शनिवार, 22 अगस्त 2015

अबे, तू खवि है क्या!

जैसे ही हम अपनी दैनिक सांध्य-बैठक में पहुँचे तो देखा, तीन-चार यार लोग गुरू के इर्द-गिर बैठ, अखबार पर धरी हुई नमकीन मुंगफली के दानों को मसल कर खा रहे हैं जिससे अखबार पर काफी भूरे-भूरे छिलके बिखर गए हैं। यह बैठक काशी की चाय की थड़ी के पिछले भाग में, जहाँ कुछ टूटे-जंग खाए हुए लोहे के जालीदार स्टूल, एक के ऊपर एक रखे हुए किसी पुराने ट्रक के टायर और दो चौड़े पत्थर रखे हुए हैं, स्थापित है। ये कबसे है, ये जानने के लिए तो पुरातत्व विभाग को ही पहल करनी पड़ेगी। 

बैठक के सर्वमान्य और स्वयंभू अध्यक्ष होते हैं, जानकी गुरू। मोहल्ले का हर जवान होता लड़का जब पहली-पहली बार कजरारी आँखों का शिकार होता, तो घायल पंछी की तरह मार्गदर्शन के लिए अपना धड़कता दिल लेकर जाने किस अज्ञात प्रेरणा से जानकी गुरू की शरण में आ पहुँचता। पुराने शागिर्दों की सिफ़ारिश और आगंतुक के सेवा भाव (चा-पानी, नमकीन) से प्रभावित हो जानकी गुरू उसका पथ प्रशस्त करते। पहले केस-हिस्ट्री जानी जाती- लड़की किस गली की है, कौनसे स्कूल में पढ़ती है, आना-जाना स्कूल बस से है या खुद के वाईकल से..........आदि। प्रेम-पत्र, व्हाट्स एप्प के मैसेज, फेसबुक के स्टेटस आदि कैसे हों, कौनसी भाषा का प्रयोग त्वरित प्रभावी होगा; गुरू सब जानते हैं। कई ठुकराए, जुतियाए हुए आशिक भी आते हैं। तब जानकी गुरू केस-स्टडी के पहले चरण पर ही बोल पड़ते हैं, "अबे साले ढक्कन, सैंट पेट्रिक्स में पढ़ने वाली को लेटर लिखा हिन्दी में, मामला तो फिलौफ होना ही था।"

ढीले-ढाले मैले चीकट कुर्ते-पायजामे और लाल पट्टियों वाली चप्पल पहने मंझौले कद के जानकी गुरू हर क्षेत्र के जानकार हैं। वो चाहे दर्शन-शास्त्र हो, राजनीति, इतिहास, खेल, फिल्म, साहित्य या और कोई भी क्षेत्र; जानकी गुरू पूरे अधिकार से उसमें घुस जाते और किसी के भी समस्त पूर्व ज्ञान को धत्ता बताते हुए नए सिद्धान्त का प्रतिपादन कर जाते और सामने वाले के पास नतमस्तक होने के सिवा कोई चारा नहीं बचता। तब शागिर्दों के मुँह पर चमक देखने लायक होती और उनमें से कोई एक थोड़ा पीछे को झुककर काशी को चाय का इशारा कर देता।

मुझे आता देख यार लोग मुँह दबा कर हँसने लगे और कनखियों से गुरू को मेरी ओर इशारा करने लगे। मैं समझ गया, आज ज़रूर कुछ गड़बड़ है। सकपकाते हुए लोहे का जालीदार स्टूल सरकाया, जिसका एक पैर छोटा होने से किसी के बैठते ही ये भड़ाक से एक ओर को डिगता है और बैठने वाले का अस्तित्व हिलता हुआ जान पड़ता है। गुरू ने एक पूरी नज़र मुझ पर गड़ाई तो मुझे वो पल याद आ गया जब बरसों-बरस पहले नई-नई जवानी के आलम में मैंने साथ पढ़ने वाली बेला को मेले में एक तरफ लेकर आइसक्रीम खिला दी थी, बिना गुरू के संज्ञान में लाए। दरअसल गुरू का मूलतः मानना था कि हम सब साले ढक्कन हैं, किस समय पर, कौनसा काम, कैसे करना चाहिए, इसका हमें ज्ञान नहीं है। खैर, वो जवानी तो पीछे छूट गई पर आज ऐसा क्या हो गया, मैं सोच में पड़ा कयास लगाने लगा।

तभी गुरू ने एक ओर मुँह करके ढेर सारा पीला थूक उछाला। फिर स्थितप्रज्ञ नेत्रों से थूक के बुलबुलों को निहारते रहे, गोया क्षणभंगुर जीवन के अस्तित्व का कोई साम्य तलाश रहे हों। थूक की पीलास ने बता दिया कि चाय के एक-दो दौर के साथ किसी मुद्दे पर चर्चा हो चुकी है और हम थोड़ी देर से पहुँच पाए हैं।

गुरू ने अपनी हथेली के शुक्र पर्वत से अपने होठों पर बचे थूक को पोंछते हुए गर्दन घुमा तपाक से मुझसे पूछा, "अबे साले ढक्कन, तू खवि है क्या?" इस पर सारे शागिर्द खी-खी करके  हँस पड़े। मैंने कहा, "क्यों गुरू, ऐसा क्यों पूछ रहे हो...!" फिर अचानक मेरा ध्यान खत्म हो रही मुंगफलियों के दानों के नीचे बिछे अखबार पर गया जिसमें उस कवि सम्मेलन की तस्वीर मय खबर छपी दिखाई दे रही थी, जिसमें मैं कल ही कविता पाठ करके आया था। अब सारा माजरा समझ में आ गया। मैंने मुंगफली के छिलकों को झटकते हुए खबर को पढ़ा तो कवियों की सूची में अपना नाम भी नज़र आया। मैं शर्म से रक्तिम कपोल और नत-नयनों से कुछ संप्रेषित करने की कोशिश में अस्फुट स्वर में बोला, "वो ........ वो तो गुरू यूँही ........ मित्रों ने कह दिया ........ तो मैंने पढ़ दी।"

गुरू किसी मुर्गी की तरह गर्दन को दबा, दाँतों को कम से कम खोल कर, पतली-सी 'फिक्क' हँसी हँस पड़े, जो वो अक्सर तब हँसा करते थे जब उन्हें किसी पर बहुत तरस आ जाए। "अबे साले ढक्कन, बाप न मारी मेंढकी, बेटा तीरंदाज!"

----------------------------------------------------  (क्रमश:)     

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें