बुधवार, 11 मार्च 2015

दाता री (की) टांग

                    चिता की धधकती आग के सामने खड़ा वो एक पल को चेतना शून्य हो गया। लपटें भड़-भड़ करके ऊपर को उठ रही थीं। लोगों की भीड़ ओने-कोने मे सरकने लगी थी। कुछ दो-दो, तीन-तीन के लघु समूहों में बंट कर धीमे स्वर में बातचीत करने लगे थे। कितना अद्भुत.......! राजा हो या रंक, अग्नि अपने धर्म का निर्वाह कर दोनों को समान रूप से जला डालती है। कुछ देर बाद वो भी चिता की आग को बिना किसी कारण ताकता हुआ एक पेड़ के नीचे जा खड़ा हुआ। श्मशान......... वैराग्य-भूमि। कुछ पल के लिए ही सही, यहाँ मनुष्य पर वैराग्य हावी होता ही है। चाहे इसे 'मसानिया बैराग' कह कर हम अगले ही पल इससे पल्ला झाड़ अपनी दुनियावी प्रेयसी की घनी ज़ुल्फों की नर्म छाँव में जिंदगी गुज़ारने की तफ़्तीश करते हुए उसे शादाब करने की जुगाड़ में क्यूँ न लग जाएँ। इस बात की तस्दीक़ महाभारत की कथा में युधिष्ठिर ने यक्ष-प्रसंग में की है। यक्ष द्वारा पूछे गए अंतिम प्रश्न, "किम आश्चर्यम?"....... अर्थात संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य कौनसा है,' के उत्तर में युधिष्ठिर ने कहा-"मनुष्य प्रतिदिन जगत में मृत्यु को घटित होते देखता है, किन्तु फिर भी स्वयं की मृत्यु की कल्पना कभी नहीं करता, यही संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है। अजीबोग़रीब मनस्थिति से गुज़र रहा था वो। कभी वैराग्य, जीवन की नश्वरता और क्षण-भंगुरता आदि जैसे भाव-गह्वरों में डूब जाता तो कभी अचानक किसी कुशल तैराक की तरह इनसे बाहर निकल दुनियादारी के किनारों को पकड़ लेता। हो सकता है यहाँ और भी कई लोग ऐसे हों जो ठीक इसी उतार-चढ़ाव से गुज़र रहे हों, या ये भी कि सभी की यही हालत हो; या फिर केवल एक वही हो जो ऐसा सोच रहा हो ........। इस बेमतलब के विचार से उसके होठों के कोनों से एक बेमतलब हँसी फूटने को ही थी कि उसने अपने आपको संभाल लिया। गौर से आसपास देख कर तसल्ली करी कि उसकी इस बेवकूफ़ी को कोई पकड़ नहीं पाया। पर एक बात तो तय थी कि वो जो चिता की अग्नि में धू-धू करके जल रहा था, उसे इस बात से कोई मतलब नहीं था। ना ही उसे मतलब था चारों ओर खड़े-बैठे-कुछ गुमसुम-कुछ बतियाते लोगों से, जो अभी कुछ देर पहले ही उसे कंधों पर लाद लाए थे यहाँ, और उसे चिता पर चढ़ा कर खुद पीछे हट चुके थे। 
                    हमारी स्मृति के एल्बम में टंगी तस्वीरें तरतीबवार नहीं होतीं, ना ही किसी क्रम में प्रकाशित होती हैं। मन का प्रौजेक्टर हमेश 'ऑटो मोड' में रहता है, जो चाहे दिखाता रहता है। उसके मानस-पटल पर भी झप्प से कई तस्वीरें उभर के ग़ायब हो जा रही थीं। ठीक वैसे ही जैसे बच्चे छुपमछुपाई खेलते हुए एक पल को प्रकट होते हैं, खिलखिलाते हुए फिर ग़ायब हो जाते हैं। चिता में जलने वाले का नाम सुमेर सिंह जी था .............ठाकुर साहब सुमेर सिंह जी। कथा की दृष्टि से या एक पल को विचार की दृष्टि से भी उन्हें सुमेर सिंह संज्ञायित नहीं किया जा सकता, ये बात वो अच्छी तरह से जानता था। उनका समूचा व्यक्तित्व एक आदरसूचक संज्ञा की मांग करता था। और वैसे भी उसे याद नहीं पड़ता कि किसी ने कभी उनका नाम भी पुकारा हो। उनके लिए एकमात्र सम्बोधन था- ठाकुर साहब। छोटे-बड़े-बच्चे-बूढ़े सब उन्हे ठाकुर साहब ही कहते थे। करीने से काढ़े हुए काले-सफ़ेद पट्टीदार बाल, झब्बूदार मूँछें जो कि कोनों से ऊपर उठ कर राजपूती दुंदुभिनाद करती सी प्रतीत होती थीं, सफ़ेद बुर्राक कुर्त्ता-पायजामा ओर उस पर काली वास्कट पहने, पैरों में चर्र-मर्र कर धरती को रौंदती राजस्थानी जूतियाँ पहने ठाकुर साहब पूरी कॉलोनी में कहीं भी नमूदार हो जाते थे। और तब एक साथ कई जोड़ी आँखें, कई सारे स्वर उनके सम्मान की जुगत में लग जाते। उस सारे सम्मान और आदर को अपना हक़ ओर देने वालों का कर्त्तव्य मान कर वो उसे पचा जाते ओर फिर अपने ठकुराई अंदाज़ में 'फाइनल वरडिक्ट' फरमा देते। 
                  एक दृश्य ............... वो देख रहा था ............. कॉलोनी में बिजली की लगातार कटौती से परेशान लोग बिजली-विभाग में शिकायत करने जा रहे हैं। इन सबके आगे चल रहे हैं ठाकुर साहब। बिजली-विभाग आ गया है। संबन्धित ए॰इन॰ सामने बैठा है। लोग रोष से भरे हुए हैं पर फिर भी शांत हैं। इसलिए नहीं कि वो डर रहे हैं बल्कि इसलिए कि ठाकुर साहब की बिना अनुमति ऐसा करना कहीं उनकी शान मे गुस्ताखी ना समझा जाए। लोग कमरे में खड़े हो गए हैं पर ठाकुर साहब जाते ही सीधे ए॰ईन॰ के ठीक सामने वाली कुर्सी पर विराजमान हुए हैं। अपने खरखराते गले से कुछ बात की है, एक-दो बार हँसे भी हैं जिससे उनकी मूँछें कुछ और ऊपर को उठ आईं, फिर हाथ मिलाया ओर चल दिए। सबने देखा ए॰ईन॰ कमरे के बाहर तक उन्हें छोडने आया। बिजली-विभाग के बाहर आते ही उन्होने फिर 'फाइनल वरडिक्ट' सुना दिया- "ट्रांसफार्मर खराब है, कल नया लग जाएगा।" और वाक़ई वैसा हुआ भी। कॉलोनी वालों के पास अंदाज़, अनुमान, टोरे-टप्पों के अलावा कोई साधन नहीं था कि वो 'क्या, क्यों, कैसे' को पकड़ पाते। कोई कहता, "ठाकुर साहब का मिलने वाला था," कोई कहता, "उनके गाँव का ही था," तो कोई दूर की कौड़ी लाता, "ठाकुर साहब ने उसे धमकी दी थी।" "जितने मुँह- उतनी  बातें" कहावत ठाकुर साहब पर खरी उतरती थी। 
                  एक और दृश्य ................ वो देख रहा था ............... कॉलोनी का कामचोर गोरखा चौकीदार। महीने में दस दिन मुश्किल से गश्त पर आना और कुछ पूछो तो, " ओ शाब उदर की गली शे शुरू किया, इदर बहुत लेट आया," जैसे कई बहाने चेप देना। सुबह का समय ........... गोरखा 'जीतू वाटर-टैंकर्स" के ड्राइवर बिहारी के पास बैठा बीड़ी फूँक रहा है। ठाकुर साहब गली के नुक्कड़ तक आए और गोरखे को हाथ से इशारा कर बुलाया। गोरखा बीड़ी फैंक कुछ दौड़ता, कुछ चलता फटाफट ठाकुर साहब की ओर लपका। इतने में ठाकुर साहब अपनी हवेली तक पहुँच चुके हैं। बरामदे में लगे मोढ़े पर अध-पसरे हुए हैं। गोरखे ने सलाम किया। ठाकुर साहब ने एकदम धीमे से पूछा, "रात को आता क्यों नहीं है गश्त पर? ...... किस बात के पैसे लेता है?" गोरखे का हर बहाना उसके हलक में ही अटका रह जाता है। "ओ शाब ...... ओ शाब ......." के आगे कुछ नहीं। "चल मुर्गा बन," कह कर ठाकुर साहब खड़े हो गए। उनकी चमकदार आँखों में एक राजशाही क्रूरता उबली ओर गोरखा अगले ही पल मुर्गा बन गया। गली में आते-जाते लोग देख रहे हैं। हँस भी रहे हैं तो मुँह इधर-उधर छुपा कर। कुछ देर बाद अपराधी को दंड मुक्त किया गया और फिर सुनाया गया 'फाइनल वरडिक्ट'- "मैं रोज़ रात को एक पत्थर गेट के पास रखूँगा, तू रात को गश्त करेगा और उस पत्थर को उठा कर बाहर वाली खिड़की के नीचे रखेगा और तीन बार लाठी बजाएगा।" और उस दिन के बाद गोरखे की गश्त नियमित हो गई। 
                  दृश्य पर दृश्य ............. बहुत सारे दृश्य ........... वो देख रहा है ............ ना जाने कितने ही 'फाइनल वरडिक्ट' सुन रहा है। इधर नीचे से ऊपर को उठती अग्नि की लपटें लकड़ियों और उन पर लेटे ठाकुर साहब के शरीर को भस्मावशेष में बदलती जा रही थी। अचानक उसने देखा कि ठाकुर साहब के शरीर से उनकी टांग का घुटने से नीचे का हिस्सा लकड़ियों से बाहर को निकल आया। ज़्यादा नहीं पर कई दाह-संस्कारों में वो सम्मिलित हो चुका था पर ऐसा तो कभी नहीं देखा। बाद में चिता सजाने के एक्सपर्ट लोगों से उसे पता चला था कि चारों ओर लकड़ी लगाने में थोड़ी भी चूक हो जाए तो ऐसी अनहोनी हो जाती है। कुछ देर भी ये टांग ऐसे बाहर को रही तो बाक़ी शरीर से इसके जुड़ाव वाले अवयव जल जाएंगे और ठाकुर साहब की ये टांग चिता से बाहर गिर जाएगी, जल नहीं पाएगी। चिता के पास ही खड़े उनके रिश्तेदारों में से एक लड़का जो शायद उनका कोई नाती-पोता होगा, देख कर एक झटके से ठाकुर साहब के बड़े बेटे के पास पहुँचा और चिता की ओर इंगित करके फुसफुसाया, 'दाता री टांग।' राजपूती परंपरा के अनुसार नाती-पोते अपने बुज़ुर्गों को दाता संबोधित करते हैं। अब तो एक अजीब सी हड़बड़ाहट मच गई। सभी रिश्तेदार एक दूसरे को बताने लगे, "अरे देखो! दाता री टांग।" घबराए लोगों को समझ में नहीं आ रहा था कि अब किया क्या जाए। अग्नि का आवेग अपने चरम पर था। पास जाने की सोचना भी असंभव था। अब तक सभी रिश्तेदारों के चेहरों पर ठाकुर साहब के चले जाने के दुख का भाव अपनी पूर्ण राजसी भंगिमा में अंकित था। अचानक घटी इस घटना ने उस राजसी भंगिमा के छद्म-आवरण को छिन्न-भिन्न कर दिया और वे ठगे हुए से कुछ ना कर पाने की स्थिति में केवल "दाता री टांग, दाता री टांग," कहते हुए एक दूसरे को दिखाने लग गए; मानो उनके इस तरह सामुहिक प्रलाप करने से ठाकुर साहब स्वयं अपनी टांग समेट कर फिर से चिता के अंदर कर लेंगे। तभी उसने देखा श्मशान में चिता जलाने में सहायता करने वाला, जो कि निस्संदेह किसी नीची जाति का डोम या चांडाल रहा होगा, बड़े ही निश्चिंत भाव से आया और एक लंबे बाँस को ठाकुर साहब की बाहर निकली हुई टांग पर रखा और अत्यंत लापरवाही से एक ज़ोर की ठोकर से उसे जलती लकड़ियों के बीच धकेल दिया। सभी रिश्तेदारों की साँस में साँस लौटी पर उसे तो जैसे काटो तो खून नहीं। इस बदज़ात की हिम्मत कैसे हुई कि ठाकुर साहब के साथ ऐसी बद्तमीजी कर जाए। ये सब इतनी जल्दी में हुआ कि एक बार को उसे लगा कि ये तो आज मरेगा, इतनी बड़ी बद्तमीजी जो कर बैठा था वो। बस हर बार की तरह वो टकटकी लगा कर देखने लगा कि अब ठाकुर साहब क्या 'फाइनल वरडिक्ट' सुनाते हैं। 
                  ................. पर आज कुछ नहीं हुआ। वो करीने से काढ़े हुए काले-सफ़ेद पट्टीदार बाल, झब्बूदार मूँछें जो कि कोनों से ऊपर उठ कर राजपूती दुंदुभिनाद करती सी प्रतीत होती थीं .......... जाने कहाँ खो गए थे! जीवन की क्षण-भंगुरता, नाशवान देह और वैराग्य भाव, सब एक फ्रेम में समेकित हो गए और वो थी- 'दाता री टांग।' रिश्तेदारों को हाथ जोड़ने की परंपरा का निर्वाह कर वो श्मशान से निकला और अपने स्कूटर की ओर बढ़ा। अब उसे अपनी दुनियावी प्रेयसी की घनी ज़ुल्फों की नर्म छाँव में जिंदगी गुज़ारने की तफ़्तीश करते हुए उसे शादाब करने की जुगाड़ में जो लगना होगा। 
                 

     

9 टिप्‍पणियां:

  1. Mjhe kahani bahut pasand aayi or mjhe is bat ki bhi khushi hai ke me is kahani ki pratham pathak hu.jab ye kahani mene pehli bar padhi thi tab ye adhuri thi lekin jab aaj purn taiyar kahani padh rahi hu to bahut acha laga. Kahani ko padhte padhte kahani me likhe gye sare drashya aankho ke aage prakat ho rahe hai .kahani se jo sandesh mil raha hai aaj sansar ki yahi sthti hai insan apne pure jeewan kal me ahankar se bhara rehta hai apne aage kisi ko nhi tikne dena chahta kisi ke aage nhi jhukta lekin jb naswar sharir ek din mratu ko prapt krta hai tb sab kuch yahin chhut jata hai iska ahankar, ghamand sab usi ki tarah mitti me mil jata hai.
    Kahani ka title bhi kaffi rochak hai or kahani padhte padhte kahani ke ant ko janney ki zigysa badhti chali jati hai.
    Dhanyawad

    जवाब देंहटाएं
  2. Jeevan ka katu satya jise hum jaanbhujh k undekha karte h.jaruri b h.kyoki is satya ko agar maan le to duniadari kon nibhayega.?is sansaar ko gati kon dega?

    जवाब देंहटाएं
  3. विनोद विट्ठल11 मार्च 2015 को 10:32 pm बजे

    भाई मज़ा आ गया. ये नाटककार का गद्य लगता है. इससे शायद धीरे-धीरे बाहर आयेंगें. यही जीवन का अंतिम अरण्य है जहां प्रिय इतने क्रूर हो जाते हैं और हम इतने बेबस. लेकिन मृत्यु यही तो है. Can we say death as reaction less life. Please go ahead. इसी का अगला दृश्य सोचें. लोग शमशान से निकलते-निकलते ही भूलना शुरू करते हैं और घर पहुँचते-पहुँचते फिल्म देखने की प्लानिंग करने लगते हैं या फिर अचानक खराब हुई सीएल का अफसोस करने लगते हैं.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बिलकुल ठीक पकड़ा विनोद भाई। मेरी ये कहानी पूरी तरह से नाट्यानुभूति देती है, इसे लेकर अब मैं आश्वस्त हूँ। Death as reaction less life को कथा के सूत्रों में उतारने की कोशिश की है। फिर भी लेखन में सुधार के लिए तो आपके साथ की लंबी बैठकें चाहिए ही चाहिए।
      आभार

      हटाएं
  4. कहानी भारतीय दर्शन की भावभूमि में लगा रचनात्मकता का पौधा है.जीवन bhr

    जवाब देंहटाएं
  5. श्मशान घाट पर मन के अन्तर्द्वन्द्व को प्रकट करता अच्छा प्रयास है। श्री श्री रविशंकर जी को उद्धृत करना चाहूंगा। उन्होंने मन को मनोरंजन का सर्वश्रेष्ठ साधन बताया है।

    जवाब देंहटाएं