मंगलवार, 3 मार्च 2015

प्रतीक्षा

बढ़ता जाता द्वंद्व
खिंचती जाती लकीरें
जन्म लेता नर-पशु।
करता अट्टहास
खोलता खुनी जबड़े
आर्तनाद करती मानवता।
सभी बन गए पार्थ
बैठें हैं संशयग्रस्त
दीखते भयातुर।
प्रतीक्षा है कृष्ण की
देंगे दिव्य दृष्टि
जगाएंगे ज्ञान।
किन्तु तब तक
नर-पशु लील जाएगा
समूची मानवता।
कानों में पिघले शीशे सा
उतरता रुदन, हाहाकार, चीत्कार।
आँखें ताक रही क्षितिज को
दिखाई दे कहीं मोर पंख
सुनाई दे कहीं बंशी की धुन
कोई कहियो रे प्रभु आवन की।


1 टिप्पणी:

  1. चार्ली-हेब्दो और पेशावर में हुई नृशंस आतंकवादी हत्याओं ने मानसिक उथल-पुथल मचादी।

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