रविवार, 28 जनवरी 2018

रफ नोट्स

28 जनवरी 2018
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भटकन
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मुझे उसके घर जाना अच्छा लगता है। शाम के समय और भी अच्छा। शाम भी वो जो रात से कुछ पल की दूरी पर हो। उसके घर से लौटते वक्त मुझे रोमांच-सा हो आता है। उसके घर से शुरू होती है अंतहीन गलियों की एक भूलभुलैया।
कभी अचानक लगता है कि अब उस मकान के पास गली खत्म हो जाएगी और सामने होगी जानी-पहचानी चौड़ी-सी सड़क, जहाँ से आगे सब रास्ते बँधी-बँधाई लीक पर चलते हैं; पर मेरा यह खयाल उस मकान के पास आते ही धुँआ हो जाता है जब वहाँ से एक दूसरी गली शुरू हो जाती है। तब मैं चहक कर बोल उठता हूँ, " ओहो! तो यह मकान उस गली का आखिरी मकान नहीं था बल्कि इस नई गली का पहला मकान था।"
हर गली का अपना एक मिजाज होता है जो वहाँ से गुजरने पर मेरे अंदर उतरता है। वहाँ के लोगों, घरों के बाहर खेलते बच्चों और मकानों को मैं उतनी ही अजनबियत से देखता हूँ जितना कि कोई बच्चा जन्मते ही अपनी टकोरे-सी गोल गोल आँखों को घुमाते हुए आसपास की दुनिया को देखता है। मैं कयास लगाता हूँ कि बस यह गली आखिरी है, फिर चौड़ी सड़क- जानी पहचानी। शाम रात में तब्दील हो चुकी होती है और इन गलियों की भटकन रोम रोम में नशा बनकर बहने लगती है। और फिर आ ही जाती है वो चौड़ी सड़क... पर मैं सड़क के किनारे खड़ा किसी पियक्कड़ शराबी की तरह सोच रहा होता हूँ, "बस एक पैग और हो जाता"... "एक गली और होती।"

8 दिसंबर 2017
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उस गाँव में कोई डाकिया नहीं जाता
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तब की बात कहते हैं सरकार, जब गाँव-कस्बों-शहरों की बस्तियों में डाकियों की चहल-पहल रहती थी।... और गाँव की तो पूछो मत सरकार...! हर आँगन में कुछ जोड़ी कान गली की आहट पर लगे रहते थे कि काश आज आ जाए डाकिया, लाए समाचार; समाचार- परदेसी पति के, दूर गए बेटे के, सम्बन्धियों के मरण-परण के।
तब एक दिन अचानक ऐसा सूरज उगा सरकार कि इस गाँव में डाकिये ने आना बंद कर दिया। एक दिन, दो दिन, हफ्ता, महीना... आवे ही नहीं! घर में कोई काम हो गया होगा, बीमार पड़ गया होगा मरगिल्ला-सा तो है ही, ट्रांसफोर हो गया होगा... ये सारे कयास गाँव के चौक, पनघट, गलियों और नई बहुओं के घूँघटों की फुसफुसाहट में उठे और आहिस्ता-आहिस्ता खतम हो गए सरकार। बस, वो दिन और आज का दिन... कोई भी डाकिया नहीं आया।

5 दिसम्बर 2017
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ख्वाबों की किताब का मुड़ा हुआ पन्ना
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"सुनो! तुम ख्वाब बहुत देखते हो।"

"अच्छा, क्यों देखते हो?"

"अच्छा, वो कौनसे ख्वाब हैं जो तुम्हें अक्सर याद आते हैं?"

"सुनो, बताओ ना।"

उसकी आँखें होले से मुसकुराई पर शायद इतना भर कह पाईं, "तुम सवाल बहुत करती हो।"

25 नवंबर 2017
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पंछी थे वे
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ढलती रात ने चाँद से कहा, "अब मैं चलूँ।"
चाँद उदास हो गया। तारों ने ठिठक कर नाचना बंद कर दिया।
चाँद पिघल कर धुँआ होने लगा और तारे रात के पीछे भागे...भागते गए...उड़ने लगे...पंछियों में तब्दील हो गए।

23 नवंबर 2017
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तुम...कहानियों पे कहानियाँ बुनते रहे, और मैं... उन पलों की बारिश में भीगता रहा। चले गए तुम, नहीं सुनी तुमने मेरी कहानी; बड़े छलिया हो।
दिल धड़कने का सबब याद आया
वो तेरी याद थी, अब याद आया

हाल-ए-दिल हम भी सुनाते लेकिन
जब वो रुख़सत हुए तब याद आया

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