम में चार चाँद लग गए। सब कह चुके थे, इतनी बड़ी राष्ट्रीय स्तर की कवयित्री अदिति किरण ……! कहाँ उनको इतना समय, पर किरण जी मुझे पक्का विश्वास था कि आप ज़रूर आओगे। मैं आपको रियली बता रहा हूँ........," वो बोलता ही चला गया। अदिति ने एक औपचारिक मुस्कान देकर गर्दन मोड़ ली और कार के शीशे से बाहर देखने लगी। जैसलमेर …… पीले पत्थरों वाले मकानों का शहर। शाम के छः बज गए थे पर फिर भी धूप आँखों में घुस के जैसे पूछ रही हो, "और, अब बता, कैसा लगा मेरा तेवर!" दूर ऊपर किला नज़र आ रहा था। किले की जड़ छोड़ते हुए पत्थर कभी भी हरहरा के उसके गिर जाने की भयावहता को पूरी तरह से सम्प्रेषित करते थे। कुछ प्राइवेट बसें खड़ी थीं आसपास के सीमावर्ती गावों तक जाने के लिए। बसों के पास ग्रामीणों की भीड़ थी। धोती और नीले कुर्ते में पुरुष और नीले-हरे रंग के सूट जैसे पहनावे में महिलाएँ। महिलाओं और पुरुषों दोनों की ही आँखों में काजल लगा हुआ था। चाँदी की गोल छल्लेदार नथ को झुलाती महिलाएँ हँसते हुए कुछ बोल रही थीं। 
"प्रकाश जी, ये कौन लोग हैं," उसने पूछा। एक पल को प्रकाश जी को ये लगा कि वो तो इतनी देर से क्या-क्या बोल रहे थे और ये उनकी बात ना सुन के बाहर कुछ और ही देख रही है। ऐसा दोनों को एक साथ लगा और अदिति ने उसे भरने के लिए जैसे कहा, "आपका जैसलमेर बहुत शानदार है।" हालाँकि ये वाक्य कुछ भी सोच के नहीं बोला गया था, या बस यूँही जैसे झैंप मिट जाए, या कि जिससे वो पल गुज़र जाए जिसमें इस बात का सामना करना पड़ता कि क्या आप मुझे अनदेखा कर रही थी। प्रकाश जी तुरन्त ही सहज हो गए, "किरण जी, मैं आपको रियली बता रहा हूँ कि आप मेरा निवेदन स्वीकार करो और आज यहीं रहो। मैं कल आपके जैसलमेर भ्रमण का कार्यक्रम बनाता हूँ।"बोलते-बोलते शायद उन्हें लगा कि कुछ ज़्यादा ही हो गया तो एक फीकी-सी हँसी से अपनी ही बात को उन्होंने हल्का भी किया। "अभी तो नहीं पर हाँ किसी दिन आऊंगी अवश्य," कह कर अदिति ने फिर वही औपचारिक मुस्कान दोहराई और साथ में चैन की साँस  भी ली कि चलो इनको अनावश्यक रूप से बुरा भी नहीं लगा। बस-स्टैंड से थोड़ा-सा आगे ही 'खादी ग्रामोद्योग भवन' का बोर्ड लगा था जो गाँधी की विरासत को संभाले हुए एक इतिहास को खुद में संजोए रखने के दर्प से भरा हुआ सर उठाए खड़ा था। बस, वहीँ प्रकाश जी उतर गए। उतर के फिर बोले, "किरण जी रियली बता रहा हूँ कि आप रुक जाते तो.…," इसके आगे खुद ही चुप लगा गए। 
"बहुत अच्छा लगा आप सब से मिल के, फिर होती है आपसे मुलाकात।" अदिति ने कार की खिड़की से प्रकाश जी को हाथ जोड़ कर विदा ली। शाम धीरे-धीरे रैंग रही थी। धूप की पीलास में गाढ़ापन उतर रहा था। शहर पीछे छूटता जा रहा था। वैसे तो अदिति की छुट्टियाँ अगले सप्ताह से शुरू हो रही थीं और उसके बाद ही उसे यहाँ आना था पर कामिनी जी ने एक पुस्तक लोकार्पण के लिए उसे जैसलमेर जाने को कहा तो उन्हें वो मना नहीं कर पाई। हालाँकि दिल्ली में रहते हुए, नौकरी करते हुए उसे ना जाने कितने साल गुज़र गए थे पर तब भी उसे दिल्ली की आदत नहीं हुई। आसमान के छोर से अँधेरा अपनी स्याही की बूँदें टपका कर शाम की गाढ़ी पीलिमा को हरने की कोशिश में लगा हुआ था। अदिति ने कार का शीशा खोल दिया तो हवा का एक तेज़ झौंका लपक के भीतर घुस आया। अभी तक बहुत गर्मी थी। शीशे को तुरन्त बंद करते हुए उसने पास पड़ी वो पुस्तक उठा ली जिसका आज उसने लोकार्पण किया था। कुछ कविताएँ पढ़ने लगी। पहली पुस्तक का छपना, पहली कविता के लिखे जाने के एहसास को बहुत सजीवता से दोहरा जाता है। ................ दिल्ली के कॉलेज वाले दिन उसके व्यस्ततम दिन हुआ करते थे। उसने माँ से पहले ही कह रखा था, "आप करो अपनी नौकरी, मुझे तो पढ़ना है। एम.ए. करूंगी, पी.एच.डी. करूंगी, ये नौकरी का चक्कर अपने बस का नहीं है।" हॉस्टल में रूम-पार्टनर मिली किट्टू ........ पूरी पगली। जहाँ एक ओर अदिति किताबों में डूबी रहती वहीं अक्सर किट्टू "चल रही है क्या पिक्चर" जैसे कई प्रपोजल लेकर आ धमकती। उसका चिपकना अदिति को बिलकुल नहीं सुहाता था। मान, मनुहार, प्यार, दोस्ती के तकाजे, डराने, धमकाने, चीखने, चिल्लाने जैसे सारे उपाय करके हार जाने के बाद "तो मर यहीं पे," कहके जब वो दरवाज़े को भटाक की आवाज़ के साथ अपने पीछे बंद करते हुए कमरे से निकल जाती तो ऐसा लगता जैसे कोई तूफ़ान-सा गुज़र गया हो। फिर कुछ पलों के बाद जब कमरे में ख़ामोशी पसरने लगती तो अदिति हल्का-सा मुस्कराती किट्टू की हरकतों को याद करके। कभी-कभी तो अदिति को किट्टू बहुत मासूम, छोटी-सी बच्ची लगती और कभी भारी आफत। कुल मिलाकर ये था कि वो समझ में पूरी तरह से आती ही नहीं थी। 
"किट्टू देख, कल रात मैंने एक कविता लिखी है, तुझे सुनाती हूँ।"
"मुझे माफ़ कर मेरी माँ, मुझे आत्महत्या नहीं करनी तेरी कविता सुनके," कहते हुए किट्टू करवट बदल कर फिर सो गई। बिना कुछ बोले अदिति पलट कर अपनी डायरी टेबल पर रखने लगी। किट्टू उठ कर आई और "अरे-अरे स्वीट हार्ट ऐसे उदास मत हो, चल ला, पढ़ते हैं तेरी कविता," कहते हुए अदिति से लिपट गई। 
"किट्टू!!! सौ बार कह चुकी हूँ तुझसे, मुझे ये तेरी चिपटा-चिपटी बिलकुल पसंद नहीं। मुझसे बात करनी है तो ढंग से किया कर वरना रहने दे," अदिति गुस्से में छिटक के किट्टू से दूर होते हुए बोली। 
"ओके ओके, कूल डाउन बेबी। ला, दे डायरी मुझे," कहती हुई किट्टू खुद ही डायरी लेकर बैड पर पसर गई। कुछ देर तो अदिति पास पड़ी कुर्सी पर बैठी रही फिर सरकते-सरकते खुद भी उसी के साथ आकर लेट गई। किट्टू कविता को अवांछित, अतिरिक्त स्वराघात लगा-लगा कर पढ़ने लगी-
                                    एक टुकड़ा दुपहरी झुलसा गई 
                                    तेज़ गर्म अंधड़ों ने कँपाया 
                                    तीखी चुभन ने किया बेबस 
                                    मेरे हिये के बिरवे को। 
किट्टू पढ़ते-पढ़ते हँसने लगी और हँसते-हँसते दोहरी होने लगी। फिर जैसे अदिति की आँखों को भाँप कर खुद ही संयत हो गई।
                                   सज गए सन्नाटों के मेले 
                                   सधने लगी एकांतों की रागिनियाँ 
                                   थिरकने लगे पैर, बिखरने लगे मोती। 
                                   आह! ये ताप कितना मादक…!
                                   कितना सरस, कितना अद्भुत…!
                                    एक अबूझ स्वीकृति में फैलादी बाँहें 
                                    मेरे हिये के बिरवे ने। 
                                    पूर्ण स्वीकृति के चरम बिंदु में 
                                    घटित हुआ चमत्कार 
                                    जलाता है जो, वही नया गढ़ने लगा 
                                    ताप भीतर पैंठने लगा 
                                    सृजन के अलिखित हस्ताक्षर उभर आए
                                     मेरे हिये के बिरवे पे। 
                                    अंतर का समूचा नेह-रस उमड़ आया बाहर 
                                    अलौकिक सुगंध बाहर को फूटी 
                                    सुप्त स्वर जाग उठे, करने लगे मंगल-ध्वनि 
                                     प्रेम कली खिल उठी 
                                     मेरे हिये के बिरवे पे।                       

कविता ख़त्म कर किट्टू अदिति की आँखों में झाँकने लगी। "बहुत अच्छी लिखी है यार। पूरी तो समझ में नहीं आई, पर है बहुत ज़ोरदार," कहते हुए किट्टू ने अदिति के चेहरे पर आ रहे बालों को सहलाते हुए पीछे किया। अदिति शून्य में जैसे कुछ तलाशते हुए, एक-एक शब्द जोड़ते हुए बोली, "किट्टू, पता है, हर किसी का खुद से बात करने का एक तरीका होता है, और मैंने इसके लिए कविता को चुना है।"
"तुझे देखती हूँ ना अदि, तो मुझे ये लगता है कि शायद कई बार ऐसा भी होता हो कि कविता खुद चुनती हो किसी को अपने लिए।" किट्टू की ये बात सुनकर अदिति जैसे फिर से अपने में लौट आई। हर बात को मज़ाक में उड़ा कर, ठठा कर हँसने वाली ये मस्तमौला लड़की भी कैसी गंभीर बात कह गई, अदिति सोचने लगी। और उस दिन तो अदिति गुस्से में फट पड़ी, "क्या ज़रूरत थी तुझे अपने मन से ये सब करने की? मैं नहीं जाने वाली कहीं भी। कम से कम मुझसे पूछा तो होता।" किट्टू ने अपने किसी परिचित को अदिति की कविताओं के बारे में बताया और अब उन्होंने अदिति को एक काव्यगोष्ठी में काव्यपाठ के लिए आमंत्रित कर लिया। दोनों में खूब लम्बी बहस, आड़ी-टेढ़ी तकरार हुई, पर अंत में किट्टू अदिति को साथ ले जाने में सफल हुई। पूरे रास्ते वो वादे करती रही कि अब अपने मन से ऐसा कुछ भी नहीं करेगी। गोष्ठी में भी किट्टू अदिति को पूरे समय बराबर संभाले रही। अपनी बारी आने पर अदिति ने कुछ कविताएँ पढ़ीं और साथ में सोच भी रही थी कि सबने इतनी अच्छी-अच्छी कविताएँ पढ़ीं, क्या पता क्या सोच रहे होंगे सब उसके बारे में। कविता रचने का अपना सुख होता है, कुछ-कुछ वैसा ही जैसा एक माँ निपट एकांत में अपनी संतान को चूमती है, प्यार करती है, उसे देख-देख कर खुश होती है; फिर चाहे दुनिया के लिए वो संतान कितनी भी भद्दी या बदसूरत क्यों ना हो। किन्तु उसी कविता को सबके सामने रखना, हरेक की तर्क-कसौटियों से गुज़रना और एक अजीब तरह की जवाबदेही-सी महसूस करना बड़ा ही यंत्रणादायक होता है। गोष्ठी ख़त्म हुई। "अब चल ना यहाँ से," कितनी ही बार कह चुकी थी अदिति, पर किट्टू चाय के साथ क्रैकजैक बिस्किटों पर टूटी पड़ी थी। तभी एक आकर्षक व्यक्तित्व वाली महिला ने अदिति का हाथ पकड़ उसे बहुत प्यार से कविता के लिए बधाई दी। चमकते नीले रंग की साड़ी को बहुत करीने से पहने हुए, गर्दन तक कटे हुए बालों को सहलाते हुए, अपने बाएँ हाथ की मध्यमा में पहनी अंगूठी के हीरक की आभा से अपने सौंदर्य-श्री की वृद्धि करती हुई ये महिला शहर की लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार और एक साहित्यिक पत्रिका की सम्पादक थीं कामिनी जी। अदिति का हाथ थामे हुए वे उसे खिड़की के पास ले आईं और उसके बारे में पूछने लगीं। अदिति ने अपनी पढाई, अपने परिवार और अपनी कविता के बारे में बताया। वैसे ज़्यादा समय वो 'जी मैम, हाँ मैम' ही करती रही।
"मेरा नाम कामिनी है, आज से हमारी दोस्ती पक्की," कहते हुए कामिनी जी हँसी। अदिति की उनसे ये छोटी-सी जान-पहचान धीरे-धीरे एक मज़बूत और गहरी दोस्ती में बदलती चली गई। शहर में जब-तब होने वाले कवि सम्मेलनों, साहित्यिक चर्चाओं और कार्यक्रमों में कामिनी जी अदिति को ज़रूर शामिल कर लेतीं। बाद में यही कामिनी जी उसके पी.एच.डी. करने, कॉलेज में लेक्चरर की नौकरी करने और निरंतर उसके साहित्य अध्ययन-सृजन करने में उसकी एकमात्र सहायक, पथ-प्रदर्शक, लोकल गार्जियन और स्नेही मित्र की भूमिका निभाती रहीं। कॉलेज के दिन भी कब ना जाने पंख लगा कर उड़ गए। परीक्षाएँ ख़त्म होने के बाद जब घर जाने के लिए वो अपना सामान पैक कर रही थी तो किट्टू चुपचाप उसके साथ लगी हुई थी। फिर अचानक फफक कर अदिति से गले लगकर रोने लगी तो अदिति को भी रोना-सा आया। पर रोने से ज़्यादा उसे आश्चर्य इस बात का हो रहा था कि ये लड़की भी किसी के लिए इतनी गंभीर हो सकती थी क्या! ............. एक तेज़ ब्रेक के साथ  कार थोड़ी दूर तक घिसटती चली गई और झटके से रुक गई। जैसलमेर से पैसठ किलोमीटर की दूरी तय करके कब रामगढ़ आ गया कुछ पता ही नहीं चला। अदिति ने कार का दरवाज़ा खोला। सामने ही मूमल गैस्ट हाउस था। ये उसकी छुट्टियाँ बिताने की प्रिय जगह थी। एक छोटा-सा क़स्बा जो सूरज के निकलने के बहुत देर बाद खुलता और सूरज के डूबने से पहले ही जैसे अपने आप में सिमट कर बंद हो जाता। मूमल गैस्ट हाउस के ठीक पीछे रेत के धोरे फैले हुए थे। सड़क पर से गैस्ट हाउस ऐसा दीखता था जैसे किसी महाकाय रेतीले राक्षस के जबड़ों में फँसा हुआ हो और जैसे किसी भी पल वो उसे उदरस्थ कर लेगा। 
"चाय बणवाऊँ या खाणा ही लगवाऊँ हुकम....?" सरूप सिंह ने कुर्सी से उठते हुए पूछा। सरूप सिंह गैस्ट हाउस का मैनेजर, हाउस कीपिंग, नौकर, चौकीदार और सब कुछ था। "नहीं, मेरा खाना खाने  का मन नहीं है, ड्राइवर को खिला देना। मेरे लिए थोड़ी देर में अच्छी-सी कॉफी बनवा देना।" अदिति अपने कमरे की चाबी लेकर चलने लगी। नहा के निकली तो जैसे थोड़ी-सी साँस आई। सरूप सिंह कॉफी ले आया। एक बार फिर उसने पूछा, "हुकम, कहो तो खाणा लगवादूँ?" इन्कार में गर्दन हिलाते हुए कप को हाथ में लेते हुए अदिति पास रखे मोढ़े पर आराम से बैठ गई। इतनी लम्बी यात्रा के बाद इस कॉफी ने बड़ा सुकून दिया। कमरे की दीवार पर रेगिस्तान के प्रेमी-युगल महेन्द्र-मूमल की पेंटिंग लगी हुई थी। चित्र में मूमल राजस्थानी परिधान में सजी हुई अपने प्रेमी राजकुमार महेन्द्र के पास रेत के धोरों पर बैठी हुई थी। थोड़ा ही पास में महेन्द्र का प्रिय ऊँट खड़ा दिखाई दे रहा था। चित्र के रंग लगभग उड़ चुके थे। प्रीत बावरी ……! क्या इस जगत में प्रीत सदा ही अधूरी ही रहती है? इसके किरदार तो पूर्णतया लौकिक हैं, किन्तु अपेक्षाएँ, अभीप्साएँ पारलौकिक-सी हैं। "तुम सदा मेरे साथ रहना, तुम केवल मेरे हो, ये आत्माओं का मिलन है.………," जैसी ही अनेकों पुकारें प्रेमियों की ह्रदय-धरा पर उठती रहती हैं। जागतिक स्तर पर तो ये आकांक्षाएँ अधूरी ही रह जाती हैं, तो क्या प्रीत इस लोक में किसी पारलौकिक शक्ति की खोज है?
कप को टेबल पर सरका कर अदिति कमरे से बाहर निकली। गैस्ट हाउस के पिछले गेट से निकल कर रेत के धोरे पर धीरे-धीरे टहलने लगी। जब चप्पलें रेत में धँसने लगी तो उसने उन्हें खोल कर हाथ में ले लिया। मरुभूमि की इस रेत की खूबी है कि ये बहुत जल्दी गर्म होती है और जल्दी ही ठंडी भी हो जाती है। चाँदनी चारों ओर फैली हुई थी। कभी-कभी कोई हवा का हल्का-सा आवारा झौंका उसे छूता हुआ निकल जाता। अदिति वहीँ बैठ गई। एक हाथ की मुट्ठी में रेत को भरती और धीरे-धीरे मुट्ठी ढीली कर देती। रेत फिसलती जाती और मुट्ठी खाली हो जाती। फिर से मुट्ठी को भरती और थोड़ी देर में उसे खाली पाती। भरी हुई मुट्ठी का अपना सुख है और कुछ समय बाद उसके खाली होने के एहसास का  अपना ही दुःख है। अदिति सोचने लगी कि ऐसा उसी की ज़िन्दगी में हुआ या सभी के साथ ऐसा ही होता होगा। फिर अचानक उसने सोचा सब उसकी तरह सुनसान रात में ऐसे अकेले रेत के धोरे पर आकर भी तो नहीं बैठते। इस बेतुके साम्य पर उसे हँसी आई। उसकी नज़र ऊपर को गई तो उसे ऐसा लगा जैसे चाँद उसी को घूर रहा है। कालिदास से लेकर आज तक के सभी कवियों के मन को उद्वेलित करता रहा है ये चाँद। कितना पढ़ा, कितना लिखा.………… लगता है जैसे पूरे दौर का साक्षी था ये चाँद। पर दिल्ली में शायद ये वाला चाँद नहीं आता होगा। ये चाँद जैसे यहाँ के फैले हुए मरुस्थल को अपनी चाँदनी से शीतल करता था वैसे ही अदिति के भीतर फैले हुए मरुस्थल को भी। वो अपने भीतर के मरुस्थल में उतर गई। दूर-दूर तक सुनसान….... रेत ही रेत.……… प्यास ही प्यास! अदिति के मन के भीतर ये विशाल मरुस्थल कब व्याप गया उसे पता ही नहीं चला। माँ को अस्पताल ले जाने से लेकर, घर के छोटे-बड़े, अंदर-बाहर के सभी काम करने, इकलौते छोटे भाई महेश की नौकरी के फॉर्म भरने, नौकरी लग जाने पर उसकी रहने-खाने-पीने की व्यवस्था करने, उसकी शादी करवाके उसकी गृहस्थी जमाने तक के सारे काम अदिति पूरी जिम्मेदारी से करती चली गई थी। छोटा भाई पहले-पहले तो लाचारी से बड़ी बहन की ओर ताकता था, बाद-बाद में उसने इसी को आदत बना लिया क्योंकि ये ज़्यादा सुविधाजनक था। पापा तो कब के चले गए थे, माँ की बीमारी ने उसे घर के मुखिया की तरह काम करना सिखा दिया। धीरे-धीरे माँ खुद ही ये चाहने लगी कि वो हमेशा इसी तरह उसके साथ रहे, शायद वो जानती थी कि बेटा उनकी सेवा नहीं करेगा। शुरू-शुरू में अदिति के लिए बहुत से रिश्ते आए थे पर माँ ही कोई ना कोई कमी निकल कर उन्हें ठुकराती रही। 
"…… प्राइवेट नौकरी वाला है, इसमें तो खतरा ही रहता है, ..... अब सरकारी है तो क्या हुआ, घर में पाँच-पाँच लोग हैं, दो तो बहनें ही कुँवारी बैठी हैं, ……… इतनी दूर!! इतनी दूर रिश्ता करना ठीक नहीं है, पता नहीं कैसे लोग हैं, ………… इसकी उम्र ज़्यादा है, .......... इसकी उम्र कम है," ……… हर बार ऐसी ही कोई प्रतिक्रिया। जब भी कहीं से कोई प्रस्ताव आता तो तीन-चार दिनों तक घर में एक अजीब-सा तनाव छा जाता। माँ बात-बात में चिढ़ने लगती, "रहने दे, मैं तो नहीं लेती अब ये गोलियाँ, परेशान हो गई हूँ मैं तो, खाली तुझ पर बोझ बनी हुई हूँ। ऐसे में अदिति चुपचाप हाथ में गोलियाँ और पानी का गिलास लेकर माँ के सामने खड़ी हो जाती। जब-जब भी उसने महेश को माँ को सँभालने की बात कही तो "दीदी ये, दीदी वो" करता हुआ घंटे भर बात करके अपनी गृहस्थी, नौकरी और दूसरी परेशानियों का रोना रोकर अंत में कहता, "अब तू कहे जैसे करूँ।" उसके ट्रांसफर ने तो जैसे उसकी रही-सही जिम्मेदारी, जो कि मजबूरी में उसे कभी-कभी निभानी पड़ जाती थी, से भी उसे मुक्त कर दिया। इस सबके चलते धीरे-धीरे उसके भीतर का दरिया सूखते-सूखते मरुस्थल में बदल गया। अब उसके मन में हिलोरें नहीं उठती थीं, चलते थे तेज़ अंधड़, बिखरती थी रेत। ऐसे में उसे किट्टू की नितान्त भोलेपन में कही गई बात अक्सर याद आ जाती थी कि शायद कई बार ऐसा भी होता हो कि कविता खुद चुनती हो किसी को अपने लिए। साहित्य पढ़ना और रचना उसके जीवन की ऊष्मा थी। ये उसे बचाता था- मन में फैली निराशा से, मन में व्याप्त मरुस्थल के ताप से, जीवन में मजबूरीवश चुने गए निपट एकाकीपन के एहसास से। भीड़ में अकेले गुज़रने वाले दिनों में एक दिन वो भी आया जब माँ की बीमारी ने उसकी साँसों पर अंतिम जीत दर्ज़ कर उसे उठा लिया। जाने क्या हुआ पर अदिति रो नहीं पाई। सारे क्रिया-कर्म, आते हुए-जाते हुए रिश्तेदारों की व्यवस्था और बार-बार रो पड़ने वाले छोटे भाई को सँभालने में उसे बिलकुल अवकाश नहीं मिला कि वो ये सोचे भी कि उसने क्या खोया। जिस दिन महेश भी चला गया उस दिन अकेले घर में उसे माँ की बहुत याद आई। माँ की सुबह भूखे पेट लेने वाली दवाईयाँ फ्रीज़ के ऊपर ज्यों की त्यों रखी थी। उसका ताम्बे का लोटा, मुलायम वाला तकिया, त्रिफला पाउडर की शीशी, दोपहर और रात वाली दवाईयाँ देख कर अचानक अदिति को लगा कि माँ की स्मृति उसके जीवन में सुबह से रात तक चलने वाले इलाज की एक समय-सारिणी मात्र है। शाम को कामिनी जी आईं। उनके बहुत कहने के बाद भी कि वो कुछ दिन उन्हीं के साथ रहे, वो अपने घर पर ही रही, एकदम अकेली। वैसे भी ये अकेलापन उसके लिए कोई नया नहीं था। कुछ दिनों बाद जब उसने नौकरी पर जाना शुरू कर दिया तो एक दिन कामिनी जी ने उसे अपने साथ साहित्य अकादमी द्वारा जैसलमेर में आयोजित राज्य-स्तरीय कवि सम्मलेन में भाग लेने के लिए चलने को कहा। वैसे दो-तीन बार अकादमी से उसके पास फ़ोन आ चुका था पर वो असमर्थता जता चुकी थी। लेकिन कामिनी जी के स्वर में कुछ प्यार और कुछ आदेश का ऐसा मिश्रण था कि वो मना नहीं कर पाई। और तब पहली बार वो कामिनी जी के साथ ही रामगढ़ के इस मूमल गैस्ट हाउस में ठहरी थी। यहाँ मीलों दूर तक पसरे हुए इस रेगिस्तान के भूगोल ने जैसे उसके मन के भूगोल को पहचान उसे सहज स्वीकृति दी और उसे बहुत शांति मिली। दिन भर तपती और रात में शीतल होती इस मरुभूमि में न जाने कौनसा आकर्षण था कि आज चार साल बीत गए उस बात को पर तब से हर छुट्टी में वो यहीं आ जाती थी। कामिनी जी ने एक बार हँसते हुए कहा था कि ऐसा लगता है जैसे वो रेगिस्तान तेरा पीहर हो और दिल्ली तेरा ससुराल। कभी-कभी  सोचती थी कि ऐसे ही रेत के इस धोरे पर बैठे-बैठे उसे नींद आ जाए और चारों और से रेत सरक कर उसे पूरा का पूरा ढक ले और उसकी साँसों को अपनी साँसों में मिला ले। चाँद बहुत आगे जाकर उस पर अपनी वक्र दृष्टि डाल रहा था। दूर गैस्ट हाउस के पिछले गेट पर उसे सरूप सिंह खड़ा दिखाई दिया। ये इस बात का संकेत था कि रात काफी बीत चुकी है। 
अदिति धीरे-धीरे उठी और नीचे को उतरने लगी। रेत जैसे पैरों को जकड़ कर रो रही हो उसके जाने पर। जितनी खुश वो यहाँ आने पर होती थी उतनी ही उदासी यहाँ से लौटने पर उसे घेरने लगती थी। पीठ पीछे चाँद था और वो बोझिल क़दमों से रेत के धोरे से उतर रही थी। बालुई रेत पर बिखरी चाँदनी में उसके क़द से कहीं लम्बा उसका साया उसके आगे-आगे चल रहा था। हर बार की तरह ये साया तो चला जाएगा, वो तो शायद यहीं रह जाएगी। 
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12 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन अपनी यात्रा में मरुस्थल से गुज़रते गुज़रते ख़ुद मरुभूमि में तब्दील होता रहता है.और आगे सिर्फ मरुस्थल ही बढ़ता है.वही पसरता रहता है.
    मन के मरुस्थल में ये जीवन वृत्त पढ़कर आपकी कलम का कायल हुआ जा रहा हूँ.कहन में कई बिम्ब बड़े चाक्षुष बन पड़े हैं.बिलकुल सामने दिखते.पढ़कर खालीपन भरने लगता है...

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  2. संजय, बहुत आभारी हूँ आपका। साहित्यिक रचना को पढ़कर आनंद लेना फिर भी सरल है, किन्तु उसके विश्लेषण से गुजरते हुए उसके तानेबाने को समझकर टिप्पणी करना दुष्कर कार्य है। आपकी प्रतिक्रिया मेरे लेखन को परिष्कृत करने में बहुत सहायक होगी।
    आभार।

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  3. कविता खुद चुनती हो किसी को अपने लिए
    इस सबके चलते धीरे-धीरे उसके भीतर का दरिया सूखते-सूखते मरुस्थल में बदल गया।
    bade maarmik ban pade
    saargarbhit kahani hai
    complete padhne ke baad
    ispar samiksha karne ko dil zaroor chahega

    ye bhi kya psychological truth hai:
    एक माँ निपट एकांत में अपनी संतान को चूमती है, प्यार करती है, उसे देख-देख कर खुश होती है; फिर चाहे दुनिया के लिए वो संतान कितनी भी भद्दी या बदसूरत क्यों ना हो। किन्तु उसी कविता को सबके सामने रखना, हरेक की तर्क-कसौटियों से गुज़रना और एक अजीब तरह की जवाबदेही-सी महसूस करना बड़ा ही यंत्रणादायक होता है।
    Keep it up kamalesh ji

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  4. शुक्रिया ज़ई सर। हमारे दैनंदिन किए जाने वाले कार्य हमारे मनोविज्ञान से ही प्रचालित व नियंत्रित होते हैं। उसी को पकड़ने का प्रयास है कहानी लेखन।
    हौसलाफजाइ के लिए शुक्रिया।

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  5. Sir kahani bahut achi lagi padhne ke bad aaditi nam k patra k sath dil se judav mehsus ho rha hai. Kahni ki kuch panktiyan to dil ko chu gayi jaise kavita khud chunti ho kisi ko apne liye .
    Kahaani padhne ke bad ek gana yad aa rha hai
    Ye housla kaise jhuke...
    Ye aarzoo kaise ruke....
    Manzil mushkil to kya
    Dhundhla saahil to kya
    Tanha ye dil to kya..........
    Ek bar fr se kehna chahungi dil ki gehrayi tk chu gayi ye kahani.

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  6. कमलेश तुम्हारा प्राकृति चित्रण सदा से मन को छुता है मा नो अदिति नहीं हम खुद विचरण कर रहे है उस मरुभूमि में और भावनाओँ का हृदय स्पर्शी अभिव्यक्तिकर्ण सदा उच्च कोटि का ही रहा है

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    1. मरुस्थल तो कब पसर जाता है मन में पता ही नहीं चलता। मन के कदमों की टोह लेते हुए कहानी के चरित्रों से बात करने की कोशिश है।
      आभार आशा।

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  7. Dil ko Choo lene wali Kahani...its like this story has itself chosen u to be expressed in most bful way...I felt very poetic after reading this story n wrote few lines...
    कोहसारों सा बोझ मेरे अन्तर्मन में
    उलझनों की करवटें मेरे दामन में
    माथे की सलवटें लहरें तूफान की
    मरूस्थल बन बिखरी दरिया के आंगन में....

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  8. वाह वाह!

    "जलाता है जो, वही नया गढ़ने लगा
    ताप भीतर पैंठने लगा
    सृजन के अलिखित हस्ताक्षर उभर आए
    मेरे हिये के बिरवे पे। "

    दिल को छू गई

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    1. कवि हो ना, इसीलिए कहानी में भी कविता ही पसन्द आई। आभार राजेंद्र भाई।

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