सोमवार, 10 अप्रैल 2017

हथेलियाँ

परत दर परत

खुलती हैं हथेलियाँ

कहीं घिसी हुई लकीरें

बयाँ करती हैं पहाड़-सी जिंदगी से टकराने का दर्द

कहीं प्रीतम की प्रतीक्षा में

आंसुओं को पोंछ कर नम हुई हथेलियाँ

कहीं हर बार हार जाने के बाद

मन मसोस कर

एक दूसरे को मलती हुई हथेलियाँ

फिर भी उठती हैं जब भी किसी की ओर

देती हैं तसल्ली,

बनती हैं सहारा

हथेलियाँ नहीं

दुआओं की जादुई पोटली हैं ये।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें