सोमवार, 2 मार्च 2015

चिट्ठी

और आखिर उसने तय कर ही लिया कि वो चिट्ठी लिखेगा। ऐसा नहीं है कि ये निर्णय उसने आज ही किया है, कई बार ये हुआ है, पर जाने क्या सोच कर उसने अपना विचार बदल लिया। पर आज तो वो ज़रूर लिखेगा। मंगल ने जल्दी से काग़ज़ पैन संभाल लिया। थोड़ी देर तक काग़ज़ पर उलटी-सीधी लकीरें बनाता-काटता  रहा, साथ में सोच भी रहा था। कुछ देर बाद उसे लगा सोचते-सोचते बहुत देर हो गई, नहीं ..लकीरें बनाते-बनाते बहुत देर हो गई, या शायद दोनों ही बात। कटी-फटी लकीरों से ज़िंदगी झाँकने लगी तो उसे हँसी आ गई।
प्रिय पूजा!
इतना लिखते ही उसने काट दिया। क्यों काटा ? पता नहीं। शायद ठीक नहीं था। तो क्या ठीक रहेगा ? हाँ, पूजा जी! नहीं-नहीं ये तो अजीब सा लग रहा है। पूजा! हाँ, ये सही है ......
पूजा,
कैसी हो? आज इतने दिनों बाद मेरा पत्र देख कर न जाने तुम क्या सोच रही होगी। दिल्ली जाने के बाद कभी तुम्हारी कोई ख़बर ही नही मिली, इसलिए सोचा कि तुम्हारे  हाल-समाचार ही जान लूँ। यहाँ बहुत बढ़िया है। सब ठीक है। याद है तुमने एक बार कहा था, "मंगल तुम सदा रहो कुशल मंगल," और हम कितना हँसे थे। मुझे सब याद है। कभी-कभी मुझे लगता है शायद मेरी तकलीफ़ की वज़ह यही है कि मुझे सब कुछ याद रहता है। इंसान को भूलना भी चाहिए, पर भूल नहीं पाता। 13 मई 1989 …… उस दिन सूरज से आग बरस रही थी। गर्म लू के झौंके कानों के पास से गुज़रते तो लगता कि  सिर को किसी ने दहकती हुई भट्टी में डाल दिया हो। क़िताबों की दुकान के पास दिन भर खड़ा रहा था। आस-पास पानी नहीं था और जगह छोड़ कर जाने का मन नहीं हुआ। शाम को घर लौटते हुए जाने कितनी बार मुड़ कर देखा। गला सूख गया था पर पानी बेस्वाद हो गया। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। पर आज मैं तुमसे क्यों लड़ रहा हूँ? शायद इसलिए कि उस दिन से ही मेरी ज़िंदगी एक लड़ाई बन गई। एक ऐसी लड़ाई जिसके हर मोर्चे पर मैं अकेला था। ज्यों-ज्यों लड़ता गया ,त्यों-त्यों ज़िंदगी दुष्कर बनती गई। उसके तीखे-नुकीले जबड़ों के बीच मैं छटपटाता रहा- असहाय और बेबस। ज़िंदगी के वीभत्स, घिनौने अट्टहास मुझे कुंद करते रहे। ज़िंदगी जब मज़ाक उड़ाने लगती है तो हर कोई मज़ाक उड़ाने लगता है। जाने दो ....मैं भी क्या अपनी ले बैठा। तुम बताओ, तुम्हारे क्या हाल हैं। तुम्हारा परिवार, पति, बच्चे ….... सब कैसे हैं? क्या तुम्हारे बच्चे भी तुम्हारी तरह झिझक भरी हँसी हँसते हैं? क्या वो भी बोलते-बोलते चुप हो जाते हैं? क्या उनका रंग भी...........? उफ़्फ़! न जाने मैं भी क्या पूछ रहा हूँ। कभी-कभी ये दिमाग़ भी इंसान को चक्कर में डाल देता है। कहना कुछ और चाहता है, कहता कुछ और है। पर तुम बुरा मत मानना। इतने दिनों बाद चिट्ठी लिख रहा हूँ, या यूँ कहलो कि इतने दिनों बाद कुछ लिख रहा हूँ, इसलिए शायद थोड़ा नर्वस हूँ। अच्छा, दिल्ली का मौसम कैसा है? सुना है वहाँ सर्दी और गर्मी दोनों तेज़ पड़ती है? पर यहाँ भी सर्दी और गर्मी दोनों तेज़ ही पड़ती है। सर्दियों से याद आया, तुम्हे याद है एक दिन तुम सुबह-सुबह मुझसे मिलने आई थीं और सर्दी इतनी तेज़ थी कि तुम  काँपते हुए रज़ाई में घुस गई थीं। आजकल इतनी सर्दी नहीं पड़ती। सच तो ये है कि अब सर्दी पड़ती ही कहाँ है। सारे मौसम अपना रंग खोते जा रहे हैं। पर रात, रात आज भी उतनी ही अच्छी उतनी ही अकेली लगती है। रात के अँधेरे में ही तो सूरज का सपना छुपा हुआ है। अँधेरे के गहराने का एहसास रोशनी की आहट है। लेकिन यह ज़िंदगी किताबी-कथनों की पंक्तियों की तरह इतनी सीधी और सरल भी नहीं होती। पूजा, इस मन की गहन गुफाओं में व्याप्त अँधियारे कई बार सूरज का प्रवेश तक निषेध कर देते हैं और फिर तब शुरू होता है मन की दीवारों से सर टकराने का दौर; टकराना और एक डरावने अंधकार में टोहते हुए रास्ता खोजना। 1 दिसंबर, तुम्हारा जन्मदिन। हम लोग घंटों अस्पताल के मोड़ के पास लगे गुलमोहर के पेड़ के नीचे यह  तय करने के लिए खड़े रहे कि कहाँ चला जाए। तुम्हें याद है ना पूजा! अंतत: हम कहीं नहीं जा सके। उस दिन मैंने महसूस किया था कि तुम्हारा मन एक अंजाने अंधकार में छटपटा रहा है, कुछ ढूँ रहा है; शायद अपनी यात्रा की दिशा तय नहीं कर पा रहा है। एक बात बताऊँ, तुम्हारे शहर छोड़ के चले जाने के बाद भी मैं जाने कितनी बार उस गुलमोहर के पेड़ के तले जाकर खड़ा हुआ हूँ। अब यह तो क्या बताऊँ कि मैं वहाँ क्या देखने जाता रहा, पर हाँ, इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि वहाँ जाकर मैं कुछ बदल-सा जाता था।  
देखो! मैं फिर घूम कर अपनी ही बात कहने लग गया हूँ। मैं कुछ स्वार्थी हो गया हूँ। हाल तुम्हारे जानना चाहता हूँ और अपनी कहे चला जाता हूँ। या कहीं ऐसा तो नहीं……… जाने दो शायद तुम्हे बुरा लग जाए। पूजा! कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारी बात मेरे शब्दों का चोला पहन रही हो? लेकिन यह भी तो पूरी तरह नहीं हो पाता है। भले ही हम कितना भी इत्मीनान क्यूँ ना करलें लेकिन ऐसा बहुत कुछ होता है जो अनकहा रह ही जाता है। उसी अनकहे को कह पाने या सुन पाने के लिए हम जाने क्या-क्या करते चले गए! कैंटीन में चाय के प्यालों के साथ चलती वो अंत्याक्षरी, अंत्याक्षरी में जानबूझ कर गाए गए कुछ खास गीत,साईकिल-स्टैंड पर अचानक रोक कर तुम्हें एक किताब देना और यह बताना कि इसमें वो कहानी ज़रूर पढ़ना, रात के सन्नाटों में खुद से बतियाते हुए कविताएं लिखना और दूसरे दिन तुम्हें पढ़ाते हुए तुम्हारी आँखों में उसका असर तलाशना; ये सारा कुछ हर बार कम-सा लगने लगा उस अनकहे को कह पाने या सुन पाने में। और अब यह चिट्ठी... या कि चिट्ठी लिखने का खयाल भी, क्या उसी तरह की कोशिश नहीं है? पर एक बात तो तुम भी मानोगी कि इतना कुछ अनकहा रहने के बाद भी वो धुँधला-सा ही सही, पर कुछ था ज़रूर, जो हमें दिखाई देता था; ठीक वैसे ही जैसे दूर घाटियों की तलहटी में बसा कोई छोटा-सा मंदिर, न दीखते हुए भी, उसकी घण्टियों की टन-टन से हमारी समझ में आकार लेने लगता है। कमाल है, एक धुँधला-सा एहसास इस कदर ज़िंदगी पर हावी हो जाता है कि किसी के मानस पटल पर छप कर हर दृश्य को, हर विचार को और यहाँ तक कि काम करने के तरीके तक को अपने ढंग से बदल के रख देता है! मैं सही कह रहा हूँ ना पूजा! क्या तुम्हें भी ऐसा ही महसूस..., छोड़ो जाने दो। न जाने कितने प्रश्न पूछता रहा तुमसे हमेशा, और आज भी तो देखो ना...! पर तुम्हारा वो एक प्रश्न...! एक अनुत्तरित प्रश्न मुझे चैन नहीं लेने देता है। वो प्रश्न जो बरसों पहले तुमने मुझसे किया था। याद है, तुमने मुझसे पूछा था, "मंगल! मुझे बतादे मैं तुझे छोड़ कर क्यों जाऊँ?" हवाओं पर तैरता हुआ ये प्रश्न मेरे कानों से टकराता है और मैं परेशान हो जाता हूँ। दिन की भट्टी में अपने आप को झौंक देता हूँ। एक पल के लिए भी खुद को बचा कर नहीं रखता। डरता हूँ, सड़क के किसी कोने से, लैम्प पोस्ट के टूटे हुए काँच से या अधफटे फ़िल्मी पोस्टर से यही सवाल रैंगता हुआ आकर मुझ पर कुंडली मार कर ना बैठ जाए। आगे-आगे मैं भागता हूँ और पीछे-पीछे ये सवाल। थक कर हाँफता हुआ, कब ना जाने नींद की भूलभुलैया में चला जाता हूँ, पता नहीं लगता। सब कुछ खो गया, बस ये दौड़ बची है। बहुत हो गया, अब बंद करता हूँ। मन किया और लिख दिया। कभी यहाँ आओ तो मिलना, या चिट्ठी लिखना, या फिर जैसा तुम ठीक समझो।
                                                                                               
                                                                      तुम्हारा 
                                                                                             मंगल 
चिट्ठी तो शायद मंगल ने दूसरे दिन ही डाल दी। बरसों बीत गए, कोई जवाब नहीं आया। क्या पता कुछ लोग कह रहे थे उसने पता सही नहीं लिखा। कुछ लोग तो ये भी कह रहे थे कि वो पूजा नाम की किसी लड़की को जानता ही नहीं था।कुछ लोग तो दबे स्वर में ये भी कह रहे थे कि उसके शहर में तो लैटर-बॉक्स ही नहीं था। ……………………………राम जाने, उसने चिट्ठी लिखी भी थी या नहीं।
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7 टिप्‍पणियां:

  1. शायद मंगल ने चिट्टी भेजी ही नहीं।

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  2. ब्लॉग जगत में स्वागत कमलेश भाई.कहानी पर प्रतिक्रिया अलग से और विस्तार से दी जाएगी.अपनी रचनाएं इस मंच पर हमसे साझा करने का शुक्रिया.

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  3. कमलेश भाई मुझे ये बेहद सम्भावनाशील कहानी लगी.सम्भावनाशील इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मुझे विश्वास है इस कहानी को पढ़नेवाला इसके शब्दों के कहे और अनकहे में कुछ देर और रहना चाहता है.और इसका अगला और फाइनल ड्राफ्ट इस बीज रूप कहानी को मुकम्मल बिरवे में सामने ले ही आएगा.इसका मतलब ये नहीं है कि ये कहानी अधूरी है बल्कि ये 'बोन्साई' सी लगती कहानी भी अपने स्वरुप में मुझे पूरी ही लगी.बस पाठक को 'इत्ती सी' के बजाय 'इत्ती बड़ी' कहानी चाहिए.
    सच कहूं तो मुझे लगता है आपके पास एक समर्थ भाषा है और कहानियों के लिए उर्वर मानस भूमि भी.शायद आप पहले भी कहानियां लिखते रहे हैं,पर मेरी जानकारी में ये पहली कहानी ही आई है..जो भी हो आपको इसी तरह लिखते रहने की शुभकामनाएं.शुभ.मंगल. :)

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    1. शुक्रिया संजय भाई। आपके सुझाव, आपकी प्रतिक्रियाएँ मुझे बेहतर लेखन में सहायता देंगी। जिन लोगों ने भी इस कहानी को पढ़ा है उन में से ज्यादातर को इसका 'अनकहा' प्रभावित करता है। ....इसी तरह उत्साहवर्द्धन करते रहना।

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  4. Heart Touching lines........
    Chitthi padhkar ek khushi ka anubav or ek ehsas jo dil ko kisi ke bhut kareeb hone ka ehsas krwa raha hai.
    Bhut sari shubkamnayein
    Shukriya

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    1. धन्यवाद पूनम। खुल के आलोचना भी अपेक्षित है।

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