गुरुवार, 13 अगस्त 2015

बहादुर बंटी

जंगल के उस पार एक नदी बहती थी। नदी में रहती थी बहुत सारी मछलियाँ। नीले, लाल, सुनहरे पंखों वाली कई मछलियाँ। नदी के तल में हरी चट्टानों के बीच मछलियों का महल था। दिन भर वे सब नदी में खेलती फिरती और रात को अपने महल में आ जातीं। 

सब मछलियाँ बहुत खुश थीं, पर सोनू मछली कई दिनों से उदास थी। उसका छोटा बेटा बंटी आजकल अजीब-अजीब बातें कर रहा था। अभी परसों की ही बात है, उसके सारे भाई तो सो रहे थे, रात भी काफी हो चुकी थी, पर वो जग रहा था। सोनू ने प्यार से पूछा, "क्या बात है बेटा!, नींद क्यों नहीं आ रही!" "माँ, मेरा यहाँ मन नहीं लगता, मैं यहाँ बोर हो गया हूँ," बंटी बोला। सोनू हँस पड़ी। "दिन भर तो अपने दोस्तों के साथ खेलता रहता है और ऊपर से कहता है कि यहाँ मन नहीं लगता।" बंटी कुछ बड़बड़ाया फिर करवट बदल कर सो गया। दूसरे दिन भी बंटी कुछ अनमना-सा लगा, खेलने भी नहीं गया। शाम को सोनू ने बंटी से जब पूछा तो वो बोला, "माँ, मैं समुद्र देखना चाहता हूँ। मैंने सुना है कि समुद्र बहुत बड़ा होता है। वहाँ तरह-तरह की मछलियाँ होंगी, मैं नए-नए दोस्त बनाऊँगा, नयी-नयी जगहें  देखूंगा। माँ, तुम मुझे भेजोगी ना।" सोनू घबरा कर बोली, "नहीं-नहीं बेटा, समुद्र बहुत दूर है। वहाँ बहुत खतरे हैं और तू तो अभी बहुत छोटा है, मैं तुझे नहीं जाने दूँगी।" उस समय तो बंटी कुछ नहीं बोला, पर शाम को उसने खाना नहीं खाया, किसी से बोला भी नहीं और सो गया। सुबह जल्दी ही वो कहीं बाहर निकल गया। जब दोपहर तक वो घर नहीं लौटा तो सोनू को चिंता हो गई। वो बंटी को ढूँढने लगी। आज तो वो अपने दोस्तों के साथ भी नहीं था। दूर हरी बेलों के झुरमुट के नीचे बंटी अकेला बैठा था। सोनू ने उसे आवाज़ दी, "बंटी, तू यहाँ है और मैं तुझे कहाँ-कहाँ खोज आई हूँ।" बंटी कुछ नहीं बोला, बस उठा और घर को चल दिया। सोनू अपने बेटे की इस अनोखी ज़िद से परेशान थी। डरती भी थी कि सच में अगर वो कहीं चला गया तो जाने क्या होगा। रात को वो प्यार से बंटी को सुलाने लगी। उसके नाजुक-नाजुक पंखों को सहलाने लगी। बंटी बोला, "माँ, मैंने तय कर लिया है कि मैं समुद्र देखने जाऊंगा। तू डरना मत, मैं सही सलामत घर लौट कर आ जाऊंगा। तू बिलकुल भी मत डरना।" सोनू ने गहरी साँस लेकर कहा, "ठीक हे बेटा, जब तूने तय कर ही लिया है तो चले जाना।" बंटी खुशी से उछल पड़ा। समुद्र यात्रा के रंगीन सपने देखते हुए कब उसे नींद आ गई, उसे पता ही नहीं चला। दूसरे दिन सुबह ही बंटी अपने भाईयों, दोस्तों और माँ से विदा लेकर समुद्र यात्रा पर निकल पड़ा। बंटी बहुत उत्साह में था। नदी की धार के साथ तैरता हुआ वो काफी आगे निकल आया। रास्ते में तरह-तरह की मछलियाँ उसे मिलीं। कोई उसे अंजान समझ कर ठगी-सी देखती रहती और कोई छोटा, प्यारा बच्चा समझ कर मुसकरा देती। उसने भी उन्हें देख कर अपने पंख हिलाए। कुछ आगे चलकर बंटी को रुकना पड़ा। यहाँ से दो रास्ते अलग-अलग हो रहे थे। दाईं ओर वाले रास्ते का पानी कुछ हरे-हरे रंग का था और बाईं ओर वाला रास्ता कुछ नीला-नीला-सा था। बंटी कुछ समझ नहीं पाया कि अब उसे क्या करना चाहिए। वो बस अंदाज़ से दाएँ रास्ते की ओर चल पड़ा। ये पानी उसे कुछ अलग-सा नज़र आया। हरा पानी आगे चलकर बदबूदार हो गया। उसे उबकाई-सी आने लगी। बदबू से बचने के लिए उसने किनारा पकड़ लिया। कभी-कभी वो पानी के ऊपर आ जाता। बाहर का नज़ारा ऐसा था, जैसा उसने पहले कभी नहीं देखा। अपनी नदी में जब-जब वो नदी के ऊपर आता तो वही पेड़ और वही जंगल दिखाई देता था। कभी कभार इक्का-दुक्का आदमी भी दिखाई देता, पर माँ ने समझा रखा था, "आदमी से दूर रहना, ये पकड़ के ले जाते हैं;" इसलिए आदमियों को देखते ही वो गहरे पानी में गोता लगा जाता। नदी के बाहर बड़े-बड़े मकान बने हुए थे। पास में ही छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे थे। बच्चों को देख कर बंटी रुक गया। वो उनका खेल देखने लगा। बच्चे इधर-उधर भाग रहे थे। कभी एक-दूसरे को पकड़ते, कभी ज़ोर से हँस पड़ते और फिर से भागने लगते। बंटी भी एक बार उनके साथ-साथ हँसा। शायद एक-दो बच्चों ने नदी की तरफ देखा भी, पर फिर से वे खेलने में मस्त हो गए। तभी बंटी को लगा, उसे बहुत देर हो गई है, आगे चलना चाहिए। उसने गहरे पानी में डुबकी लगाई और आगे बढ़ गया। रास्ते में उसे एक बूढ़ी मछली मिली। बंटी उसके पास गया और बोला, " अम्मा, यहाँ से समुद्र कितनी दूर है?" बूढ़ी मछली ने पलकें झपकाई फिर बोली, " अरे! तुम कौन हो! तुम्हें तो पहले यहाँ नहीं देखा...!"
 "मैं बंटी हूँ, बहुत दूर से आया हूँ और समुद्र देखने जा रहा हूँ।"
"समुद्र यहाँ से बहुत दूर है, संभल के जाना बेटा।" 
"तुम भी मेरी माँ की तरह हो," बंटी बुदबुदाया और आगे बढ़ गया। उसने देखा उसी की उम्र की तीन-चार मछलियाँ पानी में खेल रही थी। एक मछली मोटी-मोटी-सी थी। वो थोड़ा-सा भागने पर थक जाती। एक मछली नीली आँखों वाली थी। बंटी रुक गया। वे सब उसके पास आ गए। "तुम कौन हो भाई", मोटी मछली ने पूछा। 
"मैं बंटी हूँ, और तुम्हारा नाम क्या है?" 
सभी ने अपने-अपने नाम बताए। बंटी को नए दोस्त मिल गए। बंटी को उन्होने अपने खेल में मिला लिया। वो बहुत खुश हुआ। बहुत देर तक खेलने के बाद वे अपने घरों को लौटने लगे। उन्होने बंटी से भी घर चलने को कहा। "नहीं दोस्तो, अभी मुझे बहुत दूर जाना है, चलता हूँ," बंटी बोला। फिर उसने मुड़ कर कहा, "लौटते वक़्त ज़रूर मिलूँगा दोस्तो।" बंटी दुगुने उत्साह से आगे बढ़ रहा था। पानी में किसी रंगीन पत्थर को उठाता और उछाल देता। उसे यात्रा में बड़ा आनंद आ रहा था।
 "अरे वाह! इतना सारा खाना!" बंटी को भूख लगी हुई थी, वो खाने पर टूट पड़ा। खाते-खाते अचानक उसके गले में बहुत तेज़ दर्द हुआ, जैसे कोई तीखी चीज़ गड़ गई हो। वो बेचैन हो उठा। उसने उस तीखी चीज़ को निकालने की बहुत कोशिश की, पर वो कुछ ना कर पाया। अब तो उसका दर्द बढ्ने लगा। वो ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। उसने माँ को पुकारा पर माँ तो बहुत दूर थी। वो बुरी तरह छटपटा रहा था। एक तेज़ झटके से किसी ने उसे उछल कर कहीं फैंक दिया। बंटी को साँस भी नहीं आ रही थी, वो बेहोश हो गया। वो कितनी देर बेहोश रहा उसे ध्यान भी नहीं। अजीब-अजीब-सी आवाज़ें, धुंधले-धुंधले साए उसके आसपास से गुज़र रहे थे। जब उसे होश आया, उसने अपने आपको एक चमकदार कटघरे में पाया। वहाँ उसके जैसी कई सुनहरी मछलियाँ थीं। वहाँ का पानी एकदम साफ और खुशबूदार था। उसमें खाना भी था। बंटी को थोड़ी तसल्ली हुई। उसका सर भारी हो रहा था। कुछ खाना खाकर उसने आगे बढ़ने के लिए छलांग लगाई। उसका बदन मानो किसी अदृश्य चट्टान से जा टकराया। उसने उलट-पलट कर देखा तो उसे चारों ओर दीवार नज़र आई। "ये मैं कहाँ आ गया," बंटी ने घबराते हुए सोचा। बंटी सुबक-सुबक कर रोने लगा। तभी चारों ओर तेज़ रोशनी हुई। सब मछलियाँ डर के मारे चुप हो गईं।    
बंटी ने देखा एक बच्चा उनकी ओर आया। उसने कटघरे को ऊपर से खोला और खाने की चीज़ें डालने लगा। बच्चा मुसकरा रहा था। वो उनसे कुछ कह रहा था। कुछ देर बाद वहाँ बहुत सारे लोग आए। बंटी कटघरे में एकदम नीचे चला गया। उसे माँ की बहुत याद आई। वे लोग कभी ज़ोर से हँसते और जाने क्या-क्या बोल रहे थे। बंटी को लगा वो अब कभी घर नहीं लौट पाएगा। माँ और अपने भाइयों को कभी नहीं देख पाएगा। वो रोते-रोते बेहाल हो गया। ऐसे ही कई दिन बीत गए। वो सिर्फ रोता रहता था। कई दिनों तक उसने कुछ नहीं खाया। वो बहुत कमजोर हो गया था। एकदम सुस्त, कटघरे के एक कोने में पड़ा रहता।  

और फिर एक दिन वही बच्चा एक आदमी के साथ वहाँ आया। वे लोग उसकी ओर इशारा करके कुछ बातें कर रहे थे। बड़ा आदमी ज़ोर-ज़ोर से कुछ बोल रहा था। बच्चा पैर पटक-पटक के रो रहा था। बंटी के कुछ समझ में नहीं आया। अचानक उस आदमी ने कटघरे को ऊपर से खोला, पानी में हाथ डालकर बंटी को पकड़ा और खिड़की से बाहर उछल दिया। बंटी फड़फड़ाते हुए नीचे बह रहे एक गंदे नाले में जा गिरा। वहाँ पानी कम और कीचड़ ज़्यादा था। पूरा नाला गंदगी से भरा हुआ था। उसे अपनी नदी का साफ-सुथरा पानी याद आया। पर उसे खुशी भी हुई कि कम से कम अब वो उस कटघरे से तो बाहर आ गया। उसने अपने पंख फड़फड़ाए और तेज़ी से तैरने लगा। कई दिन और कई रात वो इसी तरह आगे बढ़ता रहा। उस पल तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब उसने सामने बहती हुई नदी देखी। नाले का पानी नदी में गिर रहा था। वो भी छप्प से नदी में गिर गया। बंटी ज़ोर से चिल्लाया, "मिल गई, मिल गई, मुझे मेरी नदी मिल गई।" 
उसने आँखेँ मसलते हुए देखा, उसकी माँ और सारे भाई चारों ओर खड़े थे। सोनू ने बंटी के सर को सहलाते हुए पूछा, "क्या हुआ बेटा, चिल्ला क्यों रहे हो! कोई बुरा सपना देखा क्या?" बंटी तो कुछ बोल ही नहीं पाया। वो तो अपने घर में ही था। "वो हरे पानी वाली नदी, वो मोटी मछली, वो बूढ़ी मछली, वे खेलते हुए बच्चे और वो कटघरा.............," बंटी बुदबुदाया। माँ मुसकराई फिए बोली, "लगता है मेरा बहादुर बंटी सपने में समुद्र की सैर कर रहा था। बंटी शरमा गया और अपनी माँ से लिपट कर सो गया। 
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4 टिप्‍पणियां:

  1. सपने सुकून देते है
    जीने का जूनून देते है
    बस दिल मत लगाना सपनो से "राज"
    टूट गए तो दर्द की दीवारो में चुन देते है

    "राजेंद्र सिंह सोलंकी "
    (आपका विद्यार्थी - नेवरा गांव )

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  3. प्रिय राजू,
    आज वर्षों बाद तुम्हें इस तरह मेरे ब्लॉग पर देख कर सुखद अनुभूति हो रही है। फोन नंबर दे रहा हूँ, फोन करना- 09829493913

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