सोमवार, 16 मार्च 2015

सपना

बहुत हुआ सतरंगे सपने
बहुत हुआ अब तुम जाओ
व्यर्थ भ्रमों के जाल बिछाकर
और ना मुझको उलझाओ

तेरे संग बहुत खेला मैं
गाए गीत सुहाने से
नाचे नाच अनगिनत मैंने
उठे कदम दीवाने से

ललकी थी मेरी बाँह और
पुलके थे नयन नशीले तब
सतरंगी आभा से झिलमिल
तुम करीब आए थे जब

एक अंजाना संसार बसा
मधु के प्याले सा झूम गया
यात्रा-पथ मेरा निश्चित था
दोराहे पर मैं घूम गया

क्यों घूम गया तुम क्या जानो
सपने हो आखिर सत्य नहीं
अन्तर्मन अकुला जाता है
वरना यह मेरा कथ्य नहीं

आन्दोलित हो मानस से मैं
बस यही सोचता रहता हूँ
सपने तो देखे खूब मगर
क्यों इसी स्वप्न की कहता हूँ

माया ही है पर कुछ तो है
जिससे यथार्थ को भूल गया
जैसे एक बालक थाली में
चन्दा को पाकर फूल गया

इस अनुपम मृगतृष्णा में तुम
क्यों मुझ मृग को भटकाते हो
एक अंजाना संबंध लिए
क्यों द्वार मेरा खटकाते हो

बीतेगी रात्रि जैसे ही
तुम भी अलोप हो जाओगे
मदहोश होश में आ भी जा
बस यही शब्द कह पाओगे

फिर बुझी-बुझी आँखें लेकर
अचरज कर करके रोऊँगा
दुनिया में तुम्हें खोजने को
खुद भाव-भँवर में खोऊँगा

फिर भी तुम नहीं मिलोगे यह
कटु लगता है पर सत्य वचन
यूँ रात गई यूँ बात गई
क्यों भूल गया मेरा कवि मन

क्यों भूल गया मैं, मैं क्या हूँ
बालक सम और ना बहलाओ
है निकट भोर मैं भी जगलूँ
रहने दो और ना सहलाओ

क्या कहूँ और मैं तुमसे अब
कुछ पल के हो पर अपने हो
जीवन में तुम एक स्वप्न सही
लेकिन सुन्दरतम सपने हो

वो देखो सूरज उदय हुआ
जाना होगा अब तुम जाओ
बहुत हुआ सतरंगे सपने
बहुत हुआ अब तुम जा

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